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सच्चे अर्थों में समाज सुधारक थे संत कवि कबीर दास

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सच्चे अर्थों में समाज सुधारक थे संत कवि कबीर दास

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

संत कबीर दास मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के अग्रणी कवि हैं। कबीर दास जी को हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदाय के लोग बहुत पसंद करते हैं। उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता की मिसाल पेश की हैं। संत कबीर दास जी का जन्म सन 1398 ईसवी में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन काशी में हुआ था। उनके पिता के नाम नीरू और माता का नाम नीमा था। आज उनकी जयंती है। कबीरदास जी न केवल एक महान संत बल्कि एक बेजोड़ कवि और समाज सुधारक थे। माना जाता है कि उनका जन्म ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन 1398 में काशी में हुआ था। वे हिन्दू थे या मुसलमान, इस पर विवाद है, लेकिन उनकी शिक्षाओं को दोनों धर्मों के लोग मानते हैं। हालांकि कबीरदास जी निरक्षर थे, लेकिन उन्हें विभिन्न धर्मों और दर्शनों का ज्ञान था। उनके उपदेश और बानी ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में संग्रहीत हैं। उनकी रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों, जातिवाद, धार्मिक कट्टरपंथ और पाखंड की कड़ी आलोचना की गई है। वे आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का महान स्रोत हैं।

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कबीरदास जी ने अंधविश्वास पर सबसे अधिक प्रहार किया था। उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के रीति-रिवाजों पर सवाल उठाए हैं। ‘कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय’ और ‘पाहन पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजू पहार, ऐसे तो चाकी भलै, कूट पीस खाय संसार’ दोहों के माध्यम से उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम दोनों धर्मों में व्याप्त अन्धविश्वास पर तीखी चोट की है। कबीरदास जी ने केवल ‘ढ़ाई आखर’ यानी ढाई अक्षर के संदेश में पूरी दुनिया को महान संदेश दिया है। उनके ढाई आखर में दो बातों पर सबसे अधिक जोर दिया गया है, वे हैं- सत्य और प्रेम। कबीरदासजी की सत्य और प्रेम से जुड़ी ये दो बातें हमेशा गांठ बांधकर याद रखनी चाहिए। कबीरदास जी ने सदैव सत्य बोलने और सत्य के मार्ग पर चलने पर बल दिया। उनका कहना था कि सत्य ही जीवन का आधार है और जो सत्य बोलता है वो सदैव सुखी रहता है।

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कबीरदास जी सभी जीवों के प्रति प्रेम और करुणा रखने की शिक्षा देते थे। उनका मानना था कि सभी जीव समान हैं और हमें किसी के प्रति द्वेष
नहीं रखना चाहिए। उन्होंने कहा है: “प्रेम प्रीत सब जग में, मोहि माया मोह न आवे।ये दो बातें कबीरदासजी की शिक्षाओं का सार हैं। इन बातों को जीवन में उतारकर कोई भी व्यक्ति एक सच्चा और सुखी जीवन जी सकते हैं। कबीरदास जी भक्ति और आत्मज्ञान के प्रबल समर्थक थे। उनका मानना था कि भक्ति के माध्यम से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है भारतीय संत परम्परा के महान हस्ताक्षर, समाज-सुधारक हैं। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज और धर्म का स्वरूप रूढ़ियों एवं आडम्बरों में जकड़ा एवं अधंकारमय था। एक तरफ मुसलमान शासकों की धर्मांधता से जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी और दूसरी तरफ हिंदूओं के कर्मकांडों, विधानों एवं पाखंडों से धर्म-बल का हृास हो रहा था। “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब” इसका मतलब है कि हम सब के पास समय बहुत ही कम है।इसलिए जो काम हम कल करने वाले थे उसे आज करो और जो काम आज करने वाले हैं उसे अभी करो क्योंकि पल भर में प्रलय आ जाएगा तो आप अपना काम कब करोगे।

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इस दोहे के जरिए हमें समय के महत्व के बारे में बताया गया है। “ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये, औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए” इस दोहे से कबीर दास जी हमें ये समझाते हैं कि हमेशा ऐसी भाषा बोलने चाहिए जो सामने वाले को सुनने से अच्छा लगे और उन्हें सुख
की अनुभूति हो और साथ ही खुद को भी आनंद का अनुभव हो। बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, जो मन देखा अपना, मुझ से बुरा न कोय” कबीर दास जी कहते हैं कि वे सारा जीवन दूसरों की बुराइयां देखने में लगे रहे थे। लेकिन जब उन्होंने खुद को देखा तो उन्हें लगा कि उनसे बुरा इंसान कोई भी नहीं है। वे सबसे स्वार्थी और बुरे हैं। ऐसे ही लोग भी दूसरे के अंदर बुराइयां देखते हैं परंतु खुद के अंदर कभी जाकर नहीं देखते अगर वह खुद के अंदर झांक कर देखे तो उन्हें भी पता चलेगा कि उनसे बुरा इंसान कोई भी नहीं हैऐसे समय में कबीर एक रोशनी बनकर समाज को दिशा दी। वे अध्यात्म की सुदृढ़ परम्परा के संवाहक थे।

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कबीर ने सगुण-साकार भक्ति पर जोर दिया है, जिसमें निर्गुण निहित है। हर जाति, वर्ग, क्षेत्र और सम्प्रदाय का सामान्य से सामान्य व्यक्ति हो
या कोई विशिष्ट व्यक्ति हो -सभी में विशिष्ट गुण खोज लेने की दृष्टि उनमें थी। गुणों के आधार से, विश्वास और प्रेम के आधार से व्यक्तियों में छिपे सद्गुणों को वे पुष्प में से मधु की भाँति उजागर करने में सक्षम थे। परस्पर एक-दूसरे के गुणों को देखते हुए, खोजते हुए उनको बढ़ाते चले जाना कबीर के विश्व मानव या वसुधैव कुटुम्बकम् के दर्शन का द्योतक है। उन्होंने मन, चेतना, दंड, भय, सुख और मुक्ति जैसे सूक्ष्म विषयों पर भी किसी गंभीर मनोवैज्ञानिक की तरह विचार किया था और व्यक्ति को अध्यात्म की एकाकी यात्रा का मार्ग सुझाया था। कबीर ने लोगों को एक नई राह दिखाई। घर-गृहस्थी में रहकर और गृहस्थ जीवन जीते हुए भी शील-सदाचार और पवित्रता का जीवन जिया जा सकता है तथा आध्यात्मिक ऊंचाइयों को प्राप्त किया जा सकता है। कबीर ने मानव चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया।

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श्रीकृष्ण, श्रीराम, महावीर, बुद्ध, जीसस के साथ-ही-साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतों-आदि शंकराचार्य, नानक, रैदास, मीरा आदि की परंपरा में कबीर ने भी धर्म की त्रासदी एवं उसकी चुनौतियों को समाहित करने का अनूठा कार्य किया। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके दोहों-विचारों से अस्पर्शित रहा हो। अपनी कथनी और करनी से मृतप्रायः मानव जाति के लिए कबीर ने संजीवनी का कार्य किया। इतिहास गवाह है, इंसान को ठोंक-पीट कर इंसान बनाने की घटना कबीर के काल में, कबीर के ही हाथों हुई। शायद तभी कबीर कवि मात्र ना होकर युगपुरुष और युगस्रष्टा कहलाए। ‘मसि -कागद’ छुए बगैर ही वह सब कह गए जो श्रीकृष्ण ने कहा, नानक ने कहा, ईसा मसीह ने कहा और मुहम्मद साहब ने कहा।

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आश्चर्य की बात, अपने साक्ष्यों के प्रसार हेतु कबीर सारी उम्र किसी शास्त्र या पुराण के मोहताज नहीं रहे। न तो किसी शास्त्र विशेष पर उनका भरोसा रहा और ना ही उन्होंने जीवन भर स्वयं को किसी शास्त्र में बाँधा। कबीर ने समाज की दुखती रग को पहचान लिया था। वे जान गए थे कि हमारे सारे धर्म और मूल्य पुराने हो गए हैं। नई समस्याएँ नए समाधान चाहती हैं। नए प्रश्न, नए उत्तर चाहते हैं। नए उत्तर, पुरानेपन से छुटकारा पाकर ही मिलेंगे।कबीर ने धरती और धरती के लोगों की धड़कन को सुना।धड़कनों के अर्थ और भाव को समझा। इन धड़कनों को वे जितना आत्मसात करते चले, उतना ही उनका जीवन ज्ञान एवं संतता का ग्रंथ बनता गया। यह जीवन ग्रंथ शब्दों और अक्षरों का जमावड़ा मात्र
नहीं, बल्कि इसमें उन सच्चाइयों एवं जीवन के नए अर्थों-आयामों का समावेश है, जो जीवन को शांत,सुखी एवं उन्नत बनाने के साथ-साथ जीवन को सार्थकता प्रदान करते हैं। उनके अनुभवों और विचारों ने एक नई दृष्टि प्रदान की।

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इस नई दृष्टि को एक नए मनुष्य का, एक नए जगत का, एक नए युग का सूत्रपात कहा जा सकता है। कबीर भारत की उज्ज्वल गौरवमयी संत परंपरा में सर्वाधिक समर्पित एवं विनम्र संत हैं। वे गुरुओं के गुरु थे, उनका फकडपन और पुरुषार्थ, विनय और विवेक, साधना और संतता, समन्वय और सहअस्तित्व की विलक्षण विशेषताएं युग-युगों तक मानवता को प्रेरित करती रहेगी। (इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। पाठकों से अनुरोध है कि लेख को अंतिम सत्य अथवा दावा न मानें एवं अपने विवेक का उपयोग करें।)

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