आर्थिकी मजबूत बना सकती है कोलियस फोर्सकोली (coleus forskoli) की खेती - Mukhyadhara

आर्थिकी मजबूत बना सकती है कोलियस फोर्सकोली (coleus forskoli) की खेती

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आर्थिकी मजबूत बना सकती है कोलियस फोर्सकोली (coleus forskoli) की खेती

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  डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला 

भारत का आयुर्वेद के साथ सदियों पुराना नाता है और इसमें हर परेशानी का हल मौजूद है। कोलियस फोर्सकोली जिसे पाषाणभेद अथवा पत्थरचूर भी कहा जाता है, उस औषधीय पौधों में से है, वैज्ञानिक आधारों पर जिनकी औषधीय उपयोगिता हाल ही में स्थापित हुई है। भारतवर्ष के समस्त उष्ण कटिबन्धीय एवं उप-उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों के साथ-साथ पाकिस्तान, श्रीलंका, पूर्वी अफ्रीका, ब्राजील, मिश्र, ईथोपिया तथा अरब देशों में पाए जाने वाले इस औषधीय पौधे को भविष्य के एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधे के रूप में देखा जा रहा है। वर्तमान में भारतवर्ष के विभिन्न भागों जैसे तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा राजस्थान में इसकी विधिवत खेती भी प्रारंभ हो चुकी है जो काफी सफल रही है।

कोलियस का पौधा लगभग दो फीट ऊँचा एक बहुवर्षीय पौधा होता है। इसके नीचे गाजर के जैसी (अपेक्षाकृत छोटी) जड़े विकसित होती हैं तथा जड़ों से अलग-अलग प्रकार की गंध होती है तथा जड़ों में से आने वाली गंध बहुधा अदरक की गंध से मिलती जुलती होती है। इसका काड प्रायः गोल तथा चिकना होता है तथा इसकी नोड्स पर हल्के बाल जैसे दिखाई देते है। इसी प्रजाति का (इससे मिलता जुलता) एक पौधा प्रायः अधिकांश घरों में शोभा कार्य हेतु तथा किचन गार्डन्स में लगाया जाता है। जो डोडीपत्र (कोलियस एम्बोनिक्स अथवा कोलियस एरोमेटिक्स) के रूप में पहचाना जाता है।

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कोलियस एरोमैटिक्स को हिन्दी में पत्ता अजवाइन कहा जाता है तथा मराठी एवं बंगाली में पत्थरचुर। इसे पत्ता अजवाइन इसलिए कहा जाता है क्योकि इसके पते से अजवाइन जैसी खुशबू आती है तथा औषधीय उपयोग के साथ-साथ कुछ घरों में लोग इसके भजिए बनाकर भी खाते है। इस प्रकार से तो कोलियस फोर्सखोली तथा कोलियस एरोमेटिक्स एक जैसे ही दिखते हैं परन्तु जहां कोलियस एरोमैटिक्स में अजवाइन जैसी खुशबू आती है वहां कोलियस फोर्सकोली में इतनी तीव्र गंध नहीं होती। दूसरे कोलियस एरोमैटिक्स के पत्ते काफी मांसल होते है जबकि कोलियस फोर्सखोली के पत्ते ज्यादा मांसल नहीं होते। औषधीय जगत में पाषाणभेद अथवा पत्थरचुर शब्द का उपयोग उन विभिन्न औषधीय पौधों के लिए किया जाता है जिनमें शरीर के विभिन्न भागों जैसे किडनी, ब्लैडर आदि में पाई जाने वाली पथरी अथवा पत्थर (स्टोन आदि) को तोड़ने गलाने की क्षमता होती है।

इसे एक संयोग ही कहा जा सकता है कि हमारे देश के विभिन्न भागों में ऐसे दस से अधिक औषधीय पौधे पाए जाते हैं जो उनके मूलभूत गुणों में भिन्नता होने बावजुद पाषाणभेद के रूप में जाने एवं पहचाने जाते है। पिछले पृष्ठ पर दिये गये विवरणों से देखा जा सकता है कि ऐसे अनेक औषधीय पौधे है जिन्हें पाषाणभेद अथवा पत्थरचुर के रूप में जाना जाता है। ऐसे में कोलियस फोर्सकोली के लिए पत्थरचुर अथवा पाषाणभेद शब्द सुविधा की दृष्टि से प्रयुक्त तो किया जा सकता है परन्तु तकनीकी रूप से शायद यह सही होगा। फलतः प्रस्तुत चर्चा में वर्णित किए जा रहे पौधे हेतु इसके वानस्पतिक नाम फोलियस फोर्सकोली का ही यथावत उपयोग किया जा रहा है। राजनिघण्टुकार ने इसकी पहचान कामन्दी, गन्धमूलिका के नाम से की है।

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औषधीय उपयोग में मुख्यता इसकी जड़ें प्रयुक्त होती हैं जिनसे फोर्सकोलिन नामक तत्व निकाला जाता है।जिन प्रमुख औषधीय उपयोगों में इसें प्रयुक्त जा रहा है, वे निम्नानुसार हैंहृदय संबंधी रोगों के उपचार हेतु विभिन्न हृदय विकारों जैसे एन्जाइन, हायपरटेन्शन तथा हृदयाघात के उपचार के लिए फोर्सकोली काफी उपयोगी पाया गया है। रक्त को पतला करने जैसे इसके प्रभावों के कारण यह स्ट्रोक आदि के उपचार में भी
प्रभावी पाया जाता है। प्लेटलेट एक्टीवेशन तथा एग्रीगेशन जैसे इसके प्रभावों के कारण हृदयघात की स्थिति में यह एस्प्रीन के स्थान पर प्रयुक्त किया जा सकता है। वजन कम करने हेतु / मोटापा दूर करने हेतु कोलियस फोर्सखोली में शरीर में संग्रहित वसा को तोड़ने की क्षमता होती है। इसके साथ-साथ यह एडीपोज टिश्युज के संयोजन को भी रोकता है। यह लियोलाइटिक हार्मोन्स की गतिविधि को भी बढ़ाता है। इन सबके फलस्वरूप इसके सेवन से व्यक्ति के अतिरिक्त मोटापे में कमी आती है।

पाचन शक्ति बढ़ाने में सहायक कोलियस फोर्सखोली के सेवन से स्लाइवा का स्त्राव बढ़ता है तथा हाईड्रोक्लोरिक एसिड, पैप्सिन तथा पैनक्रीटिक एन्जाइम्स ज्यादा मात्रा में पैदा होते हैं जिससे छोटी आंत में पुष्टिकारक पदार्थों की ग्राह्यता बढ़ती है। उपरोक्त के साथ-साथ कोलियस फोर्सखोली अस्थमा, एग्जिमा, आंतो के दर्द, पेशाब में दर्द, विभिन्न प्रकार के एलर्जी, महिलाओं में महावारी के दौरान होने वाले दर्द, उच्च रक्तचाप तथा विभिन्न चर्मरोगों आदि के उपचार में प्रभावी सिद्ध हुआ है जिसे देख कर यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोलियस फोर्सकोली भविष्य में एक अत्यधिक महत्वपुर्ण औषधीय पादप बनने जा रहा है।औषधीय उपयोगिता के इतने महत्वपुर्ण पादप के कृषिकरण को बढ़ावा देने की नितान्त आवश्यकता है।

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वर्तमान में भारतवर्ष के कई राज्यों जैसे महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश आदि में इसकी  खेती प्रारंभ हो चुकी है जिसके परिणाम काफी उत्साहवर्धक हैं। एक एकड़ की खेती से औसतन 8 क्विंटल सूखे ट्यूबर्स की प्राप्ति होती है जिनकी बिक्री दर यदि 3500रू. प्रति क्विंटल मानी जाए तो इस फसल से लगभग 28000रू. की प्राप्तिया होती है। इनके साथ-साथ प्लांटिग मेटेरियल की बिक्री से भी 6000 रू. की अतिरिक्त प्राप्तियां होगी। इनमें से विभिन्न कृषि क्रियाओं पर यदि 11800रू. का खर्च होना माना जाए तो इस छ: माह की फसल से किसान को प्रति एकड़ 22000रू. का शुद्ध लाभ प्राप्त हो सकता है। निःसंदेह कोलियस फोर्सखोली एक बहुउपयोगी औषधीय फसल है। न केवल इसके औषधीय उपयोग बहुमूल्य हैं बल्कि अपेक्षाकृत नई फसल होने के कारण इसका बाजार भी काफी समय तक बने रहने की संभावनाएं है। इस प्रकार दक्षिणी भारत तथा मध्यभारत के किसानों के लिए व्यवसायिक दृष्टि से यह एक काफी लाभकारी सिद्ध हो सकती है।

चंपावत जिले में जड़ी-बूटियों के जानकार पल्सों निवासी वैद्य पंडित लीलाधर जोशी आज भी जड़ी-बूटियों के माध्यम से रोगियों का निशुल्क उपचार कर रहे हैं। साथ ही जड़ी-बूटियों के उत्पादन के लिए लोगों को प्रेरित भी कर रहे हैं। उम्र के आखिरी पड़ाव में चल रहे पंडित जोशी ने पल्सों गांव में अपनी 30 नाली भूमि पर बिना किसी सरकारी मदद के औषधीय महत्व की जड़ी-बूटियों की नर्सरी भी विकसित की है। जोशी ने अपनी नर्सरी में अश्वगंधा, पाषाणभेद, ममीरा, चिरायता, दालचीनी, गनिया, हंसराज, राजवृक्ष, केवला, कालाबांस, रीठा, इंद्रायणी, समेवा,
सर्पगंधा, दारु हल्दी, रैचीजीवन, मंजीस्ठा, दाड़िम, सतावर, धृतकुमारी, गुलाब कांठी, हरड़, तिमूर, वन तुलसी, काला जीरा, गुलबनस्पा, राम तुलसी, अजवाइन, पीपरमैंट, लहसुनिया, सौंफ, बड़ी इलायची, हिमालयन वाईन, कोपराघास, कोयलस, आंवला, पुदीना, ब्राह्मी सहित 300 से अधिक प्रजातियों की जड़ी- बूटियों को उगाया है। स्वयं के प्रयासों से जड़ी बूटी की खेती को बढ़ावा देने के कार्य में जुटे पंडित लीलाधर जोशी को आज तक सरकारी मदद नहीं मिली।

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हालांकि भेषज संघ उन्हें गोष्ठियों और कार्यशालाओं में व्याख्यान देने के लिए बुलाता है। उन्होंने अपने प्रयासों से ही जड़ी बूटियों को बढ़ावा
दिया है उत्तराखंड औषधियों की खान है। यहां कदम कदम कदम पर मिलने वाली औषधियां गंभीर से गंभीर बीमारियों का अचूक इलाज हैं। अगर आप एक पारखी नज़र वाले हैं और इन औषधियों की पहचान कर सकते हैं, तो गंभीर बीमारियां कभी भी आपके पास नहीं फटकेंगी। कहा जाता रहा है कि पहाड़ों के लोग हमेशा गंभीर बीमारियों से दूर रहे। वो इसलिए क्योंकि उन्होंने पहाड़ों में ही खुद के लिए इलाज ढूंढ लिया था। हर मर्ज के इलाज के लिए एक खास जड़ी होती थी, जिसे पहाड़ों के जंगलों, बुग्यालों से चुनकर लाया जाता था। इन्हीं में से एक जड़ी है ‘शिलफोड़ा जड़ी’। नाम से ही साफ है कि शिला को भी फोड़ देने वाली जड़ी। पथरी का सबसे अचूक इलाज है शिलफोड़ा।

आज लोग पथरी के इलाज के लिए शहरों में जाकर महंगे लेज़र ऑपरेशन करवा रही है लेकिन वो ये नहीं जानते कि बिना ऑपरेशन कराए भी पथरी का इलाज आराम से संभव है। एक एकड़ की खेती से औसतन 8 क्विंटल सूखे ट्यूबर्स की प्राप्ति होती है जिनकी बिक्री दर यदि 3500रू. प्रति क्विंटल मानी जाए तो इस फसल से लगभग 28000रू. की प्राप्तिया होती है। इनके साथ-साथ प्लांटिग मेटेरियल की बिक्री से भी 6000 रू. की अतिरिक्त प्राप्तियां होगी। इनमें से विभिन्न कृषि क्रियाओं पर यदि 11800 रू. का खर्च होना माना जाए तो इस छ: माह की फसल से किसान को प्रति एकड़ 22000 रू. का शुद्ध लाभ प्राप्त हो सकता है। निःसंदेह कोलियस फोर्सखोली एक बहुउपयोगी औषधीय फसल है। न केवल इसके औषधीय उपयोग बहुमूल्य हैं बल्कि अपेक्षाकृत नई फसल होने के कारण इसका बाजार भी काफी समय तक बने रहने की
संभावनाएं है। इस प्रकार दक्षिणी भारत तथा मध्यभारत के किसानों के लिए व्यवसायिक दृष्टि से यह एक काफी लाभकारी सिद्ध हो सकती है।

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कोलियस की सूखी जड़ों की खरीदी हेतु कम्पनियों द्वारा पुर्नखरीदी करार किए जा रहे है। इस संदर्भ में मध्यप्रदेश में कार्यरत प्रमुख कम्पनी है मे. कस्तूरी हर्बल फार्म, भोपाल। इस कम्पनी द्वारा भारतीय स्टेट बैंक के साथ भी कोलियस की खेती के प्रोत्साहन हेतु अनुबंध करार दिया गया है उत्तरखंड में भी इसकी खेती की जाती है जड़ी-बूटियों की खेती सिर्फ किसानों को मालदार ही नहीं बना रही, बल्कि इससे कई बार अंतरराष्ट्रीय सद्भावना को भी बल मिल रहा है। मसलन, हाल ही में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपने राज्य से नेपाल की भौगोलिक परिस्थितियों की तुलना करते हुए वहां की धरोहर जड़ी बूटियों और जैविक खेती के माध्यम से रोजगार को बढ़ावा देने की पहल की है। औषधीय जड़ी-बूटियों की खेती किसानों को हरित क्रांति का एहसास करा रही है।

लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के अन्तर्गत वैज्ञानिक बी० के पद पर कार्य का अनुभव किया है।

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