खडि़या का भंडार होने के बावजूद भी नहीं रुका पलायन (Migration) - Mukhyadhara

खडि़या का भंडार होने के बावजूद भी नहीं रुका पलायन (Migration)

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खडि़या का भंडार होने के बावजूद भी नहीं रुका पलायन (Migration)

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड के बागेश्वर जिले को प्रकृति ने बहुत कुछ दिया है। खडि़या यहां भरपूर मात्रा में निकलता है। लेकिन अभी तक इससे संबंधित कोई भी बड़ा उद्योग जिले में नहीं लग सका है।अलबत्ता औद्योगिक इकाई स्थापित करने में 40 प्रतिशत की छूट के बावजूद भी सिर्फ हरियाली छीनी जा रही है और आबाद गांव उजड़ रहे हैं। लेकिन अभी तक खड़िया से संबंधित कोई ठोस निर्णय लेने में जनप्रतिनिधि और शासन-प्रशासन कोई निर्णय नहीं ले सका है औद्योगिकी नीति के तहत ए श्रेणी के बागेश्वर जिले में फैक्ट्री लगाने पर लागत में 40 प्रतिशत की छूट की व्यवस्था के बावजूद बड़े उद्योगपति यहां इंडस्ट्री स्थापित करने से कतरा रहे हैं। उद्योगपति नमी का बहाना बनाकर खड़िया से संबंधित उद्योग लगाने के लिए पहाड़ से दूरी बना रहे हैं। यही कारण है कि उद्योग में पिछड़े जिलों के लिए अगल से नीति बनाने के बावजूद पिछले कई सालों में यहां एक भी उद्योग स्थापित नहीं हुआ।

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खड़िया की खदानों की प्रचुरता वाले बागेश्वर जिले में हर साल 150 से 200 करोड़ का कारोबार होता है। यहां से बड़ी मात्रा में खड़िया निकाल- कर मैदानी क्षेत्रों को भेजा जाता है। जिले में करीब 70 से अधिक खदानें हैं। इन खदानों से प्रतिवर्ष तीन लाख मैट्रिक टन से अधिक खड़िया निकाली जाती है। इस खड़िया को ट्रकों से सीधे मैदानी क्षेत्रों में भेज दिया जाता है। जहां से इसका पाउडर, क्रीम, टूथपेस्ट, डिटरजन, साबुन, समेत सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली फैक्ट्रियों और पेपर मिलों को सप्लाई किया जाता है। जिस पहाड़ की धरती का सीना चीरकर इतनी बड़ी मात्रा में सफेद सोना निकाला जा रहा है, वहां पर इससे संबंधित एक भी उद्योग लगाने के लिए आज तक कोई पहल नहीं हो सकी है। यहां तक की सूक्ष्म लघु एवं मध्यम विकास नीति 2015 के तहत बागेश्वर जिले को ए श्रेणी में शामिल करने के बाद भी उद्योगपतियों ने कोई रूचि नहीं दिखाई है जबकि इस नीति के तहत सूक्ष्म उद्योग में 50 लाख, लघु उद्योग में 50 लाख से पांच करोड़ रुपये और मध्यम में पांच करोड़ से दस करोड रुपये तक का कारोबार हो सकता है।

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स्थानीय निवासी ने कहा कि खड़िया से संबंधित कई फाइलें शासन में लटकी हुई हैं। जिससे खड़िया का दोहन करने वाले पट्टाधारक भी परेशान हैं। यदि सरकार की खड़िया को लेकर स्पष्ट नीति बने तो जिले का विकास होगा और गांवों से हो रहा पलायन भी रुकेगा। स्थानीय लोगों को उद्योग धंधों में रोजगार मिलेगा और जिला आत्मनिर्भर बनेगा। बागेश्वर जनपद पिछड़ा हुआ जनपद है या उपेक्षित इस पर बहस होनी चाहिए। जब बहस पिछड़े और उपेक्षित शब्दों के बीच होगी तो निश्चित रूप में खनन उद्योग के क्षेत्र में बागेश्वर जनपद किसी भी मोड़ से पिछड़ा जनपद नहीं लगेगा। बागेश्वर जनपद में हाल फिलहाल शॉप स्टोन जिसे खड़िया कहा जाता है।  उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा के लिहाज से बागेश्वर बेहद संवेदनशील जिला है।

बीते सालों में यहां भूस्खलन और ग्लेशियर खिसकने की घटनाएं बढ़ी हैं लेकिन इनसे सबक लेने की बजाय सरकारी खजाना भरने के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। साथ ही झूठी जानकारी देकर खड़िया खनन का कारोबार किया जा रहा है। खनन से निकले मलबे से जहां उपजाऊ खेत बर्बाद होते जा रहे हैं वहीं रास्ते भी प्रभावित हो गए हैं। इस तरह के खनन को रोकने की कई बार मांग कर दी गई है,
लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही है।आपदा व आंदोलनों ने अपना इतिहास रचा है। यदि सरकार ने खान मंजूरकी तो एक और आंदोलन खड़ा किया जाएगा। सरकार व विधायक को चाहिए कि वह ग्रामीणों की भावनाओं को समझे।

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ग्रामीणों के अनुसार जिन व्यवसायियों ने खनन के लिए आवेदन किया है वे कई सालों पहले कपकोट छोड़ चुके हैं। ऐसे लोग बागेश्वर, हल्द्वानी, देहरादून आदि स्थानों में होटल, ठेकेदारी आदि के व्यवसाय कर रहे हैं। अब वे पहाड़ खोदने की तैयारी कर रहे हैं। खदानों से खड़िया पत्थर निकालने के बाद शेष बचने वाला अवशेष किसी न किसी रूप में पुंगर नदी में समा रहा है। नदियों, गधेरों बर्षाती रौलों में पहुंच रहे खदानों के
मलुवे की वजह से नदी की प्राकृतिक अवस्था पूरी तरह से बर्बाद हो चुकी है। इस खतरनाक स्थिति की ओर विधाइका, कार्यपलिका न्यायपालिका ने ध्यान देना जरूरी नहीं इसमझा है । बागेश्वर में जो खड़िया की खदानें हैं उन खदानों के स्वामियों का लक्ष्य कम से कम समय में अधिक से अधिक दोहन करने का है। अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए खनन स्वामियों द्वारा बड़ी-बड़ी मशीनों का उपयोग भी किया जा रहा है।

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ग्रामीण बताते हैं कि मशीनों से खड़िया पत्थर की खुदाई का काम होता है लेकिन प्रशासन के लोग अपना बचाव करते हैं कि मशीनों से मालवे को ही हटाया जाता है। इससे अच्छा खासा राजस्व सरकार को मिल रहा है। हालांकि, पर्यावरण की नजरिए से नाजुक और भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील पहाड़ी क्षेत्र में खनन ने कई सवाल खड़े किए हैं। सरकार का दावा है कि सभी मानदंडों का कड़ाई से पालन किया जा रहा है और खनन पर अच्छी तरह से नजर रखी जा रही है, लेकिन स्थानीय लोग इससे असहमत नज़र आ रहें हैं।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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