नाजुक हिमालय (Himalaya) में निर्माण की चुनौती - Mukhyadhara

नाजुक हिमालय (Himalaya) में निर्माण की चुनौती

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नाजुक हिमालय (Himalaya) में निर्माण की चुनौती

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

पौराणिक ग्रंथों में ‘मरूतगणों’को पहाड़ों का देवता कहा गया है। इसीलिए सनातन संस्कृति में पहाड़ों को आस्था की दृष्टि से देखा जाता है। जन्नत का एहसास कराने वाले पहाड़ों पर प्राकृतिक संसाधनों के अथाह भंडार मौजूद हैं। भागदौड़ भरी जीवनशैली में सुकून के लम्हें बिताने के लिए पर्यटकों का आकर्षण पहाड़ ही बनते हैं। अपनी सैकड़ों पारंपरिक संस्कृतियों को समेटे पहाड़ आध्यात्मिक मूल्यों, शांतिपूर्ण माहौल, स्वच्छ वातावरण तथा स्वस्थ जीवनशैली के लिए भी विख्यात हैं। कई प्रजातियों के वन्यजीवों व जंगली जानवरों का कुदरती आशियाना भी पहाड़ हैं। अपनी मजबूती व बुलंदी के लिए विख्यात पहाड़ों का सामरिक महत्त्व बेहद अहम है। हिमालय की गोद में बसा उत्तराखंड कठिनतम पारिस्थितीकीय चुनौतियों से जूझ रहा है।

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सरकार व नौकरशाही के कामचलाऊ रुख से जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) समेत मानव निर्मित इन गंभीर विषम स्थितियों का सामना करना दुष्कर हो रहा है. हाल ही में घटी ताबड़तोड़ आपदाएं हिमालयी जनजीवन के अस्तित्व पर आगामी सदियों के खतरों की आहट दे रही हैं। उत्तराखंड की नैसर्गिक चट्टानों को चीरकर बनाई जाने वाली चौड़ी सड़कें जिस अवैज्ञानिक और अदूरदर्शी तरीके से निर्मित करने की प्रक्रिया शुरू की गई वे न केवल इस नाजुक हिमालयी क्षेत्र के लिए आत्मघाती हैं बल्कि यहां की वन संपदाओं और दुर्लभ समूचे वन्य जनजीवन के लिए भी नए तरह के अभिशाप के बीज बो रहे हैं। विशिष्ट भौगोलिक परिस्थतियों वाले हिमालयी क्षेत्र की जनता को विकास भी चाहिए तभी उनकी जिंदगी की मुश्किलें कम होंगी और बेहतर जीवन सुलभ होगा। हिमालय वासियों के लिए सड़कें भी चाहिए, तो बिजली-पानी और अन्य आधुनिक सुविधाएं भी चाहिए, लेकिन पहाड़ों पर सड़कें बनाना तो आसान है मगर उन सड़कों के निर्माण से उत्पन्न परिस्थितियों से निपटना उतना आसान नहीं है।

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सिलक्यारा सुरंग हादसे के बाद अब हमारे नीति नियंताओं सबक जरूर सीखना चाहिए। खासकर सुरक्षा उपायों में इतनी खतरनाक लापरवाही को अत्यन्त गंभीरता से लिए जाना चाहिए। क्षेत्र की विशिष्ट भूगर्भीय,भौगोलिक और पर्यावरणीय विशेषताओं के कारण हिमालय में सुरंग निर्माण से कई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। दरअसल हिमालय जटिल भूगर्भीय संरचनाओं वाला एक भूकंपीय दृष्टि से सक्रिय क्षेत्र है, जिसमें विभिन्न प्रकार की चट्टानें, भ्रंश रेखाएं और अस्थिर भूभाग शामिल हैं।यहां कठिन चट्टानों, भूस्खलन और भूगर्भीय अस्थिरता के कारण सुरंग बनाने के लिए चुनौतियाँ पैदा होती हैं।निर्माण कार्य प्रायः ऊंचाई पर कठिन होता है। कम तापमान, ऑक्सीजन की कमी और कठिन पहुंच जैसी चुनौतियां निर्माण को कठिन बनाती हैं। कठोर चट्टनों में सुरंग बनाने, पानी के प्रवेश का प्रबंधन करने, वेंटिलेशन सुनिश्चित करने और खड़ी चट्टानों में स्थिरता बनाए रखने के लिए उन्नत इंजीनियरिंग तकनीकों और विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है।

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हिमालय में भूगर्भीय निर्माण गतिविधियां नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती हैं, जिससे पारिस्थितिकी संतुलन, जल संसाधन और मानव बस्तियों पर प्रभाव डाल कर चिन्ता का विषय बनती हैं। जोखिमों को कम करने के लिए व्यापक योजना, भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, उन्नत तकनीक, सुरक्षा प्रोटोकॉल और कुशल जनशक्ति आवश्यक हैं।बुनियादी ढांचों का विकास महत्वपूर्ण है, लेकिन सुरक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए। हम जानते हैं कि नियमों और विनियमों के बावजूद, देश भर में अक्सर सुरक्षा मानदंडों का उल्लंघन किया जाता है।

विशेषज्ञों की रिपोर्टें हमें बताती हैं कि यह क्षेत्र पारिस्थितिक दृष्टि से बेहद नाजुक है और भूकंपीय क्षेत्र में स्थित है। इसलिए यह सुनिश्चित करना राष्ट्रीय हित में है कि पूरे हिमालयी क्षेत्र में ऐसी आपदा दोबारा न हो। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि पूरा हिमालयी क्षेत्र उच्च-सतर्कता वाला, भूकंप के भारी जोखिम वाला और जलवायु परिवर्तन के प्रमुख केंद्रों में से एक है, इसलिए यहां पर उसी के अनुसार विकास कार्यों को आगे बढ़ाया जाना
चाहिए। इसका मतलब है कि इस क्षेत्र में चरम मौसमी घटनाएं होती हैं और दोबारा भी हो सकती हैं। हाल के समय में हमने हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और सिक्किम में बार-बार आपदाएं देखी हैं। अब हमें इस क्षेत्र की सभी बुनियादी ढांचों की समीक्षा करनी चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि हमारे सुरक्षा मानदंड अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा मानदंडों के अनुरूप हों। हमें पर्यावरण संबंधी चिंताओं को ध्यान में रखना चाहिए। अन्यथा, लोगों और संसाधनों के लिए बार-बार जोखिम पैदा होंगे। हिमालयी क्षेत्र किसी अन्य पहाड़ी इलाके की तरह नहीं है। हिमालय इस धरती पर सबसे युवा पर्वत है। यह बेहद नाजुक इलाका है, जहां भूस्खलन आम बात है।

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सरकार ने स्वयं संसद में बताया है कि हिमालय के कई हिस्सों में भौगोलिक स्थिति अस्थिर और गतिशील है। इसका मतलब है कि इस क्षेत्र में बुनियादी ढांचों के निर्माण का कार्य बेहद सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिए। हमें उत्तराखंड और हिमालयी क्षेत्र के अन्य सभी राज्यों में सभी नई एवं निर्माणाधीन परियोजनाओं की ‘सुरक्षा ऑडिट’ करने की जरूरत है। हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए, जिससे जीवन खतरे में पड़े। सुरक्षा को ध्यान में रखने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है। यह हादसा हमारे लिए एक अवसर होना चाहिए कि हम उन बुनियादी ढांचों की समीक्षा करें, जिनके निर्माण की कोशिश कर रहे हैं। सिलक्यारा सुरंग हादसे के बाद अब हमारे नीति नियंताओं सबक जरूर सीखना चाहिए। खास कर सुरक्षा उपायों में इतनी खतरनाक लापरवाही को अत्यन्त गंभीरता से लिए जाना चाहिए। क्षेत्र की विशिष्ट भूगर्भीय, भौगोलिक और पर्यावरणीय विशेषताओं के कारण हिमालय में सुरंग निर्माण से कई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं।

दरअसल हिमालय जटिल भूगर्भीय संरचनाओं वाला एक भूकंपीय दृष्टि से सक्रिय क्षेत्र है, जिसमें विभिन्न प्रकार की चट्टानें, भ्रंश रेखाएं और अस्थिर भूभाग शामिल हैं। यहां कठिन चट्टानों, भूस्खलन और भूगर्भीय अस्थिरता के कारण सुरंग बनाने के लिए चुनौतियाँ पैदाहोतीहैं। निर्माण कार्य प्रायः ऊंचाई पर कठिन होता है। कम तापमान, ऑक्सीजन की कमी और कठिन पहुंच जैसी चुनौतियां निर्माण को कठिन बनाती हैं कठोर चट्टनों में सुरंग बनाने, पानी के प्रवेश का प्रबंधन करने, वेंटिलेशन सुनिश्चित करने और खड़ी चट्टानों में स्थिरता बनाए रखने के लिए उन्नत इंजीनियरिंग तकनीकों और विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है।

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हिमालय में भूगर्भीय निर्माण गतिविधियां नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती हैं, जिससे पारिस्थितिकी संतुलन, जल  बस्तियों पर प्रभाव डाल कर चिन्ता का विषय बनती हैं। जोखिमों को कम करने के लिए व्यापक योजना, भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, उन्नत तकनीक, सुरक्षा प्रोटोकॉल और कुशल जनशक्ति आवश्यक हैं। हिमालय में वन संपदा के संरक्षण के साथ ही ढांचागत विकास को जिस अवैज्ञानिक और अदूरदर्शिता से आगे बढ़ाया जा रहा है, उससे योजनाकारों को विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की चेतावनियों की अनदेखी करने की भारी कीमत चुकानी पडे़गी. सचिव आपदा प्रबंधन ने कहा कि हिमालयी क्षेत्र आपदा के लिहाज से बेहद संवेदनशील है। इस कड़ी में निर्माण कार्यों को वैज्ञानिक ढंग से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। फिर चाहे वह कार्य सड़क निर्माण से जुड़ा हो अथवा अन्य योजनाओं से। भूस्खलन का भी वैज्ञानिक ढंग से उपचार और प्रबंधन जरूरी है। ये जिम्मेदारी केवल सरकार ही नहीं, सबकी है।

हमने राज्य में जियो टैगिंग अध्ययन के अलावा ढलान, भूमि के संबंध में तकनीकी अध्ययन के साथ कदम बढ़ाने शुरु कर दिए हैं। आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन के लिए और क्या बेहतर हो सकता है, इसे लेकर मंथन चल रहा है। एक बात और हिमालय के संरक्षण के लिए सभी को सजग व संवेदनशील होना ही होगा। देवभूमि उत्तराखंड के जनमानस के सामाजिक व सांस्कृतिक अस्तित्व को बचाने की प्रभावी पहल करें।

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(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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