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देश-दुनिया में छाए उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritage of Uttarakhand)

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देश-दुनिया में छाए उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritage of Uttarakhand)

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

भारत में हथकरघा उद्योग भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और देश के सामाजिक-आर्थिक विकास को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। 7 अगस्त को मनाया जाने वाला राष्ट्रीय हथकरघा दिवस देश के हथकरघा बुनकरों का सम्मान करता है। यह वह दिन है जो स्वदेशी आंदोलन को भी मान्यता देता है जिसे 1905 में इसी दिन शुरू किया गया था।

भारत में स्थापित होने वाले शुरुआती उद्योगों में से एक, यह कुल औद्योगिक उत्पादन का 14 % हिस्सा है, कुल निर्यात का लगभग 30 % योगदान देता है, और कृषि के बाद देश में दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता है, जो 43 लाख से अधिक को रोजगार देता है। बुनकर और संबद्ध
श्रमिक। पर्यावरण-अनुकूल हथकरघा उद्योग का उद्देश्य बुनकरों का समर्थन करना, उन्हें सीधे बाजार से जोड़ना, नए डिजाइन और उत्पाद विविधीकरण के संदर्भ में इनपुट प्रदान करना, कौशल उन्नयन, बेहतर तकनीक प्रदान करके बुनकरों को उच्च मूल्य, अच्छी गुणवत्ता वाले उत्पादों के उत्पादन में सुविधा प्रदान करना है।  बुनियादी ढाँचा, और कच्चे माल और कार्यशील पूंजी की आसान उपलब्धता।

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सरकार ने इन उद्देश्यों को प्राप्त करने में मदद के लिए कई योजनाएं भी लागू की हैं, जैसे राष्ट्रीय हथकरघा विकास कार्यक्रम (एनएचडीपी), हथकरघा बुनकर व्यापक कल्याण योजना (एचडब्ल्यूसीडब्ल्यूएस), व्यापक हथकरघा क्लस्टर विकास योजना (सीएचसीडीएस) और यार्न आपूर्ति योजना (वाईएसएस)।इसके अलावा, 2015 में, उच्च गुणवत्ता वाले हथकरघा उत्पादों का प्रतिनिधित्व करने के लिए ‘इंडिया हैंडलूम’ ब्रांड लॉन्च किया गया था और इसे शून्य दोष और पर्यावरण पर शून्य प्रभाव के साथ उच्च गुणवत्ता, प्रामाणिक पारंपरिक डिजाइन वाले विशिष्ट हथकरघा उत्पादों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अपनाया गया था।

भारत हर साल 6 मिलियन टन कपास उत्पादन के साथ कपास का सबसे बड़ा उपभोक्ता और दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक भी है, जो विश्व कपास का लगभग 23 % है।कपड़ा मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2016- 17 के अनुसार, निर्यात के मामले में, दुनिया में भारतीय हथकरघा कपड़े की हिस्सेदारी 95 % है, जिसे 125 से अधिक देशों में निर्यात किया जाता है। भारत दुनिया में हथकरघा उत्पादों का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है, जिसका निर्यात 2017-18 में 353.9 मिलियन अमेरिकी डॉलर था। घरेलू कपड़ा और परिधान उद्योग भारत की जीडीपी में 5 % योगदान देता है। कपड़ा और परिधान उद्योग में एफडीआई  मार्च 2021 तक 3.75 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। इसके अलावा, कपड़ा और परिधान का निर्यात 2025-26 तक बढ़कर 65 अरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। हथकरघा क्षेत्र देश में दूसरा सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता है, जो देश में बड़ी संख्या में महिलाओं को रोजगार और सशक्तिकरण प्रदान करता है। इस क्षेत्र में ७०त्न से अधिक हथकरघा बुनकर और संबद्ध श्रमिक महिलाएं हैं।

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चौथी हथकरघा जनगणना (2019-20) केअनुसार, इस क्षेत्र में कुल 35.22 लाख हथकरघा श्रमिक लगे हुए हैं।यह क्षेत्र बुनकरों, उद्योग और इस प्रकार राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सही रास्ते पर है। अब तक, भारत में माल के भौगोलिक संकेत अधिनियम के तहत कुल 72 हथकरघा उत्पादों और 6 उत्पाद लोगो को पंजीकृत किया गया है। हथकरघा उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए, हथकरघा निर्यात संवर्धन परिषद (एचईपीसी) अंतरराष्ट्रीय बाजारों में हथकरघा उत्पादों को बेचने के लिए सदस्य हथकरघा निर्यातकों के साथ विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मेलों में भाग लेती है।

राष्ट्रीय हथकरघा दिवस पर हथकरघा प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इस दौरान विभिन्न संस्थाओं की ओर से अपने उत्पाद का स्टाल लगाया गया। इस दौरान तुषार तांबे ने कहा कि हथकरघा हमारे भारत की सांस्कृतिक विरासत का अहम हिस्सा है, जो कम लागत में ज्यादा रोजगार देने के अलावा राष्ट्रीयता के भावनाओं को जागृत कर रहा है। आयोजक गोदाम बड़ी संस्था के तुषार तांबे ने बातचीत में कहा कि हथकरघा को अब पहनावे से लेकर घर की सजावट तक में खासतौर से शामिल किया जाने लगा है। प्राकृतिक रूप से हैंडलूम डेनिम, नेचुरल ड्राइंग और इको प्रिंट के बनाए गए पोशाकों और परिधान राज्य के युवाओं की पहली पसंद बन रहे हैं। अब हथकरघा के उत्पाद लोगों में राष्ट्रीयता के भावनाओं को जागृत कर रहा है।

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उन्होंने कहा कि हैंडलूम और खादी को लेकर जागरूकता बढ़ी है।  इसी का परिणाम है कि लोग उत्तराखंड में बने उत्पाद और परिधानों की खरीदारी में रुचि ले रहे हैं। हालांकि अभी हैंडलूम को और प्रचार-प्रसार करने की आवश्यकता है ताकि यह उत्पाद लोगों तक पहुंच सके। हथकरघा एवं हस्तशिल्प में भी सहयोग कर रही है। यह व्यवसाय कम लागत में ज्यादा मुनाफा देता है। उन्होंने कहा कि रोजगार देने के साथ ही प्रकृति निर्मित परिधानों व उत्पादों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना है। इसी के तहत पारंपरिक परिधान और मॉडर्न फैशन का एक फ्यूजन तैयार किया है। इसके अंतर्गत हम पारंपरिक सामग्री से मॉडर्न फैशन और स्टाइल के परिधान उत्तराखंड के अलावा देश के युवाओं के लिए तैयार कर रहे हैं।

तुषार तांबे बताते हैं कि हमारे इस जोहरी गांव के हथकरघा केंद्र में लगभग 7  हैंडलूम है और इसमें जाखन एवं उसके आसपास के गांव के 15 महिलाएं यहां काम कर रही है। महिलाओं को पहले 6 महीने तक प्रशिक्षण देखते हैं और फिर उन सभी महिलाओं को हम हैंडलूम के काम के
लिए रख लेते हैं। इन महिलाओं की ओर से मुख्य रूप से जो उत्पाद बनाए गए हैं। उनमें बेडशीट, सूट और कुर्ता के कपड़े, तोलिया, योगा मैट,दरी व अन्य उपयोग की वस्तुएं बनाई जाती है। इस प्रदर्शनी में उत्तराखंड के हैंडलूम के विभिन्न उत्पादों को प्रदर्शित की गई, जिसमें घुघुती विकारा,रीडो और हिमालयन ट्री जैसे संस्थाओं की ओर से अपना उत्पाद का स्टाल लगाया हाथ से बुनाई की परंपरा उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत रही है। तकनीकी व मशीनी युग में राज्य के कई बुनकर परिवारों ने हथकरघा उद्योग को जीवित रखा है।  प्रदेश के बुनकर भेड़ की ऊन से शॉल, पंखी, दुपट्टा, अंगूरा शॉल तैयार कर रहे हैं। इनकी अपनी एक पहचान है।

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प्रदेश सरकार की ओर से हरकरघा उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए हिमाद्रि ब्रांड से देश-विदेश में मार्केटिंग की जा रही है। हथकरघा भारत की आज़ादी की लड़ाई का एक महत्वपूर्ण चेहरा रहा है। इन वर्षों में, यह क्षेत्र हमारे देश की समृद्ध और विविध सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक बन गया है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में, गांधीजी ने स्वदेशी आंदोलन शुरू किया जिसने स्वदेशी उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा दिया। खादी एक हथियार और भारत की स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता, गौरव और लचीलेपन का प्रतीक बन गई। हाथ में जमीन न हो तो कोई गम नहीं। जिसके पास कला का हुनर है, उसके हाथों से कुछ भी दूर नहीं रह सकता। जी हाँ, इन पंक्तियों को सार्थक कर दिखाया है धर्म लाल ने। जिन्होंने बेजान पड़ी लकड़ियों पर अपनी बेजोड़ हस्तशिल्प काष्ठ कला से उन्हें जीवंत कर दिया है।

धर्म लाल के पास न तो कोई इंजीनियरिंग की डिग्री है, न कोई डिप्लोमा और न ही कोई उच्च शिक्षा की डिग्री लेकिन फिर भी 57 वर्षीय धर्म लाल विगत 40 सालों से विरासत में मिली अपनी काष्ठकला को बचाने में जुटे हुए हैं। उन्होंने उत्तराखंड की हस्तशिल्प काष्ठकला को सात संमदर पार विदेशों तक भी पहुँचाया है। जहाँ उनकी कला को देखकर हर कोई आश्चर्यचकित रह गया था। पहाड़ों में परंपरागत खोली, रम्माण के मुखौटे, घरों के लकड़ी के जंगले, लकड़ी के भगवान के मंदिर व मूर्तियाँ बनाकर स्थानीय बाजार में बेचते हैं, लेकिन बदलते दौर में स्थानीय बाजार में उनकी मांग न के बराबर है। बावजूद इसके धर्म लाल उत्तराखंड की काष्ठकला को बचाने में लगे हुए हैं। विभिन्न अवसरों पर दर्जनों सम्मान भी मिल चुके हैं।

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2016 में उन्हें उत्तराखंड शिल्प रत्न पुरस्कार भी मिल चुका है। जबकि 2017 में भारत सरकार के इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट एंड प्रमोशन ऑफ हैंडीक्रॉफ्ट योजना के तहत चयनित होने के बाद धर्म लाल ने इंग्लैंड के बर्मिंघम में आयोजित ऑटोमन इंटरनेशनल फेयर 2017 में लकड़ियों की वस्तुओं की प्रदर्शनी लगाई थी। वहाँ धर्म लाल ने अपने हाथों से तराशे लकड़ी के पशु-पक्षी, मुखौटे व केदारनाथ मंदिर (रेप्लिका) का प्रदर्शन किया था। धर्म लाल बताते हैं कि सात समंदर पार विदेशियों ने भी उत्तराखंड की इस कला की सराहना की थी।

उन्हें इस बात की खुशी है कि उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहाड़ की काष्ठकला का लोहा मनवाया। ऊर्गम घाटी में हर साल लगने वाले गौरा देवी मेले में धर्म लाल अपने मुखौटे व अन्य उत्पादों की प्रदर्शनी लगाते हैं। विगत दिनों के प्रोजेक्ट फ्यूल ने भी धर्म लाल की बेजोड़ हस्तशिल्प कला पर एक शानदार  डॉक्यूमेंट्री  बनाई थी, जिसे लोगों ने बेहद सराहा था। सामाजिक सरोकारों से जुड़े कहते हैं, आर्थिक तंगी की वजह से उत्तराखंड के विभिन्न जनपदों के बेजोड़ हस्तशिल्पकार आज बेहद मायूस है जिस कारण से हस्तशिल्प कला दम तोड़ती नजर आ रही है। जरूरत है ऐसे हस्तशिल्पकारों को प्रोत्साहित करने की और हरसंभव मदद करने की।ज्ज् उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत रही है। तकनीकी व मशीनी युग में राज्य के कई बुनकर परिवारों ने हथकरघा उद्योग को जीवित रखा है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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