शिक्षित युवाओं (educated youth) में बढ़ती बेरोजगारी बनी सबसे बड़ी चुनौती
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
देश में लोकसभा चुनाव की तारीखों का एलान हो चुका है. इस चुनाव में विपक्ष बेरोजगारी को सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिशों में जुटा है। चुनावों के ठीक पहले इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाईजेशन ने इंस्टीच्युट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट के साथ मिलकर देश के युवाओं में रोजगार के हालात को लेकर एक डेटा जारी किया है जिसमें बताया गया है कि देश में 83 फीसदी युवा वर्कफोर्स बेरोजगार है। इस रिपोर्ट में बताया गया कि कुल बेरोजगार युवाओं में सेकेंडरी या हायर सेकेंडरी शिक्षा हासिल करने वाले युवाओं की संख्या जो 2000 में 35.2 फीसदी थी वो 2022 में करीब दोगुनी बढ़कर 65.7 फीसदी हो गई है। आईएलओ ने भारत में बेरोजगारी के इस हालात को बेहद गंभीर करार दिया है। इंडिया एम्पलॉयमेंट रिपोर्ट 2024 के नाम से आईएलओ ने अपनी रिपोर्ट जारी की है उसमें कहा गया, बेहतर क्वालिटी वाले रोजगार के अवसर में कमी के चलते ऐसे युवाओं में बेरोजगारी दर बेहद ज्यादा है जिन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की है।
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रिपोर्ट में बताया गया कि उच्च शिक्षा हासिल करने वाले युवा कम वेतन वाले उपलब्ध रोजगार, या फिर असुरक्षित रोजगार में जाने को कतई तैयार नहीं हैं जो अभी उपलब्ध है। बल्कि वे बेहतर अवसर आने तक रोजगार पाने के लिए रुकने को तैयार हैं। स्टडी में बताया गया कि कोरोना महामारी के दौरान शिक्षित युवाओं में रोजगार की कमी सबसे ज्यादा देखने को मिली है। इसके अलावा डॉब मार्केट में शामिल वर्कफोर्स का वेतन या तो स्थिर रहा है या फिर कम हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक 2019 के बाद से रेग्यूलर वर्कर या फिर सेल्फ एम्पलॉयड युवाओं का वास्तविक वेतन कम हुआ है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाईजेशन ने महिला लेबर वर्कफोर्स की कम होती भागीदारी को लेकर अपनी रिपोर्ट में चिंता जाहिर की है। रिपोर्ट के मुताबिक इससे देश के लेबर मार्केट में लिंग-अनुपात यानि पुरुषों के मुकाबले महिला वर्कफोर्स की कमी बड़ी चुनौती बनती जा रही है।
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इस रिपोर्ट में बताया गया है कि युवा महिलाओं के बीच बेरोजगारी की चुनौती सबसे भयावह है खासतौर से ऐसी महिलाओं के बीच जिन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की हुई है। आईएलओ ने अपनी रिपोर्ट में पढ़ी लिखी युवा महिलाओं के बीच बेरोजगारी को लेकर चिंता जाहिर की तो देश के मुख्य विपक्षी दल ने हाथों हाथ इस मुद्दे को लपक लिया. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने को सोशल मीडिया एक्स पर पोस्ट में लिखा कि 3 में केवल 1 महिला के पास रोजगार क्यों है? 10 सरकारी नौकरियों में 1 पद पर केवल महिला क्यों है? उन्होंने आधी आबादी को आधा हक देने का वादा करते हुए कहा कि अगर उनके दल की सरकार बनी तो नई सरकारी नौकरियों में आधी भर्तियां महिलाओं के आरक्षित होंगी। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन के इस रिपोर्ट को भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने खुद जारी किया था।रिपोर्ट जारी करते हुए उन्होंने कहा कि ये सोचना बेहद गलत है कि सरकार के हस्तक्षेप से देश में सभी सामाजिक और आर्थिक समस्याएं खत्म हो जाएंगी। उन्होंने कहा कि बेरोजगारी जैसी समस्या को दूर करने की बातें करना, इसका निराकरण करने से ज्यादा आसान है।उन्होंने कहा कि सामान्य तौर पर पूरे संसार
में कमर्शियल सेक्टर को रोजगार का सृजण करना चाहिए। उन्होंने कहा कि सरकार ने रोजगार के अवसर को बढ़ाने के लिए कई फैसले लिए हैं जिसमें कौशल विकास से लेकर नेशनल एजुकेशन पॉलिसी 2020 शामिल है। हालांकि मुख्य आर्थिक सलाहकार के इस बयान के बाद विपक्ष सरकार पर निशाना भी साध रही है।
विपक्ष का आरोप है कि सरकार रोजगार देने से अपना पल्ला झाड़ रही है।वित्त वर्ष 2023-24 भारत के लिए आर्थिक विकास के ग्रोथ रेट के लिहाज से बेहद शानदार रहा है। तीनों तिमाही में जीडीपी का ग्रोथ रेट 8 फीसदी से ज्यादा रहा है। पहली तिमाही में 8.1 फीसदी, दूसरी तिमाही में 8.2 फीसदी और तीसरी तिमाही में 8.4 फीसदी के दर से अर्थव्यवस्था ने विकास किया है।आईएमएफ ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि हाई ग्रोथ के चलते बेरोजगारी को कम करने में मदद मिलती है।ऐसे में अगले कुछ वर्षों तक भारतीय अर्थव्यवस्था 8 फीसद से ज्यादा दर के विकास करती है तो बहुत हद तक बेरोजगारी को कम करने में मदद मिल सकती है।
पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार ने भी हाल में कहा कि पॉलिसी भारत के लिए बड़ा अवसर है। इससे देश में बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियां निवेश करेंगी। निवेश आने से एक्सपोर्ट को बढ़ाने में मदद मिलेगी तो देश में नए रोजगार का सृजण होगा। कई जानकार मानते हैं कि देश की युवा जनसंख्या जिसे डेमोग्राफिक डिविडेंड बताया जाता रहा है उसके लिए पर्याप्त रोजगार के अवसर पैदा नहीं हुए तो इसके दूरगामी परिणाम सामने आ सकते हैं। 8 से 9 फीसदी जीडीपी ग्रोथ रहने पर ही देश में रोजगार के नए अवसर जगेंगे।इसके बगैर ना तो वास्तविक वेतन बढ़ेगा ना खपत और ना मांग बढ़ेगी। जिसका असर निजी निवेश पर भी पड़ सकता है। हाल ही में पूर्व आरबीआई गवर्नर ने कहा कि लोकसभा चुनावों के बाद केंद्र में जो भी नई सरकार बनेगी उसे सबसे ज्यादा शिक्षा – व्यवस्था और वर्कफोर्स के कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा। रघुराम राजन ने कहा, हमारे देश में वर्कफोर्स तेजी के साथ बढ़ रहा है लेकिन ये डिविडेंड सभी बनेगा उन्हें बेहतर रोजगार के भरपूर अवसर
उपलब्ध होंगे।
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उन्होंने कहा कि भारत को अपने वर्कफोर्स को सबसे पहले रोजगार लायक बनाने की जरूरत है साथ ही मौजूदा वर्कफोर्स के लिए पर्याप्त संख्या में नौकरियां पैदा किए जाने की भी आवश्यकता है। जिस तरह के मुद्दों पर आधारित ईमानदार विमर्श की अपेक्षा की जा रही थी, वह राजनीतिक गहमा-गहमी व वोटों की राजनीति में कहीं खो गया। उत्तराखंड को बनाने में आमजन की सीधी सहभागिता रही, इसमें हर वर्ग का संघर्ष रहा, लेकिन जब राज्य के बारे में सोचने व सरकारों के कार्यो के आकलन का मौका आया तो सभी सरकार से अपनी-अपनी मांगों को मनवाने में लग गए। ऐसा लग रहा है कि उत्तराखंड राज्य का गठन ही कम काम बेहतर पगार, अधिक पदोन्नति और ज्यादा सरकारी छुट्टियों, भर्तियों में अनियमितता व विभिन्न निर्माण कार्यो की गुणवत्ता में समझौता करने के लिए हुआ है। मानो विकास का मतलब विद्यालय व महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, अस्पतालों व मेडिकल कालेजों के ज्यादा से ज्यादा भवन बनाना भर है, न कि उनके बेहतर संचालन की व्यवस्था करना। हर साल सड़कें बनाना मकसद है, पर हर साल ये क्यों उखड़ रही हैं, इसकी चिंता न तो सरकारें करती हैं और न ही विपक्ष इस पर सवाल उठाता है।
जाहिर है कि करोड़ों रुपये के निर्माण में लाभार्थी पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने हैं।उस वर्षगांठ को मनाने का औचित्य ही क्या है जिसमें उपलब्धियों व असफलताओं की बैलेंस सीट ईमानदारी से न खंगाली जाए। अब लोग भी यह पूछने लगे हैं कि अलग राज्य बनने के बाद ऐसा क्या हुआ जो उत्तर प्रदेश में ही रहते तो नहीं हो पाता। अगर कई जमीनी मुद्दों को सत्ताधारी नहीं देखते हैं या छिपाते हैं तो इसके कारण समझ में आते हैं, लेकिन विपक्ष की खानापूर्ति तो चिंता का कारण बनती है। जाहिर है कि इन 21 सालों में जवाबदेह व्यवस्था नहीं बन पाई है। दोनों प्रमुख दलों ने प्रदेश को मुख्यमंत्री तो दिए, लेकिन जननेता नहीं। सत्ता के सिंहासन पर बारी-बारी से दल तो बदले, लेकिन तौर-तरीके नहीं।नौकरशाही का खामियाजा आमजन ने भुगता, लेकिन सत्ताधारी तो इसमें भी मुनाफा कमा गए। हर विफलता के लिए नौकरशाही को कोसने वाले सफेदपोश व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थी ही रहे हैं। जब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ तो यह माना जाता रहा कि अब नवोदित उत्तराखंड राज्य की राजनीतिक संस्कृति भी अलग होगी, लेकिन यह हुआ नहीं।
आज भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश की ही राजनीतिक विरासत ढो रहा है। बस बाहुबल की राजनीतिक संस्कृति से काफी हद तक निजात मिली है, बाकी सारी तिकड़म की राजनीति वहां भी है और यहां भी। मतदाताओं के सामने खड़ी समस्याओं के समाधान से अधिक उनकी भावनाओं के दोहन की फिक्र रही है। कर्मचारी-शिक्षक सबसे बड़ा वोट बैंक बन कर उभरा है। स्थिति यह है कि आर्थिक स्थिति कैसी भी हो कर्मचारी-शिक्षक यूनियनों के सामने सरकारें नतमस्तक होती रही हैं।यही वजह है कि 23 साल बाद भी आर्थिक-औद्योगिक प्रगति केंद्र की अपेक्षित मदद के बाद भी गति नहीं पकड़ पाई। विकास जो हो रहा है वह पूरी तरह से केंद्र के भरोसे। पीएम का उत्तराखंड के प्रति सकारात्मक रुख के कारण ढांचागत विकास पर तेजी से काम हो रहा है, पर सवाल है कि इतने सालों में प्रदेश इनका लाभ लेने की स्थिति में भी पहुंचा या नहीं। 23
साल में 11 मुख्यमंत्री, राजनीतिक अस्थिरता की कहानी भी बयान करता है। अब सरकारी योजनाएं ठंडे बस्ते में नहीं पड़ी रहेंगी, बल्कि मुख्यमंत्री से लेकर मुख्य सचिव तक ऐसी योजनाओं पर हरपल नजर रख पाएंगे। सरकारी योजनाओं की निगरानी के लिए इंफार्मेशन डेवलपमेंट एजेंसी (आइटीडीए) ने उन्नति पोर्टल तैयार किया है।
अलग राज्य बनने के बाद आठ मुख्यमंत्री बन चुके हैं लेकिन पहाड़ के विकास के लिए कोई भी गंभीर नहीं है। पलायन जारी है कोई ठोस नीति नहीं बनी है। राज्य आंदोलनकारी ने कहा कि राज्य के शहीदों और आंदोलनकारियों के अनुरूप उत्तराखंड नहीं बन पाया और न ही शहीदों के हत्यारों को आज तक सजा मिल पाई है।आज आंदोलनकारी इस बात को लेकर खफा हैं कि उनके सपनों का उत्तराखंड नहीं बन पाया। लेकिन जिन मोर्चों पर न्याय की इस लड़ाई को असल में लड़ा जाना था, वहां आंदोलनकारियों की मजबूत पैरवी करने वाला कभी कोई रहा ही नहीं। नतीजा यह हुआ कि न्यायालयों से लगभग सभी मामले एक-एक कर समाप्त होते चले गए और दोषी भी बरी हो गए। बेहद गिने-चुने जो मामले आज भी न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें भी यह उम्मीद अब न के बराबर ही बची है कि दोषियों को कभी सजा हो सकेगी।
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जब सत्याग्रह ने न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की तो यह कड़वी हकीकत सामने आई कि प्रदेश के शहीदों को बीते सालों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है. उत्तर प्रदेश से पृथक पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के लिए सालों तक यहां के लोगों ने आंदोलन किया। जिसमें शहीदों के बलिदान और राज्य आंदोलनकारियों के प्रयास से पृथक उत्तराखंड राज्य बना। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों को लेकर राज्य की जनता आए दिन सड़कों पर रहती है। पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं। लेकिन जब भी सरकार की इच्छा शक्ति हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है। आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है।
(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )