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उत्तराखंड के लिए काले अध्याय के रूप में एक धब्बा, दोषियों को सजा कब?

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उत्तराखंड के लिए काले अध्याय के रूप में एक धब्बा, दोषियों को सजा कब?

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

आज दो, अभी दो, उत्तराखंड राज्य दो’ जैसे गगनभेदी नारे लगाते हुए आगे बढ़ रहे सभी आंदोलनकारियों को पुलिस ने मुजफ्फरनगर के नारसन रामपुर तिराहे पर रोक दिया। आंदोलनकारियों को बसों से बाहर निकालकर उन पर अंधाधुंध लाठियाँ बरसाईं। मुजफ्फरनगर में हुए उस दिल दहला देने वाले कांड को उत्तराखंड के लोग कभी नहीं भूला पाएंगे। 1994 के इस आंदोलन से अलग राज्य की माँग को और हवा मिली। आंदोलन ने जनान्दोलन का रूप ले लिया और अन्ततः साल 2000 में उत्तराखंड देश का सत्ताइसवाँ राज्य बना। हर साल इस गोलीकांड की बरसी पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री समेत तमाम नेतागण शहीद स्मारक पर श्रद्धांजलि के पुष्प चढ़ाने आते हैं। पूरा देश आज जहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंति को मना रहा है, वहीं उत्तराखंड राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंति मनाने के साथ आज उन शहीदों को याद कर रहा है जिन्होने उत्तराखंड राज्य दिलाने की मांग को लेकर अपनी शहादत दी थी।

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2 अक्टूबर का दिन उत्तराखंड के अध्याय में काले दिवस के रूप में भी याद किया जाता है, क्योंकि इसी दिन मुजफ्फरनगर की वह घटना घटी थी, जो अभी आंदोलनकारियों को आक्रोशित कर देती है। उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर किए गए अहिंसात्मक आंदोलन का लोहा जहां देश और दुनिया भी मानती है, लेकिन वहीं उत्तराखंड वासियों द्वारा राज्य की लड़ाई की मांग को लेकर फिर भी कई आंदोलनकारियों ने अपने प्राणों को भी न्यौछावार कर दिया।

उत्तराखंड की मांग को लेकर कई आंदोलनकारी शहीद हुए लेकिन उत्तराखंड की मांग को लेकर मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा कांड को आज भी उत्तराखंड के लिए काले अध्याय के रूप में एक धब्बा सा माना जाता है। क्योंकि उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर जब आंदोलनकारी 1 अक्टूबर 1994 को दिल्ली कूच क बताया जाता है कि 7 से 9 आंदोलनकारी शहीद हो गए तो 4 आंदोलनकारी शहीद अभी भी लापता है, कई आंदोलनकारी महिलाओं के साथ बर्रबरता और अत्याचार भी किया,लेकिन दुर्भाग्य ये है कि 26 साल बाद भी आज उन निर्दोष आंदोलनकारियों पर गोली चलाने वाले पुलिस कर्मियों और महिला के साथ अत्याचार करने वालों को काई सजा नहीं मिल पाई। इसी को लेकर आंदोलनकारी मुजफफर नगर के रामपुर तिराह कांड की वर्षी को धिकार दिवस के रूप में मनाते हैं।

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राज्य आंदोलनकारियों को आक्रोश इस बात को लेकर साफ देखा जा सकता है कि 29 सालों के बाद भी इस घटना के दोषियों को सजा नहीं मिल पाई।वहीं राज्य आंदोलनकारी का कहना है कि 23वर्षों में जितनी भी सरकारें उत्तराखंड में रहीं उन्होने अपनी जिम्मेदारी दोषियों को सजा दिलाने की नहीं समझी, इसलिए सरकार कोर्ट में पक्षकार नहीं बनी जिससे समझा जा सकता है कि दोषियों को बचाने की सरकारों ने सोची
लेकिन उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में इसको लेकर याचिका डाली है और उन्हें उम्मीद है कि उत्तराखंड को उनकी याचिका से न्याय मिलेगा और दोषियों को सजा मिलेगी।

उत्तराखंड को बने हुए बेशक 23 वर्ष हो गए हों लेकिन इन 23 सालों में किसी भी सरकार के द्धारा मुजफ्फर नगर रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को सजा दिलाने के लिए ठोस पैरवी न करने को लेेकर सभी सरकारों की मंसा पर सवाल खड़े करते हैं। ऐसे में देखना ये होगा कि जो याचिका ईलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर की गई है और उसपर सुनवाई चल रही है उसे क्या मुजफ्फर नगर रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को सजा मिल पाएगी। सुरक्षाकर्मियों ने आंदोलनकारियों पर उस समय गोलीबारी की जब बसों का एक काफिला, उन्हें रैली के लिए दिल्ली ले जा रहा था, उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में रामपुर का तिराहा पहुंचा, जिसमें कई लोग मारे गए और कई गंभीर रूप से घायल हो गए और जीवन भर के लिए विकलांग हो गए।

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कथित तौर पर सुरक्षाकर्मियों द्वारा कई महिला कार्यकर्ताओं के साथ छेड़छाड़ की गई। उनमें से कई लोगों ने पास के खेतों और गांवों में शरण ली।”उस वर्ष (1994) उत्तराखंड के विभिन्न इलाकों और रामपुर का तिराहा में पुलिस गोलीबारी में कुल 42 राज्य आंदोलनकारी मारे गए और कई घायल हो गए,” कमला पंत, एक राज्य आंदोलनकारी, जो उस समूह का हिस्सा थीं, जो दिल्ली की यात्रा पर थे, ने कहा। एक अलग मार्ग से बसों का एक अलग बेड़ा।

रात के अंधेरे में बसों से जबरन उतारे जाने के बाद रामपुर का तिराहा पर पुलिस द्वारा सैकड़ों महिला कार्यकर्ताओं के साथ छेड़छाड़ की गई। “पंत ने कहा कि हत्या के लिए जिम्मेदार सभी अधिकारी और राजनेता घटना के 29 साल बाद भी बड़े पैमाने पर हैं। उन्होंने कहा, ” राज्य
आंदोलनकारियों पर पुलिस फायरिंग का आदेश देने वाले सभी अधिकारी यूपी सरकार में उच्च पदों पर बने हुए हैं।राजनेता ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने अपराधियों को सजा दिलाने के लिए रामपुर का तिराहा घटना की जांच करने वाली सीबीआई पर दबाव नहीं डाला। एक अन्य कार्यकर्ता ने कहा कि राजनेताओं ने शहीद कार्यकर्ताओं के बलिदान के कारण राज्य पर शासन किया। कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे के नारे हवा में तैर रहे थे। हर कोई इस आंदोलन में किसी न किसी रूप में जुड़ा था।

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दो अक्टूबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करना तय हुआ तो गढ़वाल और कुमाऊं से बसों में भरकर लोग दिल्ली के लिए रवाना हुए। तत्कालीन सरकार ने पुलिस के माध्यम से आंदोलनकारियों को मोहंड, नारसन बार्डर पर बेरिकेड लगाकर रोका, लेकिन काफी संख्या में आंदोलनकारियों के आंदोलन के आगे प्रशासन बेबस सा पड़ गया। राज्य आंदोलनकारियों का मुकाबला मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा पर पुलिस प्रशासन से हुआ। यहां फायरिंग, बेबसों पर कहर, लाठीचार्ज, पथराव हुए। बच्चे, जवान के साथ ही महिलाओं के साथ जिस तरह अभद्रता हुई, उस मंजर को राज्य आंदोलनकारी आज भी भुला नहीं पाए हैं।

आंदोलनकारियों के लिए आज भी दुख इस बात का है कि राज्य बनने का सपना जरूर पूरा हो गया, लेकिन राज्य गठन से पूर्व जो सपने देखे थे वह आज भी सपने ही बने हैं। कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे ,उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान बच्चे से लेकर बूढ़ों तक की जुबां पर यह नारा आम था। लेकिन, राज्य गठन के 23 वर्षों बाद प्रदेश में कोदा-झंगोरा मिलना किस कदर मुश्किल हो चला है।

( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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