नीरज उत्तराखंडी
युवा पीढ़ी अज्ञानता वश “घुंडा गांव” को कहने लगी है “गुंडा गांव”
यह जनपद देहरादून के पर्वतीय जनजाति क्षेत्र जौनसार बावर की सीमांत तहसील त्यूनी मुख्यालय का ऐतिहासिक खेडा है “घुंडा गांव” है, जिसे अब युवा पीढ़ी अज्ञानतावश जानकारी के अभाव में “गुंडा गांव” कहने लगे हैं।
यह खेडा मूल रूप से राजनीति के नामचीन हस्ताक्षर प्रीतम सिंह चौहान के मूल गांव वृनाड का खेडा है। स्थानीय ग्रामीणों के अनुसार जहां कभी मूल रूप से दो परिवार ही निवास करते थे, लेकिन आज यहां सैकडों परिवार निवास करते हैं। अफसोस यह अभी भी राजस्व गांव नहीं बन पाया है।
लोकमत है कि इस गांव का नामकरण भीम के घुटनों के निशान की वजह से ही “घुंडा गांव” पडा। आज भी यहां एक खेत में भीम के घुटनों के निशान मौजूद है। “घुंडा” यानि घुटना। स्थानीय बोली घुटने को घुंडा कहते है। यही इस गांव के नामकरण की वजह बताई जा रही है।
यह बात अलग है कि आधुनिकीकरण की अंधी दौड में इस गांव का स्वरूप अब काफी बदल चुका है। गांव का शहरीकरण हो रहा है, हर तरफ सीमेंट और कंक्रीट के भवन खड़े होने से यह गांव अपना पौराणिक स्वरूप और महत्व खोता चला आ रहा है।
लोकमत है कि इस गांव का नाम “घुंडा गांव” पड़ने के पीछे इतिहास छिपा है। इस क्षेत्र का संबंध पांडव से जुडा है। आज भी यहां भीम के घुटनों के निशान हैं, जो इर्द-गिर्द भवन निर्माण होने से अपना प्राकृतिक स्वरूप खो चुके है। आज भी यहां एक खेत में भीम के घुटनों के निशान आंशिक रूप से देखे जा सकते हैं। स्थानीय ग्रामीण कहते हैं कि यहां एक गुफा भी है, जिसके द्वार को अब बंद कर दिया गया है।
टोंस नदी के बायें छोर पर बसे तहसील मुख्यालय से लगे इस गांव में एक खेत में भीम के घुटनों के निशान हैं तथा टोंस नदी के दूसरे किनारे एक विशाल पत्थर है कहा जाता है कि भीम ने इसे अपनी गुलेल से इसे फेंक कर नदी पार पहुँचाया है और अर्जुन ने अपने धनुष से एक बाण चलाया था, जिसके पहाड़ के बीच से गुजरने के सुराख को यहां से देखा जा सकता है। कहा जाता है कि यह बाण हिमाचल प्रदेश में निकलता है और आज भी वहां देखा जा सकता है, ऐसा स्थानीय लोगों का मानना है।
स्थानीय निवासी रमेश चन्द का कहना है कि जिस खेत में भीम के पैर का निशान है उस खेत की लम्बाई चौडाई 50 मीटर तथा पैर से घुटने के बीच की दूरी 48 मीटर तथा घुटने की गोलाई 30 मीटर है। उन्होंने कहा कि यहां पहले मूल रूप से दो परिवार ही निवास करते थे। भगत राम भोलूवाण तथा अर्जुन सिंह लोइचाल, लेकिन अब मूल रूप यहां निवास करने वाले लोगों के 9 परिवार हो गये हैं।शेष अन्य जगह से आकर बसे हैं। अफसोस है कि यह गांव राजस्व गांव नहीं बन पाया है।
बहरहाल, यह शोध और खोज का विषय है शोध के छात्रों के लिए और पुरातत्व विभाग के लिए, पौराणिक इतिहास को बचाने के लिए। ग्रामीणों को विश्वास में लेकर इस ऐतिहासिक धरोहर को संरक्षित कर एक धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है, जो स्थानीय ग्रामीणों के लिए रोजगार का एक जरिया भी बन सकता है। जरूरत है इसे सजाने संवारने, संजोने और धरोहर को संरक्षित करने की।