उत्तराखंड की हुकुमत से रुक पाएगा पलायन? - Mukhyadhara

उत्तराखंड की हुकुमत से रुक पाएगा पलायन?

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उत्तराखंड की हुकुमत से रुक पाएगा पलायन?

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

1994 से ही उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग होती रही जिसके लिए लंबी राजनीतिक लड़ाई भी चली और कई लोगों ने इसके लिए कुर्बानियां भी दी थी। उत्तराखंड ने विकास के कई मुकाम छूए हैं। लेकिन कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर अब तक की सरकारें ठोस कदम नहीं उठा पाई हैं। 24 साल में अब तक 10 साल भाजपा और 10 साल कांग्रेस को मिले। दोनों सरकारों को उत्तराखंड में विकास करने का पूरा मौका जनता ने दिया, लेकिन उत्तराखंडियत का सपना कितना सच हो पाया। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों को लेकर राज्य की जनता आए दिन सड़कों पर रहती है। पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं। लेकिन जब भी सरकार की इच्छा शक्ति हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है।

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आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। राज्य सरकारें पलायन को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बना पाई। पलायन आयोग तो बना दिया गया लेकिन इसकी रिपोर्ट को किसी भी सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तराखंड की 66% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। इसमें से 80% से अधिक आबादी पर्वतीय ज़िलों में हैं। वर्ष 2001 और 2011 के जनसंख्या आंकड़ों के मुताबिक़ राज्य के ज़्यादातर पर्वतीय ज़िलों में जनसंख्या वृद्धि दर बेहद कम रही है। इस दौरान अल्मोड़ा और पौड़ी ज़िले की आबादी में 17,868 व्यक्तियों की सीधी कमी दर्ज की गई है। साफ है कि उत्तराखंड में पलायन आज भी बड़ी समस्या है। जिसको लेकर कोई भी सरकार गंभीर नजर नहीं आता है।

पलायन वह किस्सा है जो उत्तराखण्ड में सबसे ज्यादा सुना औेर कहा जाता है। हर राजनेता और सामाजिक चिंतक भी पलायन को लेकर अपनी-अपनी चिंता व्यक्त करते रहते हैं। राजनीतिक दल हर चुनाव में पलायन रोकने के लिए ठोस योजनाएं बनाने के दावे करते हैं। जबकि गैर सरकारी संगठन इसके लिए सेमिनार के आयोजन कर अपना पसीना बहाते हैं। इस पूरी कवायद का लाभ राज्य को कितना मिला यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन सच्चाई यह है कि आज भी राज्य से प्रत्येक दिन 230 लोग पलायन कर रहे हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पलायन पर चिंता केवल नारों-वादों और कागजातां में ही हो रही है जबकि हकीकत बिल्कुल विपरीत है। प्रदेश के सभी 13 जिलों से बाहर जाने वाले लोगों के आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं। जिसके अनुसार नजदीकी कस्बों से 35 प्रतिशत लोगों ने पलायन किया है तो वहीं जिला मुख्यालय से 18 प्रतिशत लोगों ने पलायन किया है। इसी तरह राज्य के अन्य जनपदों से पलायन का आंकड़ा 24 प्रतिशत रहा है।

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राज्य से पलायन करने वाले लोगां का आंकड़ा बेहद चौंकाने वाला है। यह बात तब ज्यादा गंभीर हो जाती है जब 2018 के बाद तत्कालीन राज्य सरकार प्रवासियों के रिवर्स पलायन के लिए तमाम तरह की घोषणाएं और दावे किए थे लेकिन पलायन आयोग के आंकड़ों में 22 फीसदी लोग इन चार वर्षों में राज्य के बाहर पलायन कर गए जो कि सरकार की नीति और नीयत पर सवाल उठाने के लिए काफी है। सरकारी नीतियां पलायन रोकने में नाकाम ही रही हैं। हालांकि देश से बाहर भी उत्तराखण्ड के लोगों का पलायन हुआ है जिनका आंकड़ा 1 प्रतिशत है।पलायन आयोग द्वारा पलायन के कई कारणों का उल्लेख अपनी रिपोर्ट में किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि आयोग द्वारा 2011 से 18 में जो कारण बताए हैं, वही सभी कारण 2018-22 में भी बताए गए हैं यानी इन दोनों कालखंडों में पलायन के कारण सरकार और प्रशासन के अलावा सभी चिंतकों को अच्छी तरह से ज्ञात थे लेकिन इनके निवारण के लिए कोई ठोस कार्यवाही नहीं की गई।

आयोग के अनुसार रोजगार, चिकित्सा, शिक्षा बुनियादी सुविधाओं की कमी जैसे सड़क, बिजली, पानी और कृषि और पैदावर में कमी जिसमें वन्य जीवों का कृषि पर आतंक, परिवार और रिश्तेदारों के बेहतर जीवनशैली से प्रभावित होने जैसे कमोवेश यही सब कारण विगत 12 वर्षों से उत्तराखण्ड की जनता के पलायन के लिए जिम्मेदार बताए गए हैं। आंकड़ों को देखें तो 50 प्रतिशत लोगों ने आजीविका के लिए पलायन किया है तो 8-83 फीसदी लोग चिकित्सा, स्वास्थ्य की कमी के चलते पलायन को मजबूर हुए हैं। शिक्षा की कमी के चलते 15-21 और 5-44 प्रतिशत लोग कृषि की कमी यानी खेती में फसलों की कम उत्पादकता के कारण पलायन कर गए। यही नहीं 5-61 प्रतिशत वे लोग हैं जिनकी खेती को जंगली जानवरों द्वारा हानि पहुंचाई जाती रही है जिसके चलते उन्होंने पलायन का मार्ग चुना है। इसमें सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात यह है कि विगत पांच वर्षों में खेती का रकबा घटा है बावजूद इसके प्रदेश को केंद्र सरकार से दो बार कृषि कर्मणा पुरस्कार भी मिल चुका है। साथ ही किसानों की आय को दोगुना करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार द्वारा करोड़ों का बजट खर्च किया जा रहा है।

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हैरानी इस बात की है कि करोड़ों खर्च करने के बावजूद कृषि उत्पादन में भारी कमी और खेती को जंगली जानवरों से हो रही क्षति के कारण कुल 11 प्रतिशत लोगों का पलायन हुआ है जो कि अपने आप में बेहद चौंकाने वाला आंकड़ा है।8 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने अन्य विशेष कारण से पलायन किया है। हालांकि इन कारणों का खुलासा पलायन आयोग द्वारा नहीं किया गया है लेकिन जानकारों की मानें तो इसमें ज्यादातर सामाजिक कारण हैं जो जातिगत व्यवस्था से हो सकते हैं,साथ ही किसी परिवार के एक सदस्य द्वारा नगरीय क्षेत्रों में सरकारी या निजी क्षेत्र में नौकरी, रोजगार आदि के मिलने से उसका परिवार भी पलायन कर रहा है। इस बारे में स्वर्गीय इंद्रमणी बड़ोना कहा करते थे कि जिस गांव में
सड़क बनती है तो सबसे पहले गांव सड़क में आ जाता है फिर कस्बे में और फिर नगरीय क्षेत्र में पलायन बढ़ता है। वास्तव में यह एक बेहद सोचनीय विषय है कि जिस सड़क को गांव में पलायन रोकने का बड़ा माध्यम माना जाता है वही सड़क गांव से पलायन का एक माध्यम बन जाती है। भले ही यह पलायन अस्थाई या नजदीकी क्षेत्रों में ही होता हो लेकिन यह भी पलायन का एक रूप ही है।

राजधानी का तमगा ओढ़े देहरादून जैसे जिले के 5 ऐसे विकासखंडों के 239 ऐसे गांव तोक मजरे हैं जो सड़कों से नहीं जोड़े जा सके हैं। इनमें 210 गांव ऐसे हैं जो सड़क से 5 किमी दूर हैं और 24 ऐसे गांव हैं जिनकी दूरी सड़क से 6 से लेकर 10 किमी तक है। यह अपने आप में ही बेहद चौंकाने वाला मामला है कि 23 वर्षों से राजधानी और विकसित जिला होने के बावजूद आज भी 210 गांव सड़कों की सुविधा से वंचित चले आ रहे हैं।

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हैरानी की बात यह है कि हर सरकारी कर्मचारी और अधिकारी यहां तक कि ब्यूरोक्रेट पर अपनी पोस्टिंग देहरादून जिले में करवाने के लिए तमाम तरह से हथकंडे अपनाता है। साथ ही तमाम तरह से विभागों के मुख्यालय तक इसी देहरादून में होने के बावजूद जिले के गांवों में सबसे बुनियादी सुविधा तक नहीं दी जा सकी है जिसके चलते राज्य से पलायन होने का एक कारण सड़क सुविधा को माना जा रहा है। पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं। लेकिन जब भी सरकार की इच्छा शक्ति हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है। आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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