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चिंता: शिक्षा-रोजगार (education-employment) के मुद्दों से निपटना बड़ी चुनौती

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चिंता: शिक्षा-रोजगार (education-employment) के मुद्दों से निपटना बड़ी चुनौती

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

लोकसभा चुनाव के नतीजे घोषित होने के बाद चाहे जो भी सत्ता में आए, कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उम्मीद है कि नई सरकार कुछ कटु सच्चाइयों पर अधिक ध्यान देगी। भारत तेजी से बढ़ने वाली प्रमुख अर्थव्यवस्था है। हम अक्सर जनसांख्यिकीय लाभांश के बारे में बातें करते हैं। देश के युवा कार्यबल में आर्थिक विकास, नवाचार और उत्पादकता को बढ़ाने की क्षमता है। लेकिन अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ते उन उच्च शिक्षित युवाओं के लिए पर्याप्त संख्या में उचित रोजगार सृजित नहीं कर पा रही है, जो सुरक्षित, ऊंचे वेतन वाली व्हाइट कॉलर जॉब की उम्मीद रखते हैं।

रोजगार पाने का मतलब अक्सर कम वेतन वाला, अनिश्चित काम करना होता है। एक राष्ट्रीय अखबार की खबर के अनुसार, आईआईटी कानपुर के एक पूर्व छात्र धीरज सिंह द्वारा दाखिल आरटीआई आवेदन से प्राप्त जानकारी के अनुसार, देश के 23 आईआईटी के करीब 38 प्रतिशत छात्र अब तक बेरोजगार हैं। समाचार में सिंह के हवाले से बताया गया है कि इस वर्ष सभी 23 में 7,000  छात्रों को आईआईटी कैंपस के माध्यम से नियुक्ति नहीं मिलि है। सिर्फ दो साल पहले यह आंकड़ा इसके लगभग आधा (3,400) था। सिंह ने बताया कि जहां अधिक छात्र रोजगार के लिए आवेदन कर रहे हैं, वहीं दो साल में बेरोजगार छात्रों की संख्या 2.3 गुना बढ़ गई है।यदि यह कोई अकेला मामला होता, तो इसे नजरअंदाज किया जा सकता था, लेकिन भारत में शिक्षित युवाओं के बीच बेरोजगारी पिछले कुछ समय से बड़ी चिंता का विषय रही है।

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अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन एवं दिल्ली स्थित थिंक टैंक मानव विकास संस्थान द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित इंडिया एंप्लॉयमेंट रिपोर्ट, 2024 के अनुसार, भारत के बेरोजगार कार्यबल में 83 फीसदी युवा हैं और कुल बेरोजगार आबादी में माध्यमिक या उच्च शिक्षा प्राप्तयुवाओंकीहिस्सेदारी वर्ष 2000 में 35.2 फीसदी थी, जो 2022 में बढ़कर 65.7 फीसदी हो गई।वर्ष 2023 के लिए परिशिष्ट के साथ मुख्यतः 2000 और 2022 के बीच के आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण और नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के विश्लेषण पर आधरित यह रिपोर्ट बताती है कि शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी का स्तर काफी ऊंचा है। शिक्षा के स्तर के साथ युवा बेरोजगारी दर बढ़ी है। स्नातक या उससे ज्यादा शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी की दर सबसे ज्यादा है और शिक्षित पुरुषों के मुकाबले शिक्षित महिलाओं में बेरोजगारी दर ज्यादा है। क्या भारत के श्रम बाजार में उनके लिए अवसर हैं, लेकिन शिक्षित युवाओं के लिए बेहतर गुणवत्ता वाली पर्याप्त नौकरी नहीं है? आंकड़े इसी तरफ इशारा करते हैं।

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सबसे ज्यादा परेशानी वाली बात यह है कि गरीब परिवारों के शिक्षित युवा विशेष रूप से कठिन परिस्थितियों में हैं।रिपोर्ट बताती है कि ‘सबसे कम मासिक प्रति व्यक्ति व्यय क्वाइंटाइल (29.4 प्रतिशत) में माध्यमिक या उच्च-माध्यमिक शिक्षा वाले युवाओं के बीच बेरोजगारी दर उच्चतम क्वाइंटाइल (25.8 प्रतिशत) वाले युवाओं की तुलना में अधिक थी। यहां बता दें कि क्वाइंटाइल किसी आंकड़े को पांच बराबर भागों में विभाजित करती है। नतीजतन युवाओं के बीच उच्च बेरोजगारी दर आंशिक रूप से व्हाइट कॉलर जॉब की आकांक्षाओं के कारण हो सकती है, जो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। सबसे गरीब युवा, जिनके पास गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, संसाधनों और सामाजिक पूंजी का अभाव है, वे अधिक पीड़ित हैं।’चिंता की बात है कि हाशिये पर पड़े अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उच्च शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी दर अन्य पिछड़ा वर्ग या सामान्य श्रेणी के युवाओं की तुलना में ज्यादा है।

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रिपोर्ट में कहा गया है कि सामाजिक रूप से हाशिये के युवाओं में उच्च बेरोजगारी उन चुनौतियों का संकेत देती है, जिनका सामना उन्हें बेहतर रोजगार की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए करना पड़ता है। यह प्रवृत्ति सामाजिक विषमताओं को कायम रखती है और सामाजिक रूप से ऊपर उठने में बाधा उत्पन्न करती है। क्या उच्च शिक्षित युवाओं के लिए शिक्षा के स्तर और नौकरियों के बीच विसंगति समय के साथ बढ़ी है? इंडिया एंप्लॉयमेंट रिपोर्ट, 2024 इस बारे में कुछ संकेत देती है। यह बताती है कि उच्च शिक्षित युवाओं (पुरुष एवं महिला) का एक बड़ा हिस्सा जिसमें तकनीकी शिक्षा प्राप्त युवा भी शामिल हैं, अपनी नौकरी से ज्यादा योग्यता रखते हैं। तकनीकी शिक्षा प्राप्त युवाओं में से भी 0.4 फीसदी ऐसे व्यवसायों में लगे हुए थे, जो उनकी योग्यता के अनुरूप नहीं थे। हालांकि समग्र रूप से शिक्षा प्राप्ति में बढ़ोतरी हुई है, जिससे नौकरी की मांग रही है, जो (उच्च शिक्षित और कम शिक्षित युवाओं) में रोजगार दर को कम कर रही है और बेरोजगारी दर बढ़ा रही है। इसके चलते उच्च शिक्षित युवा भी कम कौशल वाले ब्ल्यू-कॉलर जॉब अपनाने लगते हैं।

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‘एक और चिंतनीय विषय है कि तमाम उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद उच्च शिक्षा प्राप्ति का स्तर अब भी निम्न बना हुआ है और गुणवत्ता चिंता का विषय है। गरीब राज्यों एवं हाशिये के समूहों में मध्य एवं माध्यमिक स्तर की शिक्षा के बाद ड्रॉप-आउट (स्कूल छोड़ने) की दर उच्च है। शिक्षा की गुणवत्ता लगातार चिंता का विषय है। स्कूली स्तर पर और सामान्य रूप से भी सीखने के स्तर में कमी आई है और उच्च शिक्षा संस्थानों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता खराब है। हम ऐसी स्थिति को जारी नहीं रहने दे सकते। रिपोर्ट बताती है कि योग्यताओं, आकांक्षाओं और नौकरियों के बीच विस्फोटक अंतर असंतोष बढ़ा रहा है। हालांकि ऐसे मामले अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों में आम रहे हैं, लेकिन अब आर्थिक रूप से ज्यादा गतिशील राज्यों में भी ऐसे मामले सामने आ रहे हैं। इसलिए अब सुदूर अतीत और सुदूर भविष्य पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय वर्तमान पर ध्यान देने का समय आ गया है।

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गौर हो कि प्रदेश सरकार शिक्षा व्यवस्था को बेहतर करने की बात तो करती है, लेकिन जमीनी हकीकत ठीक उलट दिखाई दे रहे है सरकार द्वारा घोषित नई शिक्षा नीति की उपयोगिता एवं प्रासंगिकता धीरे-धीरे सामने आने लगी है एवं उसके उद्देश्यों की परतें खुलने लगी हैआखिरकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति की शुरुआत करते हुए अगस्त तक डिजिटल यूनिवर्सिटी के शुरू होने और विदेशों के ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज और येल जैसे उच्च स्तरीय लगभग पांच सौ श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थानों के भारत में कैंपस खुलने शुरू हो जायेंगे। अब भारत के छात्रों को विश्वस्तरीय शिक्षा स्वदेश में ही मिलेगी और यह कम खर्चीली एवं सुविधाजनक होगी। इसका एक लाभ होगा कि कुछ सालों में भारतीय शिक्षा एवं उसके उच्च मूल्य मानक विश्वव्यापी होंगे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की यह अनूठी एवं दूरगामी सोच से जुड़ी सराहनीय पहल है। यह शिक्षा के क्षेत्र में नई संभावनाओं का अभ्युदय है। भारत में दम तोड़ रही उच्च शिक्षा को इससे नई ऊर्जा मिलेगी। बुझा दीया जले दीये के करीब आ जाये तो जले दीये की रोशनी कभी भी छलांग लगा सकती है। खुद को विश्वगुरु बताने वाले भारत का एक भी विश्वविद्यालय दुनिया के 100 विश्वविद्यालयों में शामिल नहीं है।

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भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी), बेंगलुरु ने 155वां वैश्विक रैंक हासिल किया है जो पिछले साल 186वें स्थान से ऊपर है और भारतीय संस्थानों में पहले स्थान पर है। आईआईएससी बेंगलुरु साइटेशन पर फैकल्टी इंडिकेटर में विश्व स्तर पर शीर्ष संस्थानों में भी उभरा है। यह संस्थानों द्वारा उत्पादित अनुसंधान के वैश्विक प्रभाव को इंगित करता है। शीर्ष 200 में अन्य दो स्थानों पर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) बॉम्बे और आईआईटी दिल्ली वैश्विक 172वें और 174वें स्थान पर हैं। विशेष रूप से, आईआईटी बॉम्बे और आईआईटी दिल्ली दोनों ने पिछले साल से आईआईटी बॉम्बे को 177वें और आईआईटी दिल्ली को पिछले साल 185वें स्थान से अपग्रेड किया। इससे पता चलता है कि शीर्ष 300 वैश्विक विश्वविद्यालयों/संस्थानों में छह भारतीय संस्थान अपनी पहचान बना सकते हैं। इन त्रासद उच्च स्तरीय शिक्षा के परिदृश्यों में बदलाव लाने लाते हुए यह देखना है कि गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा में हम कैसे सम्मानजनक स्थान बनायें।

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भारत में उच्च शिक्षा की इस दयनीय स्थिति के कारण ही वर्ष 2017 से 2022 के दौरान 30 लाख से अधिक भारतीय छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए थे। अकेले वर्ष 2022 में ही 7.5 लाख भारतीयों ने विदेश जाने का अपना उद्देश्य अध्ययन करना बताया था। एक बात साफ है कि विश्व स्तरीय रैंकिंग में भारतीय उच्च शिक्षण संस्थाओं का काफी नीचे के पायदान पर होना भी इसकी एक महत्त्वपूर्ण वजह है। भारत की रैंकिंग में टॉप टेन पर रहने वाली उच्च शिक्षण संस्थाएं जब वैश्विक रैंकिंग में शीर्ष सौ की सूची में भी नहीं आएं तो चिंता होनी चाहिए। यह चिंता इसलिए भी क्योंकि लगातार ये सवाल उठते रहे हैं कि क्या हमारे उच्च शिक्षण संस्थान इनमें पढ़ने वालों को जीवन दृष्टि देने और बेहतर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में सफल हो रहे हैं? युवा पीढ़ी को हमारे देश में अध्ययन की वह गुणवत्ता क्यों नहीं मिले जिसे पाने के लिए वह विदेश जाने को आतुर रहती है। जाहिर है, इसके लिए हमें वैश्विक रैंकिंग में सम्मानजनक जगह बनाने वाली शिक्षण संस्थाओं को तैयार करना होगा। वास्तविकता यह भी है कि उच्च शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री देना ही नहीं है बल्कि चिंतन, मनन और शोध की नई धारा को प्रवाहित करना एवं गुणवान नागरिकों का निर्माण करना भी इस उद्देश्य में शामिल है।

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नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2035 तक स्कूल में दाखिला लेने वाले पचास फीसदी छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षा का मार्ग भी चुनेंगे। ऐसे में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की उच्च शिक्षण संस्थाओं को वैश्विक मुकाबले में आने योग्य बनाना होगा। यह चुनौती इसलिये भी बड़ी है कि हमने विदेशी विश्वविद्यालयों के लिये भी भारत के दरवाजे खोल दिये हैं। इसलिए भारत के उच्च-शिक्षण संस्थानों के लिये यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वे संख्यात्मक नहीं, बल्कि गुणात्मक दृष्टिकोण लिए हों। वैसे ही उच्च शिक्षा भटकी हुई प्रतीक होती है, हमारा मूल उद्देश्य ही कहीं भटकाव एवं गुमराह का शिकार न हो जाये। आज देश में बहुत चमचमाते एवं भव्यतम विश्वविद्यालय परिसरों की बाढ़ आ गई है। ये निजी विश्वविद्यालयों के परिसर हैं जिनकी इमारतें शानो-शौकत का नमूना लगती हैं, लेकिन ज्यादातर विश्वविद्यालय छात्रों से भारी फीस वसूलने एवं शिक्षा के व्यावसायिक होने का उदाहरण बन रहे हैं, जो शिक्षकों को कम पैसे देने, पढ़ाई का ज्यादा दिखावा करने, राजनीतिक एवं साम्प्रदायिक विष पैदा करने एवं हिंसा- अराजकता के केन्द्र बने हुए हैं।

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आजादी के अमृत काल में जब चहूं ओर से अनेक गौरवान्वित करने वाली खबरें आती हैं, वहीं कभी-कभी कुछ निराश करने वाली खबरें भी आत्म-मूल्यांकन को प्रेरित करती हैं। ऐसी ही एक खबर भारत की उच्च-शिक्षा को लेकर है। हमारे देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में संख्यात्मक दृष्टि से काफी तरक्की हुई है लेकिन बात गुणात्मक दृष्टि की करते हैं तो निराशा ही हाथ लगती है। नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआइआरएफ) 2023 की ओवरऑल रैंकिंग सूची को देखकर भी ऐसा ही लगता है। एक बड़ा सवाल है कि हम गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा की सूची में क्यों नहीं अव्वल आ पा रहे हैं। यह सवाल सत्ता के शीर्ष नेतृत्व को आत्ममंथन करने का अवसर दे रहा है, वहीं शिक्षा-निर्माताओं को भी सोचना होगा कि कहां उच्च-शिक्षा के क्षेत्र में त्रुटि हो रही है कि हम लगातार गुणवत्ता पूर्ण उच्च शिक्षा की सूची में सम्मानजनक स्थान नहीं बना पा रहे हैं।

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