राज्य गठन में भूमिका के बाद भी उत्तराखंड में नहीं पनप सकी क्षेत्रीय ताकत
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
देश की देवभूमि, पहाड़ी राज्य उत्तराखंडकभी उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था। लेकिन अलग मुद्दे अलग समस्याओं ने समय-समय पर इसके अलग राज्य बनाने अलग समस्याओं ने समय-समय पर इसके अलग राज्य बनाने की मांग को उठाया। मांग दशकों पुरानी थी लेकिन ये संघर्ष काफी मुश्किल। किसी भी राज्य का बंटवारा कर देना विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखंड में खासकर पहाड़ी क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसती जनता की जब सारी उम्मीदें टूट जाती हैं तो उन्हें अपना मतदान करना भी व्यर्थ सा लगता है। यही वजह है कि जनता की जब सुनवाई नहीं होती है तो वो अपना पूरा गुस्सा मतदान के दौरान निकालती है। ऐसा ही उत्तराखंड में पिछले कुछ चुनाव में देखने को मिला है। जहां खिन्न आकर जनता ने नोटा का बटन दबाया है। इसके अलावा चुनाव बहिष्कार भी बड़ी चुनौती है। इतना ही नहीं वोट प्रतिशत में
गिरावट आ रही है।
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देश के कई राज्यों में क्षेत्रीय दल सत्ता में हैं। कई राज्यों में सत्ता में रहे हैं, लेकिन उत्तराखंड में क्षेत्रीय ताकत के रूप में पहचान रखने वाला उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) हाशिये पर है। वह भी तब, जबकि अलग राज्य आंदोलन में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन राज्य गठन के बाद उसके खाते में इसका श्रेय आया ही नहीं। अब स्थिति यह है कि दल अपेक्षित मत प्रतिशत नहीं मिलने के कारण अपना चुनाव निशान कुर्सी भी गंवा बैठा है। अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय 25 जुलाई, 1979 को अस्तित्व में आया और उसने अलग राज्य निर्माण आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। राज्य गठन के बाद शुरुआत में कम ही सही, प्रदेश की जनता ने इसे समर्थन दिया। 2002 के पहले
विधानसभा चुनाव में दल ने चार सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन इसके बाद यह धरातल पर अपनी पकड़ गंवाता रहा।2002 में जहां उसका मत प्रतिशत 5.5 प्रतिशत था, जोकि 2022 में घटकर1.1 प्रतिशत पर आ गया है। 2007 में उक्रांद ने विधानसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा को समर्थन दिया और सरकार में शामिल हो गया। तब दल के वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री बने।
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2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ा दल बना तो उक्रांद उसके साथ हो लिया और फिर सरकार का हिस्सा बन गया। कांग्रेस को समर्थन देकर प्रीतम पंवार ने मंत्री पद संभाला। इन परिस्थितियों में दल को मजबूत करने के स्थान पर नेताओं ने व्यक्तिगत हितों को तरजीह दी। नतीजतन, राजनीतिक अनुभवहीनता और शीर्ष नेतृत्व की महत्वाकांक्षाओं ने एक बड़ी क्षेत्रीय ताकत को रसातल में धकेल दिया। इसके बाद दल कई धड़ों में बंट गया।लंबे इंतजार के बाद दल के शीर्ष नेताओं ने 2017 में सुलह करते हुए विभिन्न गुटों में एका बनाने में सफलता पाई,
लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इसी वर्ष हुए विधानसभा चुनाव में परिसंपत्तियों का बंटवारा,स्थायी राजधानी गैरसैंण का सवाल, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार समेत राज्य से जुड़े मुद्दों को लेकर दल जनता के बीच गया, लेकिन जनता ने इन्हें सिरे से नकार दिया।
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उक्रांद को मात्र 0.7 प्रतिशत मत ही मिल पाए। जहां तक राज्य गठन के बाद हुए पिछले चार लोकसभा चुनाव में उक्रांद के प्रदर्शन का सवाल है, तो वह अत्यंत कमजोर रहा। 2004 में हुए चुनाव में पार्टी ने चार सीटों पर प्रत्याशी उतारे और उसे 1.6 प्रतिशत वोट मिले। 2009 के चुनाव में पार्टी ने पांचों सीटों पर प्रत्याशी उतारे, पर मत प्रतिशत और कम हो गया। इस चुनाव में कुल 1.2 प्रतिशत मत ही मिल पाए। 2014 के चुनाव के समय दल बिखर चुका था, ऐसे में निर्दलीय के रूप में तीन प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे, लेकिन उन्हें कुल 0.15 प्रतिशत मत मिले।2019 में उक्रांद ने चार सीटों पर अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे और उसके हिस्से महज 0.2 प्रतिशत मत ही आए। अब एक बार फिर उक्रांद सभी पांच सीटों पर प्रत्याशी उतरने की तैयारी कर रहा है, लेकिन उसके पास कोई कद्दावर नाम ही नहीं है।
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उत्तराखंड शहीदों और आंदोलनकारियों के सपनों का राज्य नहीं बन सका। अब मोदी का विराट विजन ही इन सपनों को साकार करेगा।’ यूकेडी के बिखराव के लिए वे कुछ नेताओं के व्यक्तिगत अहम और स्वार्थों को जिम्मेदार ठहराते हैं। उत्तराखंड से बाहर देखें तो जहां भी क्षेत्रीय दल ताकत बनकर उभरे हैं वो क्षेत्रीय आकांक्षाओं के साथ-साथ किसी एक नेता या समुदाय के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं। पंजाब के अकाली दल, झारखंड के झाझुमो और तमिलनाडु की द्रविड पार्टियां की तरह स्थानीय मुद्दों और क्षेत्रीय अस्मिता को लेकर आगे बढ़ने की भारतीय राजनीति में पर्याप्त गुंजाइश है। लेकिन राज्य आंदोलन से जुड़ाव के बावजूद यूकेडी स्थापित क्षेत्रीय दलों की तरह व्यवहार नहीं कर पाई। ना ही क्षेत्रीयता से जुडी अपनी पहचान को भुना पाई। बल्कि यूकेडी का हाल देखकर तो उत्तराखंड में क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता और संभावना पर ही सवाल उठने लगे हैं। संगठन के अभाव में न तो दल को अच्छे उम्मीदवार मिलते हैं, न चुनाव के दौरान प्रचार के लिए लोग मिल पाते हैं और यहां तक कि मतदान के दिन बूथों पर भी दल के बस्ते लगाने के लिए कार्यकर्ता नहीं होते।
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इन हालातों में कोई क्षेत्रीय दल मजबूत कैसे हो सकता है, कैसे भाजपा-कांग्रेस जैसे दलों का मुकाबला करने की स्थिति में आ सकता है। यहां हमने क्षेत्रीय दल के नाम पर सिर्फ उक्रांद का ही उदाहरण दिया है। क्योंकि उक्रांद कभी मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय दल रहा है। हालांकि राज्य में बहुत सारे क्षेत्रीय दल हैं, लेकिन यह हैसियत किसी की नहीं रही है। उक्रांद का सिमटना इस राज्य में क्षेत्रीय ताकतों के सिमटने का प्रतीक है।अगली कड़ी में क्षेत्रीय ताकतों के समाप्त होने से राज्य को क्या खामियाजा उठाना पड़ेगा? इस पर अपनी बात रखेंगे।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )