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…जब संगीनों के साए में 1959 में डोली में बैठी थी ब्योली “फूलदेई शाह” (Fooldeyi shah), पढें ये ऐतिहासिक रिपोर्ट

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जगदीश ग्रामीण/मुख्यधारा

पटवारी का पहरा था। सैकड़ों की संख्या में हथियारबंद पुलिसकर्मी दूल्हा-दुल्हन और बारातियों की सुरक्षा में चल रहे थे। हजारों की संख्या में भीड़ से तर्क-वितर्क, बहस और यहां तक कि हाथापाई की भी नौबत आ रही थी।

दूल्हा दीपचंद शाह और दुल्हन फूलदेई (Fooldeyi shah) का जीवन भी एक बार तो संकट में पड़ गया था। इंद्रधनुषी समाज का एक मटमैला रंग भी दिखाई दे रहा था। वह दौर कुछ और था। आज का दौर कुछ और है। 62 वर्ष पूर्व की इस अनोखी, अवर्णनीय शादी की सच्ची कहानी आज भी हर जुबां पर है।

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बात टिहरी रियासत के ग्यारह गांव हिंदाव पट्टी क्षेत्र की है। देश आजाद हो गया थ, लेकिन गुलामी की मानसिकता को समाप्त होने में लंबा वक्त लगता है। 1959 में “ढुंग गांव” से गुमान शाह के शिक्षित पुत्र दीपचंद शाह की बारात पालकी में सवार होकर “पंगरियाणा गांव” के मंतू शाह के घर के लिए निकली। यह 13 जनवरी 1959 की बात है। उस जमाने पूरे विधि विधान से विवाह संस्कार संपन्न होता था। उस समय पहाड़ों पर वाहन की कोई सुविधा नहीं थी। सड़क मार्ग की सुविधा नहीं थी, इसलिए 2 दिन की शादी होती थी।

यूं तो दूल्हे के घर से दुल्हन के घर की दूरी मात्र 12 किलोमीटर थी। हालांकि पगडंडियों का रास्ता था। उस समय समाज के एक वर्ग का डोला पालकी में चलना प्रतिबंधित था। समाज के संपन्न वर्ग का इस शादी पर भी पहरा था। समाज के दबंग लोगों की शह पर दूसरे दिन अंथवाल गांव के पंडित विवाह संस्कार संपन्न कराने नहीं पहुंचे। 14 जनवरी को किसी तरह विवाह संस्कार संपन्न होने के पश्चात जब दुल्हन को डोली में बैठाया गया और दूल्हे को घोड़े पर बैठाकर बारात वापस आने लगी तो झूठी शान के शहंशाहों को यह बात हजम नहीं हुई और विवाद बढ़ने लगा। बारात थोड़ी दूरी पर रोक दी गई। बारातियों ने वहीं तंबू गाड़ दिया। कीर्तिनगर पुलिस को सूचना दे दी गई और यह प्रायोजित नाटक 20 दिन तक चलता रहा। बहुत सारी बैठकों, सलाह-मशविरा और किंतु-परंतु के साथ वर एवं बारात दुल्हन को लेकर 21 वें दिन 3 फरवरी 1959 को ढुंग गांव पहुंची।

उस जमाने की यह पहली शादी थी, जिसमें अनुसूचित समाज की डोला-पालकी में बारात निकली थी। 14 वर्षीय दुल्हन फूलदेई(Fooldeyi shah) ने सामने उपस्थित संकट से समझौता नहीं किया। वह देवी दुर्गा की तरह शक्ति स्वरूपा बनकर सामने आई और डोली में बैठकर ही ससुराल पहुंची। इस 21 दिन के चुनौतीपूर्ण संघर्ष के सफर में हजारों की संख्या में लोग इस शादी के गवाह बने। दूर दराज से भी लोग उत्सुकता वश क्षेत्र में आए।

इस क्षेत्र में उस समय अनेकों शादियां आस-पास के गांव में भी हो रही थी। वहां के लोग भी दर्शक बनकर इस शादी में शरीक हुए। बताया जाता है कि उस समय इस क्षेत्र में 10,000 से अधिक लोग उपस्थित थे, जिन्होंने इस ऐतिहासिक शादी को करीब से देखा।

विवाह तो किसी प्रकार संपन्न हो गया, लेकिन दीपचंद शाह को लगातार तथाकथित संपन्न समाज से चुनौतियां मिलती रही। मुकदमे चलते रहे। कई सालों तक उन्होंने मुकदमा झेला। बाल विवाह का भी मुकदमा दर्ज किया गया था। बाद में जमीन संबंधी विवादों में भी उन्हें परेशान किया गया। यद्यपि वर-वधू पक्ष की ओर से भी इस विवाह में विघ्न डालने वाले 700 लोगों के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज कराया गया था।

दीपचंद शाह शादी के बाद अपनी पढ़ाई के लिए देहरादून आए। उसके पश्चात शिक्षक बने, फिर शिक्षक की नौकरी छोड़कर नियम कानूनों का अध्ययन किया और फिर पटवारी बने। इस बीच वह अपने मुकदमे भी लड़ते रहे। दीपचंद शाह जी बाद में नायब तहसीलदार पद से सेवानिवृत्त हुए।

“युगवाणी” पत्रिका में “फूलदेई का डोला” शीर्षक से प्रसिद्ध पत्रकार “कुंवर प्रसून” ने इस विवाह के बारे में पूरी जानकारी तथ्यात्मक रूप से उपलब्ध कराई थी।

ऐसी वीरांगना मातृशक्ति से मिलने का मन था। होलिका दहन का सुंदर दिन था। फूलदेई शाह से राजधानी में कल मिलना हुआ। जब उनके संघर्ष को सुना तो मन प्रफुल्लित हो गया कि वास्तव में हमारे समाज में मिथकों को तोड़ने वाली, रूढ़ियों पर प्रहार करने वाली और समाज में अपना स्थान स्वयं बनाने वाली फूलदेई शाह 79 वर्ष की आयु में आज भी “बेटी ब्वारियों” के लिए पथ प्रदर्शक हैं, प्रेरणा स्रोत हैं, हमारे इतिहास का वो पन्ना हैं, जो पीढ़ियों तक पढ़ा जाता रहेगा।

शालीनता की प्रतिमूर्ति फूलदेई शाह अपने में पूरा सामाजिक ताना-बाना संजोए हुए हैं। वे बताती हैं कि उन्होंने विवाह के पश्चात भी कठिन संघर्ष किया। खेती बाड़ी की, पशुपालन किया, अपने परिवार एवं बच्चों के लालन-पालन पर पूर्ण मनोयोग से सेवा भाव से परिश्रम किया।

फूलदेई शाह के परिश्रम का ही प्रतिफल है कि आज उनके चारों बेटे सम्मानजनक सरकारी सेवा में हैं। बहू भी नौकरी करती हैं। सबसे अच्छी बात तो यह है कि फूलदेई शाह के बेटे, बहू और बेटियां अपने माता-पिता के संघर्ष को हर कदम पर याद करते हैं। उनसे प्रेरणा पाते हैं और समाज को अपने परिश्रम, सेवा, सहयोग के बलबूते सुंदर एवं सुखद संदेश देते हैं।

फूलदेई शाह का अपने गांव, समाज के प्रति सम्मानजनक व्यवहार, आदर भाव व मित्रता का भाव हर शब्द, हर वाक्य में झलकता है। उनके व्यवहार में दिखता है, जबकि इस समाज ने उनके परिवार को बहुत प्रताड़ित किया। यही मातृशक्ति का वात्सल्य है। यही देवी दुर्गा का आशीष है कि कांटों के बदले भी फूलों की वर्षा फूलदेई कर रही हैं।

फूलदेई शाह(Fooldeyi shah) का समाज के लिए संदेश है कि समाज के निचले/ पिछले पायदान पर खड़े या पड़े व्यक्ति को अच्छी शिक्षा मिल जाए तो सारी समस्याओं का समाधान संभव है।

शोध करने वाले छात्रों के लिए फूलदेई शाह का जीवन, बल्कि यूं कहें कि संघर्षपूर्ण जीवन बहुत अच्छा विषय हो सकता है। साठ के दशक में समाज में जातिवाद की जड़ें कितनी गहरी थी, यह भी शोध का विषय हो सकता है। फूलदेई शाह व दीपचंद शाह का जीवन परिचय / जीवन संघर्ष उत्तराखंड के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए तो निश्चित तौर पर यह आज के युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत होने के साथ ही यह अनुसूचित जाति वर्ग के जीवन स्तर को मजबूत करने में भी सशक्तिकरण का काम कर सकता है। अपने जटिल संघर्षों के चलते आधुनिक समाज के लिए वीरांगना फूलदेई शाह प्रेरणास्रोत हैं। सुयोग्य पात्र होने के कारण फूलदेई शाह को तीलू रौतेली जैसी प्रतिष्ठित पुरस्कार की मांग भी की जाती रही है।

उत्तराखंड सरकार को भी चाहिए कि वीरांगना फूलदेई शाह(Fooldeyi shah) के संघर्ष का सम्मान किया जाए। आज की पीढी के लिए पहाड़ की माटी की उर्वरा शक्ति हैं फूलदेई शाह। पतझड़ में भी बासन्ती हवा के झोंके की सुगंध इस मातृशक्ति को बारंबार नमन, वंदन और अभिनंदन।

 

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