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उत्तराखंड के घी संक्रांति (Ghee Sankranti) जिसे ओलगिया त्यौहार के नाम से भी जाना जाता है

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उत्तराखंड के घी संक्रांति (Ghee Sankranti) जिसे ओलगिया त्यौहार के नाम से भी जाना जाता है

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उतराखण्ड पहले से ही एक कृषि प्रधान राज्य रहा है खेती बाड़ी पर ही यहाँ के गांव के लोगों की आजीविका भी होती है। उत्तराखंड अपनी निराली संस्कृति के लिए जाना जाता है। यहां के लोक जीवन के कई रंग और कई उत्सव हैं। ऐसा ही एक पारंपरिक उत्सव है घी संक्रांति। उत्तराखण्ड में घी संक्रान्ति पर्व को घ्यू संग्यान, घिया संग्यान और ओलगिया के नाम से भी जाना जाता है। पहाड़ में यह मान्यता व्याप्त है कि पुराने राजाओं के समय शिल्पी लोग अपने हाथों से बनी कलात्मक वस्तुओं को राजमहल में राजा के समक्ष प्रस्तुत किया करते थे।इन शिल्पियों को तब राजा-महराजों  से इस दिन पुरस्कार मिलता था।

कुमाऊं में चन्द शासकों के काल में भी यहां के किसानों व पशुपालकों द्वारा शासनाधिकारियों को विशेष भेंट “ओलग” दी जाती थी। गाँव के काश्तकार  लोग भी अपने खेतों में उगे फल, शाक-सब्जी, दूध-दही तथा अन्य खाद्य-पदार्थ आदि राज-दरबार में भेंट करते थे। यह ओलग की प्रथा कहलाती थी। अब भी यह त्यौहार कमोबेश इसी तरह मनाया जाता है। इसी कारणवश इस पर्व के दिन पुरोहित, रिश्तेदारी, परिचित लोगों तथा गांव व आस-पड़ोस में शाक सब्जी व घी दूध भेंट कर ओलग देने की रस्म पूरी की जाती है घी त्यौहार भी हरेले पर्व की भांति ऋतुपरिवर्तन का आगाज करने वाला त्यौहार है, जिस तरह हरेला फसलों के लिए बीज बोने और वर्षा ऋतू के आने का प्रतीक है। वही घी त्यारअंकुरित हो
चुकी फसल में बालिया आ जाने पर मनाये जाने वाला त्यौहार है।

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भादो महीने की संक्रांति को मनाए जाने वाला घी का त्यौहार इस साल 17 अगस्त को मनाया जाएगा। यों तो घी का यह त्यौहार समूचे प्रदेश में मनाया जाता है। कुमाऊं में इसे घ्यू त्यार कहा जाता है तो गढ़वाल मंडल में इसे घी संक्रात के नाम से जाना जाता है।शास्त्रों के अनुसार भगवान सूर्यदेव इस दिन 12 राशियो में से कर्क राशि को छोड़कर सिंह राशि में प्रवेश करते हैं। इसलिए इसलिए इसे सिंह संक्रांति के नाम से भी जाना जाता है।

कुमाऊं मंडल में मनाए जाने वाले घ्यू त्यार के दिन परिवार के सभी लोग कटोरी में घी पीते हैं, इसलिए इसे घ्यू त्यार कहा जाता है। कभी घी नहीं खाने वाला व्यक्ति को भी इस दिन घी खाना पड़ता है। कहावत है कि इस दिन जो व्यक्ति घी नहीं खाएगा तो वह अगले जन्म में गनेल (घोंघा) बन जाता है। यह कहावत पुराने समय से चली आ रही है। इसलिए इस दिन घी खाने का इंतजार सभी को रहता है। जिसके घर में घी नहीं होता वह पहले से ही पास पड़ोस से घी का इंतजाम करता है ताकि अपने परिवार को घी खिला सके। घी संक्रांति के दिन सुबह अपने ईष्ट देव को पिनालू के गाबे के साथ घर में बनाए गए पकवान चढ़ाए जाते हैं। इस त्यौहार में घी के साथ मासबेडु (उरद की दाल) की रोटी खाने का भी प्रचलन है। कुमाऊं मंडल में घ्यू त्यार से ही ओलगिया देने का रिवाज भी है। बहन-बेटिया अपने मायके वालों को भादो के महीने में ओलगिया भेंट करती है। ओलगिया में दही की ठेकी में हरी सब्जियां सब्जियां बांधकर और साथ में पकवान और पहाड़ी केले भेंट की जाती हैं। कहीं-कहीं परिवार के छोटे भाई भी अपने बड़े भाईयो को ओलगिया भेंट करते हैं। जो बड़े के प्रति एक सम्मान का सूचक है।

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यह त्यौहार जहां एक ओर रिश्तों को मजबूती देता है वहीं बड़ों के प्रति आदर और सम्मान का भाव भी बढ़ाता है। समय के साथ साथ रीति रिवाजों को मनाने की तरीकों में भी बदलाव आया है। लेकिन पहाड़ी गांवों में आज भी घ्यू का त्यौहार बड़ी धूम धाम के साथ मनाया जाता है। दरअसल  पुरातन सम्माज ने इन पर्वों के माध्यम से आम जनजीवन को खेती-बाड़ी की काश्तकारी व पशुपालन से सम्बद्ध उत्पादों  यथा शाक सब्जी, फल, फूल.अनाज  व धिनाली (दूध व उससे निर्मित पदार्थ,दही, मक्खन, घी आदि) को इन पर्वों से जोडने का नायाब प्रयास  किया है।

हमारे लोक ने इन विविध खाद्य पदार्थों में निहित पोषक तत्वों के महत्व की समझ को समाज में उन्नत रूप से विकसित  करने का जो अभिनव कार्य लोकपर्व घी संक्रांति यानी ओलगिया के माध्यम  प्रयास किया है वह वास्तव में विलक्षण है। यथार्त  में देखें तो इनके कुछ पक्ष वैज्ञानिक आधारों की  पुष्टि भी  कर रहे होते हैं। यह त्यौहार भी हरेला की तरह एक मौसमी त्यौहार है जो बीज बोने का त्यौहार है और बारिश के आगमन का प्रतीक है। वही “घी त्यार” अंकुरित फसल बोने के बाद मनाया जाने वाला त्यौहार है यह खेती और पशुपालन से जुड़ा एक ऐसा लोकपर्व है।

यही वह समय है जब बरसात के मौसम में उगाई जाने वाली फसलों में अंकुर आना शुरू हो जाते हैं।इसलिए किसान अच्छी फसल की कामना करके जश्न मनाते हैं। किसान अपने घर के मुख्य द्वार के ऊपर या दोनों ओर लगी फसल को गोबर से चिपका देते हैं। इसके अलावा स्थानीय फलों जैसे अखरोट आदि के फल भी तैयार किये जाने लगते हैं। पूर्वजों के अनुसार मान्यता है कि अखरोट का फल घीया उत्सव के बाद ही खाया जाता है। इसी वजह से घी त्यार तैयार किया जाता है।

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घी त्यार उत्तराखंड के किसी पुराने लोकगीत इत्यादि में नहीं मिलता है न ही इस दिन किसी प्रकार के अनुष्ठान या पूजा का कोई जिक्र है. इसे क्यों मनाया जाता है इस बारे में भी कोई ठोस प्रमाण अभी तक नहीं मिले हैं पारंपरिक लोकपर्व सांस्कृतिक विरासत का मजबूत आधार होते हैं। घी संक्रांति राज्य का प्रमुख लोकपर्व होने के साथ ही अच्छी फसलों तथा अच्छे स्वास्थ्य की कामना से जुड़ा पर्व भी है। हमारे पर्व हमें अपनी संस्कृति एवं प्रकृति से जुड़ने की प्रेरणा देते हैं। इन पर्वों की परंपरा से भावी पीढ़ी को जागरूक करना जिम्मेदारी है।

हमारे लोकपर्व और त्योहार हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं। इस तरह के कार्यक्रम पहाड़ी लोकपर्वों को सहेजकर रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। घी त्‍योहार के मौके पर विलुप्‍त होती लोकगीतों की परंपराओं को भी कायम रखने की कोशिश की जाती है। यही वजह है किस घी त्‍योहार के शुभ अवसर पर झोड़ा और चाचरी का भी गायन होता है। बहरहाल अब यह गीत खास मौकों पर ही सुनने को मिलता है। हालांकि आधुनिकता की चकाचैंध में पशुपालन व खेती की तरफ रूझान में कमी आई है, मगर पर्व की परंपरा कायम है। लेकिन जरूरत ये है कि आने वाली पीढ़ी अपने लोकपर्व से परिचित रहे, इसके लिए इस पर्व की परंपरा को कायम रखा जाना चाहिए। ताकि से लाभदायी संदेश देता रहे।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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