कीड़ाजड़ी पर पड़ी मौसम की मार - Mukhyadhara

कीड़ाजड़ी पर पड़ी मौसम की मार

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कीड़ाजड़ी पर पड़ी मौसम की मार

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

भारत में ऐसी कई औषधियां हैं, जिनका इस्तेमाल उन बीमारियों के इलाज में किया जाता है, जिसका कोई इलाज नहीं है। पुराने समय से इन जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। इनके कोई साइड इफेक्ट्स भी नहीं होते और ये वैसे लोगों को भी ठीक कर देता है, जिनके इलाज की लोग उम्मीद छोड़ देते हैं इसमें हिमालयन वियाग्रा यानी यारसा गंबू का नाम सबसे पहले लिया जाता है। उत्तराखंड हिमालयी वायग्रा के नाम से जानी जाने वाली कीड़ा जड़ी पर जलवायु परिवर्तन के चलते खतरा मंडरा रहा है। पीटीआई के मुताबिक वैज्ञानिकों का कहना है कि बढ़ता तापमान नौ हजार फीट से ज्यादा की ऊंचाई पर पाई जाने वाली इस फंगस के लिए प्रतिकूल परस्थितियां पैदा कर रहा है।

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कीड़ा जड़ी जंतु.वनस्पति की एक साझा विशिष्ट संरचना है,जो उच्च हिमालयी क्षेत्रों की एक तितली के लार्वा पर फफूंद के संक्रमण से बनती है। इसका वानस्पतिक नाम कार्डिसैप्स साईनोन्सिस है। कीड़ा जड़ी का आधा भाग जमीन के नीचे और आधा ऊपर रहता है। आम तौर पर इसकी
लंबाई 7 से 10 सेमी होती है। कीड़ा जड़ी को तिब्बत और नेपाल के कुछ इलाकों में यारसा गंबू भी कहा जाता है। चीन में तो इसकी कीमत कई बार सोने से भी तीन गुना ज्यादा हो जाती है। माना जाता है कि यह नपुंसकता से लेकर कैंसर तक तमाम बीमारियों के इलाज में कारगर है।प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज नाम के चर्चित जर्नल में छपी एक रिपोर्ट में कीड़ा जड़ी के बारे में कहा गया है, यह दुनिया की सबसे कीमती जैविक वस्तु है, जो इसे एकत्रित करने वाले हजारों लोगों के लिए आय का अहम स्रोत है।

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उत्तराखंड, नेपाल और तिब्बत में एक बड़ी आबादी बरसात के दो महीनों में इसे खोजने निकलती है। अब तक यह कहा जाता रहा है कि कीड़ाजड़ी के उत्पादन में यह कमी इसके अत्यधिक दोहन से हो रही है, लेकिन शोधकर्ताओं ने इसकी वजह जानने के लिए इसे इकट्ठा करने वालों और व्यापारियों का साक्षात्कार किया। पुराने आंकड़े भी खंगाले गए। शोध करने वालों ने मौसम और तापमान से जुड़े बदलावों पर भी गौर किया। इसके बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे कि भले ही अब कीड़ा जड़ी का दोहन कम भी कर दिया जाए तो भी जलवायु परिवर्तन के चलते इसका उत्पादन गिरता रहेगा। यारसा गंबू को दुनिया के सबसे शक्तिशाली शक्तिवर्धक के तौर पर जाना जाता है। इसके सेवन से मर्दों की कई तरह की बीमारियां दूर की जा सकती है। इसमें शारीरिक कमजोरी से लेकर कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियां शामिल है। इसका उत्पादन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में किया जाता है। इसके उत्पादन में बर्फ काफी बड़ा रोल प्ले करता है। लेकिन इस साल कम बर्फ़बारी की वजह से इसे बेचकर अपना गुजारा करने वाले लोगों के लिए चिंता बढ़ गई है।

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यारसा गंबू का इस्तेमाल कई तरह की बीमारियों के इलाज में किया जाता है। कई तरह के शक्तिवर्धक टॉनिक, और कैंसर की बीमारी की दवाइयों में इसका इस्तेमाल किया जाता है। अगर सही खरीददार मिले, तो एक किलो यारसा गंबू के बदले बीस लाख रुपए मिल सकते हैं। विदेशों में इसकी काफी डिमांड है। लेकिन इसे पैदा होने के लिए लंबे समय तक इसका बर्फ के अंदर दबा रहना जरुरी है। लेकिन इस साल कम बर्फ़बारी की वजह से इसका उत्पादन करने वालों में मायूसी देखी जा सकती है। इस साल बारिश और बर्फबारी कम होने से हिमालयन वियाग्रा के नाम से प्रसिद्ध कीड़ाजड़ी (यार्सागुम्बा) का उत्पादन प्रभावित हुआ है।

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जानकारों का कहना है कि इस साल उच्च हिमालयी क्षेत्रों में कम बर्फबारी होने के कारण तापमान जितनी तेजी से बढ़ता जाएगा, उतनी ही तेजी से यार्सागुम्बा के उत्पादन में कमी आती जाएगी. यार्सागुम्बा का उत्पादन कम होने से बॉर्डर के हजारों परिवारों के समक्ष आर्थिक संकट भी गहरा गया है। दरअसल, उच्च हिमालयी इलाकों में पैदा होने वाले यार्सागुम्बा का उत्पादन तापमान पर निर्भर करता है। इस बेशकीमती कीड़ाजड़ी के बेहतर उत्पादन के लिए भारी बर्फबारी होना और माइनस चार से माइनस 15 डिग्री का तापमान होना बेहद आवश्यक है।शोध में पाया गया है कि जिस साल हिमालयी क्षेत्रों में बर्फबारी कम हुई है, इसके उत्पादन में भी कमी आई है। जिसका दोहन हर साल बड़े पैमाने पर होता है। हिमालय वियाग्रा के नाम से प्रसिद्ध इस जड़ी बूटी का साइंटिफिक नाम कॉर्डिसेप्स साइनेसिस है। करीब पांच हजार मीटर की ऊंचाई पर उत्पादित होने वाला यार्सागुम्बा कई मायनों में कारगर है। ये जड़ी बूटी शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में काफी मददगार है।इसलिए इंटरनेशनल मार्केट में यार्सागुम्बा की भारी डिमांड है।

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अंतरराष्ट्रीय बाजार में 1 किलो यार्सागुम्बा की कीमत 20 लाख रुपये से अधिक है. उच्च हिमालयी भू भाग में पाई जाने वाली कीड़ा जड़ी (यारसा गम्बो) पर इस वर्ष मौसम की मार पड़ी है। मौसम के चलते दोहन के लिए भी विगत वर्षो की अपेक्षा इस बार काफी कम संख्या में ग्रामीण पहुंचे हैं। इसका उपयोग यौनवर्धक दवा के रूप में होता है। ऊंचे इलाकों में रहने वाले हजारों परिवारों की आय का कीड़ाजड़ी इकलौता जरिया है। ऐसे में इसके उत्पादन में रिकॉर्ड कमी ने हजारों परिवारों पर संकट गहरा दिया है। उत्तराखंड में धारचूला, मुनस्यारी और चमोली क्षेत्र के लोग कीड़ाजड़ी पर निर्भर हैं।

मुनस्यारी के जिला पंचायत सदस्य की मानें तो कीड़ाजड़ी के उत्पादन में रिकॉर्ड कमी के कारण करीब 80 हजार परिवार सीधे प्रभावित हुए हैं हिंदू कुश हिमालय इलाके में बर्फ से ढकी चोटियां, जो हमेशा सर्दियों के सफेद कंबल से सजी होती थीं, इस साल खासकर पश्चिमी हिमालय में बिल्कुल बर्फ नहीं है. बहुत कम बर्फबारी या जरा भी बर्फबारी नहीं होने वाली इस असामान्य सर्दी ने उन किसानों में चिंता पैदा कर दी है, जिनकी आजीविका काफी हद तक किसानी पर निर्भर है.. हम निष्कर्ष निकालते हैं कि कैटरपिलर कवक आबादी अत्यधिक कटाई और जलवायु परिवर्तन के संयोजन से नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई है। हिमालयन वियाग्रा हिमालय के उन ऊंचे चरागाहों में पाई जाती है, जहां बर्फ पिघलती है।

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ऐसा माना जाता है कि निवास स्थान में गिरावट, अधिक कटाई और जलवायु परिवर्तन जैसे कई कारणों से कैटरपिलर फंगस के उत्पादन में कमी आई है। जानकारों के मुताबिक एशिया में हर साल कीड़ा जड़ी का करीब 150 करोड़ रुपये का कारोबार होता है। इस साल इसके कम दोहन होने से लोगों के रोजगार पर काफी असर पड़ने वाला है। पिथौरागढ़ वन विभाग में प्रभागीय वनाधिकारी ज्वाला प्रसाद गौड़ ने इस बारे में कहा कि इस साल यारसा गंबू के कम उत्पादन की वजह मौसम परिवर्तन ही है। पिछले साल तक समय से हुई बर्फबारी की वजह से इसका ठीकठाक उत्पादन हुआ था। बचाने की प्रभावी पहल करें।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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