स्वच्छता जरूरी, उत्तराखंड में कूड़ा निस्तारण (garbage disposal) एक बहुत बड़ी समस्या ही नहीं, चुनौती भी - Mukhyadhara

स्वच्छता जरूरी, उत्तराखंड में कूड़ा निस्तारण (garbage disposal) एक बहुत बड़ी समस्या ही नहीं, चुनौती भी

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स्वच्छता जरूरी, उत्तराखंड में कूड़ा निस्तारण (garbage disposal) एक बहुत बड़ी समस्या ही नहीं, चुनौती भी

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

पहाड़ की समस्याओं पर जब भी चर्चा होती है तो उसमें रोजगार और पलायन मुख्य मुद्दा बनकर आता है। यह मुद्दा तो पहाड़ की केंद्रीय समस्याओं की धूरी तो है ही इसके साथ ही अन्य समस्याएं भी पहाड़ के जीवन को प्रभावित कर रही है। इनमें एक समस्या है कूड़े का निस्तारण। आप भी सोचेंगे भला रोजगार और पलायन जैसे प्रमुख मुद्दों को छोड़कर कहा एक कूड़े के निस्तारण के मुद्दे पर चर्चा हो रही है। यह विषय देखने में जितना छोटा व गैर जरूरी लगता है। दरअसल उतना है नहीं कूड़ा निस्तारण की समस्या पूरे विश्व की समस्या है। उत्तराखंड में कूड़ा निस्तारण एक बहुत बड़ी समस्या ही नहीं, चुनौती भी है। हालांकि, बीते कुछ वर्षो में इस समस्या को गंभीरता से लिया गया है, लेकिन जमीनी स्तर पर अब भी खास बदलाव नजर नहीं आ रहा।

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दरअसल उत्तराखंड हिमालयी राज्य होने के साथ ही मेला, कौथिग व उत्सवों का प्रदेश भी है। धार्मिक आयोजन तो यहां आए दिन होते रहते हैं, जिनमें लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है। चारधाम समेत अन्य तीर्थ स्थलों में भी यही स्थिति रहती है। सीमांत जनपद उत्तरकाशी में कूड़ा निस्तारण की समस्या सीमांत जनपद उत्तरकाशी में कूड़ा निस्तारण की समस्या विकट होती जा रही है. यहां तांबाखाणी सुरंग के पास करीब 6 हजार टन कूड़ा जमा है। जो अब गंगोत्री हाईवे तक फैलने लगा है। जिससे स्थानीय लोगों के साथ ही चारधाम में आने वाले यात्रियों को नाक और मुंह ढक कर आवाजाही करनी पड़ रही है। कूड़े की बदबू से लोगों का जीना मुहाल हो गया है। जिसके चलते आम लोगों को काफी परेशानी हो रही है। दरअसल, उत्तरकाशी नगर पालिका प्रशासन करीब 7 सालों से कूड़े के निस्तारण के लिए अभी तक भूमि का चयन नहीं कर पाया है. तिलोथ वार्ड में पालिका की ओर से मैदान का निर्माण कर कूड़ा निस्तारण के लिए सेग्रीगेशन मशीन कूड़ा छंटाई के लिए लगाई थी, लेकिन उसका भी स्थानीय लोग लगातार विरोध कर रहे हैं। इससे पहले तेखला में कूड़ा डंप किया जा रहा था। जहां से कूड़ा भागीरथी में गिर रहा था। यह मामला एनजीटी के अलावा हाईकोर्ट तक पहुंचा था। श्रवण मास की कांवड़ यात्रा में तो श्रद्धालुओं की संख्या चार करोड़ का आंकड़ा पार कर जाती है। इस बार तो यह आंकड़ा पांच करोड़ के आसपास पहुंच गया। जाहिर है इतनी भीड़ जुटेगी तो गंदगी भी होगी ही ठीक है कि हो-हल्ला मचने पर इस कूड़े के उठान के लिए जिम्मेदार एजेंसियां सक्रिय होने लगी हैं, लेकिन सवाल वहीं का वहीं है कि कांवड़ यात्र शुरू होने से पहले इस बारे में क्यों नहीं सोचा गया। जबकि, सरकार के साथ ही कांवड़ मेला प्रशासन को भी अंदाजा था कि श्रवण में करोड़ों की संख्या में कांवड़ यात्री हरिद्वार, ऋषिकेश, नीलकंठ आदि स्थानों पर पहुंचेंगे। क्यों नहीं कूड़ा एकत्र करने के लिए जगह-जगह व्यापक स्तर पर कूड़ेदान लगाए । पिछले अनेक वर्षों से नगरपालिका के पास जगह की अनुपलब्धता के कारण शहर का पूरा कूड़ा माँ गंगा के शीर्ष पर तम्बाखानी के पास डाला जा रहा है जिसके रिसाव से माँ गंगा का निर्मल जल भी प्रभावित हो रहा है।

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उन्होंने कहा कि हमारा जनपद मुख्यालय बाबा विश्वनाथ का परम धाम है, धार्मिक पर्यटन के साथ यह स्थान विश्व प्रसिद्ध माँ गंगा व माँ यमुना के धामों का मुख्य पड़ाव भी है। यहाँ हर दिन हजारों की संख्या मे देशी विदेशी तीर्थयात्री व पर्यटक आवागमन कर रहे है, जो इस कूड़े के ढ़ेर को देखकर हमारी इस काशी के प्रति नकारात्मक क्षबि लेकर जा रहे है। उन्होंने शासन प्रशासन व उत्तराखंड सरकार को इस अक्षम्य अपराध के लिए दोषी मानकर कहा कि कूड़े का ढ़ेर व माँ गंगा के प्रति सरकारी उदासीनता लोगों के जन जीवन पर भारी पड़ रही है जनपद मे व्याप्त जन समस्याओं के प्रति उनकी भी कोई जिम्मेदारी है।उन्होंने आरोप लगाया कि पिछले अनेकों बार विपक्ष के द्वारा धरना प्रदर्शन व ज्ञापन/ वार्ता के उपरांत भी सरकार/प्रशासन शहर के मुहाने पर पड़े इस कूड़े के निस्तारण के लिए कतई गंभीर नही है।

उन्होंने सरकार पर हमला बोलकर कहा कि सरकार व प्रशासन के ढीले रवैये से कूड़े का सफल निस्तारण नही हो पा रहा है डंपिंग जॉन पर भी संशय बना हुआ है। उत्तराखंड की बात करें तो एक करोड़ से ज्यादा आबादी वाले  राज्य मे प्रतिवर्ष एक सौ करोड़ किलो से ज्यादा कचरा पैदा होता है। इसमें यहां आने वाले पर्यटकों और तीर्थयात्रियों द्वारा फैलाया जा रहा कचरा शामिल नहीं है। तीर्थयात्री और पर्यटक राज्य में कितनी बड़ी संख्या में कचरा फैलाते हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2019 में हरिद्वार में 15 दिन के कांवड़ मेले में आये 4 करोड़ श्रद्धालुओं ने लगभग 1 करोड़ 60 लाख किलो कचरा फैला दिया था। उस वर्ष चारधाम यात्रा सीजन में यात्रा मार्ग पर फैली गंदगी भी समाचारों में सुर्खियां बनी।

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कोविड काल की बात न करें तो राज्य के अन्य पर्यटक स्थलों पर भी वर्षभर पर्यटकों की आवाजाही रहती है। ऑल वेदर रोड और कर्णप्रयाग तक रेल लाइन बन जाने के बाद राज्य में तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों की संख्या और बढे़गी। जाहिर है, इससे कचरे की मात्रा में भी बढ़ोत्तरी होगी। कचरे के मामले में राज्य के बड़े शहरों देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार, काशीपुर आदि की स्थिति चिंताजनक है। इन शहरों की जनसंख्या में पिछले एक दशक के दौरान 30 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। देहरादून की जनसंख्या में तो पिछले 20 वर्षों के दौरान दोगुना से भी ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई। लेकिन, जनसंख्या बढ़ोत्तरी की इस रफ्तार के बावजूद इन शहरों में कचरा निस्तारण की उचित व्यवस्था नहीं हो पाई है। आने वाला दौर तीव्र विकास का दौर है, विकास के साथ प्रति व्यक्ति आमदनी में वृद्धि का सीधा संबंध है और आमदनी बढ़ने के साथ ही कचरे में वृद्धि होना आम बात है। यानी कि आने वाला समय कचरा उत्पादन की दृष्टि से और अधिक खतरनाक साबित होने वाला है।कचरे के मामले में सबसे निराशाजनक बात यह है कि कचरा उत्पादन के लिए जिम्मेदार आम नागरिक कचरे से दूर भाग रहे हैं। नॉट इन माई बैक यार्ड, जिसे निम्बी सिंड्रोम कहा जाता है, तेजी से फैल रहा है। लोग कचरा तो पैदा करते हैं लेकिन चाहते हैं कि उनके आसपास कूड़े का निस्तारण न किया जाए।

देहरादून का ही उदाहरण लें तो कोविड से पहले शहर और आसपास के क्षेत्रों में कचरे को लेकर 4 से 5 जगहों पर आंदोलन चल रहे थे। सबसे बड़ा आंदोलन शहर से लगते शीशमबाड़ा मे चला। यहां करोड़ों रुपये की लागत से सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट लगाया, लेकिन कई कारणों से इस प्लॉट में कूड़े का सही तरीके से निस्तारण नहीं हो पा रहा है। प्लांट के आसपास रहने वाले लोग इस प्लांट के शुरू होने से पहले से ही लगातार आंदोलन कर रहे हैं और इस आंदोलन की तीव्रता लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा कारगी के पास बनाये गये कूड़ा ट्रांसफर सेंटर को लेकर भी निरंतर विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं। शहर के लगते कैंट बोर्ड क्षेत्रों, प्रेमनगर और गढ़ी कैंट में भी डंपिंग यार्ड के खिलाफ लोग आंदोलन कर रहे थे। राज्य के कई दूसरे शहरों, हरिद्वार, ऋषिकेश और उत्तरकाशी में भी कचरे के खिलाफ छिटपुट रूप से विरोध की आवाजें उठ रही हैं।हम अब तक सामान्य कचरे के प्रबंधन की ही ठीक से व्यवस्था नहीं कर पाये हैं, जबकि प्लास्टिक कचरा, ई-कचरा, बायो मेडिकल कचरा और कंस्ट्रक्शन कचरा भी लगातार भयावह स्थिति पैदा करने की स्थिति तक पहुंच रहा है।

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आने वाले दिनों में सामान्य कचरे के साथ इस तरह का कचरा भी हमारे लिए बड़ी समस्या बनने जा रहा है।सबसे बड़ा सवाल ये है कि इस समस्या का समाधान क्या है? आमतौर पर हम कचरा निस्तारण के लिए कुछ दिन अथवा कुछ सप्ताह का अभियान चलाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं, लेकिन वास्तव में यह अभियान कुछ घंटे, कुछ दिन अथवा कुछ सप्ताह का अभियान नहीं है। यह एक निरंतरता का अभियान है। एक ऐसा अभियान, जो कभी खत्म न हो। दूसरी बात यह कि सिर्फ सरकार के भरोसे रहकर कचरे की समस्या का समाधान संभव नहीं है। सरकार, समाज और बाजार के त्रिकोण को मिलकर इस समस्या से निपटने की जरूरत है। कचरे के निस्तारण के लिए हमारे देश में सशक्त कानून हैं, लेकिन बिना जन भागीदारी के इन कानूनों का कोई महत्व नहीं रह जाता।सरकार, समाज और बाजार का त्रिकोण मिलकर यदि प्रयास करे तो कचरे की समस्या से छुटकारा पाना असंभव नहीं है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)

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