पहाड़ के विधानसभा क्षेत्रों में मत प्रतिशत बढ़ाना चुनौती - Mukhyadhara

पहाड़ के विधानसभा क्षेत्रों में मत प्रतिशत बढ़ाना चुनौती

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पहाड़ के विधानसभा क्षेत्रों में मत प्रतिशत बढ़ाना चुनौती

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

पढ़ा-लिखा-शिक्षित पहाड़ी राज्य उत्तराखंड मतदान के मामले में क्यों पीछे छूट जाता है। मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए पिछले एक वर्ष से राज्यभर में जागरुकता कार्यक्रम चलाए जा रहे थे। नुक्कड़ नाटक, पोस्टर, स्कूली बच्चों की रैली, पतंगबाज़ी, मेंहदी जैसी प्रतियोगिताएं आयोजित कर लोगों में मतदान के प्रति जागरुकता लाने की कोशिश भी सफल नहीं हो पायी। राष्ट्रीय औसत साक्षरता दर (74.04%, वर्ष 2011 की जनगणना पर आधारित) से उत्तराखंड की साक्षरता दर (79.63%, वर्ष 2011 की जनगणना पर आधारित) कुछ बेहतर है। इनमें विशुद्ध पर्वतीय 20 विधानसभा क्षेत्रों में पिछले विधानसभा चुनाव में 60 प्रतिशत से भी कम मतदान हुआ। पांच विधानसभा क्षेत्र तो ऐसे हैं,जहां मतदान का प्रतिशत 50 या उससे भी कम रहा। जाहिर है ऐसे क्षेत्रों में मतदान का तय लक्ष्य हासिल करना किसी चुनौती से कम नहीं होगा। इसके बावजूद मतदान के मामले में राज्य की जनता उदासीन है।

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लोकसभा चुनाव के बहाने पौड़ी से लेकर अल्मोड़ा तक गांवों और शहरों में व्याप्त समस्याओं का भी खुलासा हुआ है। साथ ही सिस्टम की भी कलई खुली है कि दशकों तक उसने इन समस्याओं की परवाह नहीं की। यदि चिंता की होती तो लोग सड़कों पर उतरकर आंदोलन नहीं कर रहे होते। बेशक, उत्तराखंड में मतदान बढ़ाने और जनता को मतदान के लिए जागरूक करने के लाख दावे हो रहे हैं। कहीं नुक्कड़ सभाएं तो कहीं मैराथन के जरिए बुजुर्ग से युवाओं से ‘पहले मतदान फिर दूसरा काम’ की अपील की जा रही है मगर मतदान में उत्तराखंड हमेशा राष्ट्रीय मतदान प्रतिशत से फिसड्डी रहा है। यह जनता की मतदान के प्रति उदासीनता हो या विषम भौगोलिक परिस्थितियां मतदान प्रतिशत आशानुरूप नहीं बढ़ा। ऐसे में इस आम चुनाव मतदान बढ़ाना सरकारी तंत्र के सामने बड़ी चुनौती है।

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बीती 16 मार्च को लोकसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा होते ही आदर्श आचार संहिता लागू हो गई थी। इसी के साथ ही उत्तराखंड में भी लोकसभा चुनाव-2024 की तैयारियां जोरशोर से शुरू हो गई हैं। हर बार की तरह इस बार भी मतदान प्रतिशत बढ़ाने पर राज्य व जिला
निर्वाचन का पूर जोर है।स्वीप की टीमें मतदाता सेल्फी प्वाइंट, रैलियां, मैराथन, नुक्कड़ नाटक, कैफे वगैरह खोलकर जनता को मतदान के प्रति जागरू करने के बड़े-बड़े दावे कर रही हैं। नए-नए मतदाताओं को रिझाने के लिए भी तरह-तरह के आयोजन किए जा रहे हैं। वहीं, निकायों, प्रशासन ने भी मतदान बढ़ाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी हैं।बावजूद इसके जनता को पोलिंग बूथों पर पहुंचाने में सभी प्रयास नाकाम रहे हैं। अगर, निर्वाचन के आंकड़ों पर गौर करें तो लोकसभा चुनाव में उत्तराखंड का मतदान प्रदर्शन बहुत ही लचर रहा है।

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राज्य गठन के बाद पहली बार हुए लोकसभा चुनाव में आधी आबादी भी मतदान देने घर से नहीं निकली। तब 49.25 प्रतिशत मतदान हुआ जो कि राष्ट्रीय स्तर से 8.82 प्रतिशत कम था। इसी तरह वर्ष 2009 में 53.96 प्रतिशत मतदान हुआ जो राष्ट्रीय मतदान प्रतिशत से 4.25 प्रतिशत कम था। हां वर्ष 2014 में मतदान में एकाएक 8.19 प्रतिशत उछाल आया और कुल 62.15 प्रतिशत मतदान हुआ। फिर भी राष्ट्रीय से 4.15 प्रतिशत कम रहा। इसी तरह 2019 के चुनाव में इस मतदान में फिर कमी आई और .65 प्रतिशत की गिरावट के साथ 61.50 प्रतिशत ही मतदान हुआ जोकि राष्ट्रीय मतदान प्रतिशत से  5.90 प्रतिशत कम रहा है। इस बार राज्य निर्वाचन का मतदान प्रतिशत बढ़ाने पर पूरा जोर है। दिव्यांगों व बुजुर्गों को घर बैठे मतदान की सुविधा दी गई है। स्वीप व प्रशासन के प्रयास कितने सफल रहे हैं पहाड़ में कम मतदान की प्रमुख वजह मतदान केंद्रों की अधिक दूरी और सुगम राह नहीं होना है। इसके अलावा सड़क व परिवहन सुविधा का अभाव और मौसम भी बड़े कारक हैं।

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निर्वाचन आयोग हर बार चुनाव में इन समस्याओं के मद्देनजर मतदाताओं के लिए प्रबंध तो करता है, लेकिन अब तक इसका पर्याप्त असर नजर नहीं आया। दुर्गम क्षेत्रों में तो प्रत्याशी तक प्रचार के लिए नहीं पहुंच पाते। इस कारण भी मतदाताओं में चुनाव को लेकर उत्साह नहीं रहता। यह 19 अप्रैल को तय हो जाएगा। सड़क, पानी, बिजली, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्याओं के दशकों से समाधान न हो पाने से व्यथित जनता को लोकसभा चुनाव में ही अपनी बात सरकारी तंत्र तक पहुंचाने का सही अवसर प्रतीत हो रहा है। जन सरोकारों के मसलों के प्रति संवेदनशील जानकारों का मानना है कि बहिष्कार से नहीं, बल्कि मतदान से ही समाधान निकलेगा।

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प्रजातांत्रिक व्यवस्था में मताधिकार वह जनसहभागिता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से है, जो प्रतिनिधि चुनकर जाएं, वे जनता की समस्या का समाधान करें। जब इन समस्याओं के प्रति जनप्रतिनिधित्व नहीं हो पाता तो कहीं न कहीं दबाव की रणनीति के तहत जनता यह सोचने को मजबूर हो जाती है कि विरोध करने से जनप्रतिनिधि व सरकार संज्ञान लेगी। हालांकि, यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है, लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन समस्याओं के खिलाफ आवाज उठाना गलत भी नहीं है। निर्वाचन आयोग ने इस लोकसभा चुनाव में उत्तराखंड से 75 प्रतिशत मतदान का लक्ष्य रखा है। हालांकि, इसके लिए आयोग को राज्य के 23 विधानसभा क्षेत्रों में अच्छी-खासी मेहनत करनी पड़ेगी।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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