(Joshimath pain) : जोशीमठ का दर्द : “आज समूची मेरी छाती डोल रही है, मैं चूप हूँ मगर मुझमें पड़ी दरारें बोल रही हैं…”
जोशीमठ भू धंसाव की डरावनी तस्वीरों से यहां के वाशिंदे जितने ज्यादा खौफजदा हैं, उससे अधिक अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित भी हैं। आखिर उनके पुरखों की बेशकीमती जमीन अत्याधुनिक विकास की भेंट जो चढ़ गई है। यहां की पीड़ा को पत्रकार, लेखक, चिंतक, सामाजिक कार्यकर्ता, पर्यावरण व भू वैज्ञानिक अपने-अपने शब्दों में बयां कर रहे हैं, वहीं अल्मोड़ा जिले के धौलादेवी ब्लॉक के स्यूनी (खेती) गाँव के निवासी एवं वर्तमान में राजकीय पॉलिटेक्निक नैनीताल में तृतीय वर्ष के छात्र राकेश उप्रेती ने इस बेहतरीन कविता के माध्यम से जोशीमठ भू धंसाव की ‘दर्द-ए-दास्तां’ बयां की है।
आइए आप भी इस कविता को पढ़कर महसूस कीजिए जोशीमठ भूधंसाव की डरावनी तस्वीर को:-
- राकेश उप्रेती
… मैं देवभूमि का जोशीमठ हूँ,
आज चाहता हूँ बोलना, मगर विवश हूँ,
यूँ तो मैं चूप ही रहा सदियों से,
मगर आज गला भर आया है, कुछ कमियों से,
भले मैं चूप हूँ आज,
मगर मुझमें पडी़ दरारें बोल रही हैं,
घर, मकान चीख़ रहें
जमींदोज होती दीवारें बोल रहीं हैं,
मेरे शहरी बेघर हुए जा रहे हैं,
ये मैं नहीं बोल रहा, ढहती मीनारें बोल रही हैं,
आधुनिकीकरण के तराजू में
मेरी सांसें तोल रही हैं,
सरकार से जाकर पूछे कोई,
विकास के कौन से दरवाजे खोल रही है,
आज मैं नहीं बोल रहा हूँ,
मुझे खोखला करती दरारें बोल रही हैं।
आज से नहीं, बल्कि सदियों से,
मुझे धरती का स्वर्ग बताया जाता है,
मुझे पार करने के बाद ही,
बाबा बदरी को शीश नंवाया जाता है,
नृसिंह माता मेरे आंगन को सजाती है,
मेरे ही हेमकुंड में देवताओं को अर्ध्य चढाया जाता है,
आज समूची मेरी छाती डोल रही है,
मैं चूप हूँ मगर, मुझमे पड़ी दरारें बोल रही है,
नहीं चाहिए तुम्हारी पक्की सड़कें मुझे,
मेरे लिए मेरी दुर्गम पगडंडियाँ अनमोल रही हैं,
रंग बदलती फूलों की घाटी के रास्ते मुझसे जाते हैं,
कोने-कोने के सैलानी मुझमें सूकून पाते हैं,
मेरी अलकनंदा तुम्हारे जीवन में रस घोल रही हैं,
मैं चूप हूँ मगर, हिमवन की कोमल बौछारें बोल रही हैं,
मुझे बचालो कर लो मुझ पर उपकार,
मेरी जमीन फट रही है, दरक रहे हैं पहाड़,
मुझे निगल रहा है प्रतिपल होता भूधंसाव,
डर है तुम्हारी अनदेखी ना कर दे मुझे उजाड़,
ये तबाही मेरी संस्कृति और अस्मिता में जहर घोल रही है,
मैं चूप हूँ मगर, मुझमें पडी़ दरारें बोल रही हैं,
तुम्हारे ये बाँध ये सड़कें, ये विकास तुम्हीं रख लो,
मुझे तो बस मेरा वही पुराना स्वर्ग लौटा दो,
ये सोलर पैनल, ये माडर्न इलेक्ट्रिसिटी ले जाओ वापस,
मुझे मेरा वही पुराना, हिमाच्छादित अर्क़ लौटा दो,
तुम्हारी ये विष्णुगाड जल विद्युत सुरंग परियोजना
मेरा दम घोंट रही है,
मेरे बच्चे विस्थापन का दंश झेल रहे हैं,
उनकी करुण वेदना मेरी आत्मा को कचोट रही है,
मेरे बच्चे कहाँ जाएंगे,
जिनके लिए जान से बढ़कर माँ अनमोल रही है,
मैं जरूर चूप हूँ आज मगर,
मेरे बच्चों की पुकारें बोल रही हैं,
मुझे बचालो के मेरे बच्चों के आशीष को पाओगे,
मेरे बच्चों को कुछ हुआ तो, खुद भी अतीत हो जाओगे,
घर, मकान चीख़ रहे हैं,
जमींदोज होती दीवारें बोल रहीं हैं,
इंसान ही नहीं, बल्कि हर एक
प्राणी बोल रहा है…
मैं देवभूमि का जोशीमठ हूँ,
आज चाहता हूँ बोलना, मगर विवश हूँ,
यूँ तो मैं चूप ही रहा हूँ सदियों से,
मगर आज गला भर आया है, कुछ कमियों से,
भले मैं चूप हूँ आज,
मगर मुझमें पडी़ दरारें बोल रही हैं
आज समूची मेरी छाती डोल रही है,
मैं चूप हूँ मगर, मुझमे पड़ी दरारें बोल रही हैं,
मैं चूप हूँ मगर, मुझमे पड़ी दरारें बोल रही हैं।।
(उपरोक्त कविता के रचनाकार राकेश उप्रेती हैं। आप वर्तमान में राजकीय पॉलिटेक्निक नैनीताल में तृतीय वर्ष के छात्र हैं।राकेश अल्मोड़ा जिले के धौलादेवी ब्लॉक के स्यूनी (खेती) गाँव के रहने वाले हैं, जहाँ से पढ़ने के लिए वह नैनीताल आए हैं।)