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अब जंगल की आग नहीं सुलगाएगा पिरूल, देगा बड़ा रोजगार

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अब जंगल की आग नहीं सुलगाएगा पिरूल, देगा बड़ा रोजगार

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्र 53,483 वर्ग किलोमीटर है। जिसका 45.74% क्षेत्र (24,465 वर्ग किलोमीटर) जंगलों से घिरा है। राज्य में मुख्य तौर पर चीड़ पाइन, साल, बांज ओक समेत अन्य वन पाए जाते हैं। सामान्य तौर पर समुद्र तल से 300-1000 मीटर ऊंचाई पर साल के पेड़ों के जंगल, 900-1800 मीटर तक चीड़ पाइन और 1500 -2300 मीटर पर बांज ओक के जंगल हैं। उत्तराखंड राज्य में गर्मी के मौसम में जंगलों में अक्सर धधकती आग की वजह से लाखों की वन संपदा जलकर नष्ट हो जाती है और जिसकी वजह से जंगलों में मौजूद पशु, पक्षियों को भी भारी नुकसान झेलना पड़ता है। इतना ही नहीं इस समस्या से ग्रामीण से लेकर सरकार तक परेशान नजर आती है। वनाग्नि की रोकथाम और इस समस्या से निजात पाने के लिए सरकार द्वारा 8 मई को ऐतिहासिक फैसला लिया गया था जिसमें सरकार ‘पीरुल लाओ पैसा पाओ’ मिशन पर कार्य कर रही है इसका उद्देश्य जंगल की आग को कम कर पिरूल को ग्रामीणों की आजीविका का सहारा बनाना है।

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चीड़ के वन ज्यादातर आबादी वाले इलाकों से लगे हुए हैं और कुल वन क्षेत्र का तकरीबन 28% हैं। गढ़वाल से कुमाऊं तक,और पहाड़ की तलहटी से समुद्रतल से 3400 मीटर की ऊंचाई तक जंगल में आग लगने की सूचना लगातार आने लगी जो अब भी जारी है।उत्तराखंड सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दी गई जानकारी के मुताबिक कम से कम 398 आग की घटनाओं से हजार हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र पूरी तरह से जल चुके हैं, हालांकि मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक आग का विस्तार काफी व्यापक है। गढ़वाल के मुकाबले कुमाऊं के वन-क्षेत्र पर आग का कहर ज्यादा बरपा है। स्थिति बेकाबू होने की स्थिति में भारतीय एयर फोर्स के ‘एम 17 वी  5’हेलीकॉप्टर भी भांबी की मदद से जंगली आग रोकने के प्रयास में लगे हैं। भांबी हेलीकॉप्टर से आग बुझाने के लिए इस्तेमाल होने वाला पात्र है जिससे एक बार में काफी मात्रा में पानी उड़ेला जा सकता है।

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देश-भर के आंकड़े देखे तो मौजूदा आग के मौसम में आग लगने की और आग की चेतावनी की संख्या के लिहाज से उत्तराखंड बाकी सारे राज्यों के मुकाबले शीर्ष पर बना हुआ है। भारत में जलवायु के हिसाब से आग लगने का मौसम बरसात के बाद से बरसात के आने के पहले तक का होता है यानी नवम्बर से जून तक, जिसमें सबसे जयादा प्रभावी महीना मार्च से मई का होता है। जंगल में आग लगना एक प्राकृतिक घटना है,पारिस्थितिकी तंत्र की एक जरुरी प्रक्रिया है बशर्ते यह मानव जनित कारणों से ना हो। आग से मिट्टी में पोषण का एक नया दौर शुरू होता है वहीं ऊंचे पेड़ों के वितान या क्राउन के जल जाने से सूर्य की रोशनी सीधे जमीन तक पहुंचने लगती है, जिससे नए पेड़-पौधे के पनपने को गति मिलती है। पर जंगल में आग का प्रसार और उसकी आवृति पर अनेक स्तर के प्राकृतिक नियंत्रण होते हैं, जो हर किस्म के जंगल को अलग-अलग तरीके से नियंत्रित करता है।

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जंगल में आग के लिए प्राकृतिक रूप से तीन परिस्थितियां जरुरी है, जिसे ‘फायर ट्रायंगल’ कहते हैं, जिसमें ज्वलनशील पदार्थ या जरुरी इंधन ,उच्च तापमान यानी गर्मी और ऑक्सीजन की उपलब्धता। सामान्य रूप से जाड़े के बाद ही पेड़ की पत्तियाँ झड़ जाती हैं, जो मार्च अप्रैल आते-आते सूखकर आग के लिए जरुरी ईंधन मुहैया कराती हैं।इसी समय तापमान भी चरम पर होता है, जिससे हवा और सूखे जंगल में आर्द्रता भी न्यून रहती है और खुला जंगल निर्बाध ऑक्सीजन मुहैया कराता है। बस पेड़ की डालियों के आपसी रगड़ या फिर बिजली चमकने से आग धू-धू कर जल उठता है। जंगल की आग के लिए ये तीनों विशेष परिस्थितियां जलवायु परिवर्तन के दौर में सामान्य रूप से उपलब्ध होती है और नतीजा हाल के कुछ सालो में वैश्विक स्तर पर कनाडा से ऑस्ट्रेलिया,अमेजन से इन्डोनेशिया तक के जंगल बड़े पैमाने पर जल उठे हैं। भारत में भी जंगली आग की घटनाओं में आयी बेतहाशा वृद्धि भी पहली नजर में ही जलवायु परिवर्तन का असर ही दीखता है।पर एक ताजा अध्ययन के अनुसार मौजूदा दौर में जंगल में आग लगने की घटनायें 90% तक मानव जनित होती हैं और उत्तराखंड सहित भारत में कमोबेश यही स्थिति है।

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मानव जनित कारणों में कृषि विस्तार के लिए जंगल साफ करना या फिर फसल की कटाई के बाद खेत की तैयारी के लिए आग लगाना जो खेतों से जंगल तक फ़ैल जाता है या फिर बिजली के तारों में रगड़ से उपजी आग की चिंगारी प्रमुख है। उत्तराखंड में गेहूं की कटाई के बाद अगली फसल के लिए खेत की तैयारी के लिए पराली में लगाई आग संभवतः जंगल तक बड़े पैमाने पर फ़ैल चुकी है। हालाँकि अराजक तत्वों द्वारा जानबूझ कर आग लगाने की भी कई घटनायें सामने आयी है। उत्तराखंड जंगल के मामले में भारत के समृद्धतम राज्यों में से एक है जहां 44% से ज्यादा क्षेत्र में जंगल है, जिसमें मुख्य रूप से चीड़ – पाईन, साल और बाँज या ओक के अलावा मिश्रित वन हैं।

फॉरेस्ट सर्वे के 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक एक-तिहाई से अधिक जंगल में आग लगने के अनुकूल है, जिसका अधिकांश क्षेत्र चीड़ के वन हैं। चीड़ का पेड़ उत्तराखंड के अन्य स्थानीय पेड़ों के मुकाबले रेसिन की अधिक मात्रा के कारण ज्यादा ज्वलनशील होता है। जंगल में लगने वाली आग की बढती घटनाओं की पड़ताल करे तो पाते हैं कि दीर्घकालिक स्तर पर ओक या बांज के मुकाबले चीड़ के जंगल का बढ़ता दायरा एक प्रमुख कारण दिखाई पड़ता है। दीर्घकालिक स्तर पर ओक या बांज के मुकाबले चीड़ का बढ़ता दायरा आग लगने और विस्तार के लिए अनुकूल परिस्थितियां मुहैया कर रही है। सर्दी के बाद ही चीड़ के पेड़ से सारे पत्ते, जिसे स्थानीय नाम पिरूल हैं,अलग होकर मार्च आते-आते पूरी तरह सूखकर जंगल की सतह पर एक मोटी परत बना देते हैं,और यही रेसिन से भरे पिरूल आग की चिंगारी मात्र से पेट्रोल जैसे जल उठते हैं।

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पिछले कुछ दशक में चीड़ वन क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है जो बढ़ कर कुल वन क्षेत्र का 28 प्रतिशत तक हो चुका है। दूसरी तरफ बांज, जो स्थानीय वातावरण के अनुकूल है, जो लम्बी जड़ों से मिट्टी को मजबूती देता है, भू-जल रिचार्ज को बढ़ता है, साथ ही साथ स्थानीय समुदाय के लिए चारा, कम्पोस्ट खाद, जलावन और फर्नीचर की,लकड़ी तक मुहैया करता है तथा समृद्ध जैव-विविधता का पोषक है, का दायरा सिकुड़ रहा है।बांज स्थानीय समुदाय के लिए काफी उपयोगी पेड़ है, इसके उलट कम गहरी जड़ों वाला चीड़ ना सिर्फ ढलान वाली मिट्टी को बांध के रख नहीं पाता है बल्कि स्थानीय लोगों के बीच इमारती लकड़ी और रेसिन के अलावा कोई और सरोकार भी बना नहीं पाता।मानवीय लापरवाही, आग लगने के अनुकूल वन की संरचना, बांज के मुकाबले चीड़ वन का बढ़ता दायरा, जलवायु परिवर्तन से उपजी सूखे की स्थितियों के अलावा वनों का प्रबंधन और स्थानीय लोगों की सहभागिता का स्तर भी उत्तराखंड के जंगल में फैले भीषण आग के लिए जिम्मेदार है।

उत्तराखंड में दो किस्म के वन है, लगभग 80 प्रतिशत यानी 26.6 लाख हेक्टेयर रिजर्व वन, जिसका प्रबंधन वन विभाग का सरकारी महकमा संभालता है वहीं लगभग 7 लाख हेक्टेयर वन पंचायत वन है, जिसका प्रबंधन लगभग 120000 वन पंचायत की स्वायतता के माध्यम से स्थानीय समुदाय करता है। चूंकि उत्तराखंड में जंगल की आग कोई नयी घटना नहीं है, लगभग 36 प्रतिशत वन आग प्रभावित है, इस लिहाज से स्थानीय समुदाय ना सिर्फ पंचायत वन की देखरेख करते हैं बल्कि आग से बचाव के लिए उचित तैयारी भी करते हैं। इस कड़ी में चीड़ के सूखे पत्तों यानी
पिरुल को इकट्ठा करना और आग लगने की स्थिति में आग फैले नहीं इसके लिए फायर लाइन बनाना प्रमुख है।इस तरह पंचायत वन की सालों भर उचित निगरानी होती रहती है और आग लगने की स्थिति में स्थानीय समुदाय तुरंत सक्रिय हो जाता है। वहीं वन विभाग के सरकारी जंगल में स्थानीय समुदाय की सक्रियता काफी हद तक प्रतिबंधित रहती है, जिससे उनका आग के दृष्टिकोण से ना तो उनका प्रबंधन हो पाता है, और नाही निगरानी और तो और ना ही आग लगने पर त्वरित करवाई हो पाती है।

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हाल के कुछ वर्षो में वन पंचायत के स्वायतता में भी सरकारी दखल बढ़ा है, जो स्थानीय समुदाय और वनों के बीच के सहजीवता को प्रभावित कर रहा है। हालांकि पिछले कुछ सालों में आग से बचाव में स्थानीय समुदाय को सक्रिय करने और आग पर काबू पाने के उद्देश्य से स्थानीय सरकार ने 2017 में तीन रुपया प्रति किलो की दर से पिरूल इकट्ठा करने की योजना शुरू की, ताकि आग के फैलाव के लिए मुख्य ज्वलनशील चीड़ के पत्तों को हटाकर आग पर काबू किया जाये, साथ ही साथ आर्थिक उपादान के माध्यम से जंगल के लिए एक सतत निगरानी तंत्र भी विकसित किया जा सके।अभी के बेकाबू होती आग की स्थिति के मद्देनजर मुख्यमंत्री ने ‘पिरूल लाओ- पैसे पाओ’ योजना के तहत् प्रति किलो अनुदान राशि को 3 रुपया से 50 रुपया तक बढ़ा दिया।एक अनुमान के मुताबिक राज्य में 25 लाख मीट्रिक टन पिरूल इकट्ठा किया जा सकता है, जिसको प्रति इकाई ईंधन क्षमता (कैलोरिफिक वैल्यू) कोयले से भी ज्यादा है और इस प्रकार 200 मेगावाट उर्जा उत्पादन का स्रोत बन सकता है। साथ ही साथ चारकोल और पेपर बनाने में भी इस्तेमाल हो सकता है।

सालों पहले इस योजना की शुरुवात के साथ पिरूल आधारित कई छोटे पावर प्लांट वजूद में आये पर पिरूल इकठ्ठा करने में उचित आर्थिक सहयोग ना मिलने के कारण पिरूल की कमी के चलते कुछ खास प्रगति नहीं हो पाई। सरकार की वर्तमान योजना से पिरूल आधारित उर्जा उत्पादन के आसार बन पाए, साथ ही साथ जंगल के आग पर स्थानीय समुदाय की मदद से कुछ कमी भी आये।पिछले कुछ दशक में पहाड़ की पारिस्थितिकी में आमूलचूल परिवर्तन आये हैं, ना सिर्फ मानव गतिविधियाँ बढ़ी है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के इतर जंगल की संरचना में भी आमूलचूल परिवर्तन आया है। इमारती और रेल ट्रैक के लिए शुरू हुआ चीड़ के प्लांटेशन का सिलसिला स्थानीय बाँज के मिश्रित जंगल पर भरी पड़ने लगा है।चीड़ चूंकि पायनियर पेड़ है, जो भूस्खलन से प्रभावित स्थानों पर बड़ी तेजी से पनप जाता है, वही बांज के बीज से पेड़ बनने का सफर बहुत ही संवेदी और लम्बी प्रक्रिया है, जिसके कारण चीड़ के मुकाबले गहरे जड़ वाले बांज का दायरा घट रहा है।

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इससे पहाड़ों पर पानी टिक नहीं पा रहा और बरसात के बाद से ही सूखे की स्थिति बन जा रही,है, छोटे-छोटे झरने जिनमें हाल तक सालों भर पानी रिसता रहता था अब सूख जा रहे हैं।सूखे और आर्द्रता विहीन गर्मी, जलवायु परिवर्तन से पहाड़ों का बढ़ता तापमान और चीड़ के पत्तों से पहाड़ के जंगल धू-धू कर जल रहे हैं। पिछलेहफ्ते में थोड़ी बारिश से आग में कुछ कमी जरूर आयी पर फिर से आग उसी विकराल रूप में आ चुका है। तजा स्थिति यह है कि आग पूरब में नेपाल और पश्चिम में हिमाचल सहित जम्मू कश्मीर तक जा पहुंचा है।उत्तराखंड सहित समूचे पश्चिमी हिमालय के जंगलों में लगी आग हो या भूस्खलन का बढ़ता दायरा हो या पानी की किल्लत, या सूखते झरने हो या अन्य कोई पहाड़ी आपदा हो, ये सब पहाड़ को मैदान के नियमों से नियंत्रित करने की हमारी जिद का नतीजा है। ऐसे में जरुरत है समग्रता से पहाड़ की पारिस्थितिकी को समझ कर, स्थानीय परम्परा और ज्ञान को शामिल कर मानव गतिविधियों को नियंत्रित कर पहाड़ के लिए ठोस नीतिगत
संरक्षण की, ताकि पहाड़ का विकास पहाड़ के रूप में हो सके।पहाड़ की बेटियों में हुनर कूट कूट कर भरा है। जो पिरूल हमारे जंगलो के लिए अभिशाप बना रहता है, कुछ हुनरमंद लोगों ने उसे अफनी मेहनत से वरदान में बदल दिया है।

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अल्मोड़ा के सल्ट ब्लॉक में मानिला गांव की गीता पंत भी पिरूल को वरदान बनाने में जुटी हैं। गीता पिरूल से बालों के जूड़े के क्लिप, तरह तरह की टोकरियां, फ्लावर पॉट, पेन स्टैंड, कान के झुमके, टी कॉस्टर, वॉल हैंगिंग जैसे दर्जनों डेकोरेटिव आइटम बना रही हैं। यही नहीं रक्षाबंधन के मौके पर गीता पिरूल से शानदार राखियां बनाती हैं जिनकी विदेशों में भी डिमांड रहती है। सल्ट ब्लाक निवासी गीता पंत लाल बहादुर शास्त्री संस्थान हल्दूचौड़ से बीएड कर चुकी हैं। लेकिन खास बात ये है कि उन्होंने शहरों का रुख करने के बजाए गावों में रहकर ही स्वरोजगार की ओर कदम बढ़ाए। गीता बताती हैं कि   पिरूल जैसे वेस्ट मटीरियल का सदुपयोग कैसे हो इसके कई वीडियो देखे जिससे उनका इंटरेस्ट बढ़ता गया। गीता ने अल्मोड़ा की ही मंजू आर शाह से संपर्क किया जो पिरूल के क्षेत्र में शानदार काम कर रही हैं। उनसे शुरुआती ट्रेनिंग लेने के बाद गीता खुद ही इस दिशा में आगे बढ़ने लगी और अपनी कला को निखारने लगी।गीता द्वारा पिरूल से तैयार किचन और ड्रॉइंग रूम के सजावटी आइटम की जबरदस्त डिमांड बढ़ रही है।

गीता कहती हैं, पिछले साल उन्हें अमेरिका से पिरूल की राखियों की डिमांड आई। जिससे उन्होंने अच्छी खासी आमदनी की है। इसके अलावा जम्मू कश्मीर के साथ ही गाजियाबाद, दिल्ली, देहरादून, नोएडा, फरीदाबाद से भी पिरूल की राखियों की डिमांड आती रहती है।अब वो हूप आर्ट भी तैयार कर रही हैं। इस आर्ट को लकड़ी पर धागों के साथ तैयार किया जाता है। गीता का कहना है कि पिरूल जैसे वेस्ट मटीरियल को बेस्ट बनाने की इस मुहिम में और भी लड़कियों को साथ जोड़ना चाहती हैं। जिससे कि गांव में रहने वाली लड़कियां आत्मनिर्भर हो सकें।प्रसिद्ध पिरूल हस्तशिल्पकार मंजू आर साह ने ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षण दिया। मंजू पिरूल हस्तशिल्प कला का एक जाना-माना नाम है जिन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इस कार्यशाला में मंजू ने ग्रामीण महिलाओं के साथ मिलकर उन्हें इस कला की बारीकियों से अवगत करवाया और उन्हें इसके भविष्य के विषय में बताया।

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मंजू के अनुसार इन उत्पादों की जितनी मांग है, उत्तराखण्ड उसकी पूर्ति नहीं कर पाता। इस कार्य के लिए सामूहिक  प्रयास बहुत जरूरी है ताकि बड़ी संख्या में ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षण देकर इस तरह के उत्पाद अधिक मात्रा में बनाए जा सकें और उन्हें देश-विदेश के बाजारों तक पहुंचाया जा सके।पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों की जीवन शैली में कई चुनौतियां हैं जिनकी वजह से यहां की उत्पादकता बहुत सीमित हो जाती है। शाम होते ही यहां घना अंधकार पसर जाता है और लोग अपने- अपने घरों में लौट जाते हैं। रात में करने के लिए कुछ भी नहीं होता। शायद यही वजह है कि इन प्रदेशों में लोग शाम होते ही खा- पीकर जल्दी सो जाते हैं।महिलाओं के इस खाली समय का सदुपयोग करने और इस समय को उत्पादक बनाने के लिए ‘हमारा गांव-घर फाउंडेशन’ की यह कार्यशाला अब रंग ला रही है। दिन के साथ ही अब रात को भी गांव की महिलाएं पिरूल से नए-नए प्रयोग कर रही हैं। फाउंडेशन इन महिलाओं के उत्पाद को बाजार उपलब्ध करवाएगा जिससे गांव की आर्थिकी में भी सुधार
होगा। पुस्तकालय गांव मणिगुह में कुछ पुराने शिल्पकार भी हैं जो पीढ़ियों से रिंगाल के उत्पाद बनाते आए हैं लेकिन रिंगाल की अनुपलब्धता और प्लास्टिक के बर्तनों के प्रचार की वजह से उनका काम धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है।

पिरूल के साथ ऐसी समस्या नहीं है। पिरूल हर गांव में बहुतायत से उपलब्ध है और इसे जमा करना भी आसान है।कुमाऊं के अलावा गढ़वाल क्षेत्र में भी पिरूल हस्तशिल्प की बहुत संभावनाएं हैं। चार धाम यात्रा की वजह से इस क्षेत्र में देश-विदेश के सैलानी और तीर्थयात्री बड़ी संख्यां में आते हैं।यहां अगर इस हस्तशिल्प को एक संगठित उद्योग की तरह प्रचारित किया जाए तो यह क्षेत्र की महिलाओं और हस्तशिल्पकारों के लिए एक अच्छा वैकल्पिक रोजगार बन सकता है। कुमाऊं क्षेत्र की बात करें तो यहां पिरूल हस्तशिल्प अब एक रोजगार का रूप ले चुका है और कई गांव इस कला के माध्यम से अच्छी कमाई कर रहे हैं। यहां की महिलाएं छोटे-छोटे समूह बनाकर पिरूल से कई प्रकार की वस्तुएं बनाती हैं जो अच्छे मूल्य पर बिक भी जाती हैं। गढ़वाल क्षेत्र में भी ऐसे शिल्पकारों द्वारा ऐसी कलाओं के नियमित प्रशिक्षण की आवश्यकता है ताकि यहां के पर्वतीय गांव में आत्मनिर्भर हो सकें।

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एक आंकड़े के अनुसार प्रति वर्ष लगभग पचास लाख टन पिरूल नीचे गिरता है और पर्वतीय जंगलों में आग लगने का यह एक मुख्य कारण है। चीड़ के वनों को उत्तराखण्ड की जैव विविधता के लिए अभिशाप समझा जाने लगा है जबकि चीड़ के पेड़ से अनेकों उत्पाद बनाए जा सकते हैं और उन्हें दुनिया भर में बेचा जा सकता है। चीड़ के हरे पत्तों से ग्रीन-टी बनाई जाती है जो स्वांस के रोगों के लिए बड़ी कारगर होती है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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