माघ मेला और प्लास्टिक का कचरा निस्तारण
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
प्रकृति की अथाह खूबसूरती के बीच बसा, ऊंचे पहाड़ों, बुग्यालों, पौराणिक मंदिरों, गंगा-यमुना नदियों का उद्गम है उत्तरकाशी। हिमालय की ऊंची चोटियों के बीच बसा करीब साढ़े तीन लाख की आबादी वाला ये जिला आज अपने कचरे के पहाड़ को ढोने के लिए बेबस है। कचरे को निपटाने का जब कोई उपाय नहीं सूझता तो नदियों को ही कचरा ढोनेवाली गाड़ी बना दिया जाता है।आज के समय में उत्तरकाशी की सबसे बड़ी समस्या ये है कि शहर भर से जमा कूड़े का ढेर कहां डालें? कचरा निपटाने का कोई बंदोबस्त आज तक नहीं हो सका है। स्वच्छ भारत मिशन यहां महज एक नारा भर साबित हो रहा है।
उत्तरकाशी नगरपालिका पानी से लकदक तेखला गदेरे के पास कूड़ा डंप करती थी। कूड़ा गेदरे के पानी को मैला करता था और फिर बहकर सीधा भागीरथी नदी में मिल जाता था। भागीरथी ही आगे चलकर देवप्रयाग में अलकनंदा नदी के साथ मिलकर गंगा कहलाती है। हाईकोर्ट ने को तेखला गदेरे में कूड़ा डालने पर रोक लगा दी। इसके बाद जिला प्रशासन और नगर पालिका की मुश्किलें बढ़ गईं। नगर पालिका के पास अपनी कोई जमीन है नहीं। जिला प्रशासन ने फौरी तौर पर शहर के बीचों बीच बने रामलीला मैदान में कूड़ा डालने की जगह सुनिश्चित की। जब यहां कूड़े का पहाड़ बनने लगा और स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया तो तीस ट्रकों में कूड़ा भरकर रवाना किया गया।
स्थानीय अखबार ने एक दिसंबर को रिपोर्ट दी कि इन तीस ट्रकों में भरा कूड़ा सीधा भागीरथी में उड़ेल दिया गया। इसके बाद ज़िला प्रशासन के हाथ-पांव फूल गये। सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि तीस ट्रक कचरा भागीरथी में उड़ेला गया। बिना जिला प्रशासन को साथ लिए नगर पालिका इतनी बड़ी कार्रवाई नहीं कर सकता। वे कहते हैं कि जब यहां कचरा निस्तारण की कोई व्यवस्था है ही नहीं, तो कचरा जाएगा कहां। मजबूरन नगर पालिका की गाड़ियां नदियों के आसपास कचरा फेंक आती हैं।
कहते हैं कि नमामि गंगे प्रोजेक्ट के लिए कार्य कर रही कंपनियां गोमुख से कचरा उठाकर नगर पालिका को दे देती हैं। नगर पालिका कुछ समय तक इसे इकट्ठा रखती है और फिर नदियों के ईर्द-गिर्द उड़ेल देती है। नगर पालिका अध्यक्ष नमामि गंगे प्रोजेक्ट पर सवाल उठाते हैं। वे
बताते हैं कि उत्तरकाशी के सारे नाले सीधा गंगा में मिलते हैं। जब अपने मायके में ही गंगा इतनी मैली है तो आगे क्या हाल होगा। नमामि गंगे के तहत यहां एक भी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं बना। उनके मुताबिक जब प्रोजेक्ट के अधिकारियों से बात की जाती है तो वे पैसों की कमी का रोना रोते हैं और कहते हैं कि नमामि गंगे का सारा पैसा टेलिविज़न पर ऐड दिखाने में ही खर्च हो रहा है, उनके पास तो वेतन देने तक के पैसे नहीं हैं। उत्तरकाशी में नमामि गंगे का साठ फीसदी से अधिक काम बचा है। सीवर लाइनें और गंदे नालों की मरम्मत तक नहीं हुई। घाट नहीं बने। नमामि गंगे भी काग़ज़ी योजना बनकर रह गई है।
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देवभूमि का दावा करने वाला उत्तराखंड अभी अपने कचरे के पहाड़ को ढो रहा है, वो पहाड़ झरकर कुछ समय बाद नदियों में सारा कचरा
मिला देता है। राज्य में जब तक कचरा निस्तारण की व्यवस्था नहीं होगी, नदियां मुश्किल में रहेंगी। इस वर्ष माघ मेले के बाद जो रामलीला मैदान में देखा गया वो हैरान करने वाला है। आज प्लास्टिक प्रदूषण से जहां एक और पूरी दुनिया त्राहिमाम त्राहिमाम हो रही है। वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ ने सतत् विकास 17 सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स की बात करते हुऐ आज पूरी दुनिया में काम हो रहा है। लेकिन अगर हम यहां पर देखें तो धरातल पर इनकी कैसे धज्जियां उडती हैं। मेले के बाद यहां प्लास्टिक के कचरे का ढेर लगा हुआ दिखा।
मेला प्रबंधन समितियों द्वारा किसी भी प्रकार से माघ मेले से एकत्रित होने वाले कूडे का कोई भी निस्तारण करने की योजना नहीं दिखी। पूरा मैदान इस तरह के प्लास्टिक से अटा पड़ा हुआ है। हैरानगी की बात ये है कि गौ, गंगा के संरक्षण के ढोल पीटने वाले इस पर चुप्पी साधे रहते हैं। गौ माता रामलीला मैदान में प्लास्टिक को खा रही हैं। घोडे प्लास्टिक को खा रहे हैं। कुत्ते प्लास्टिक को उठाकर पूरे शहर में फैला रहे हैं।सबसे खतरनाक तो तब हो जाता है जब यही प्लास्टिक रात को उन दुकानदारों द्वारा आग सेकने के लिए जला दी जाती है और उनसे निकलने वाला कार्बनडाई ऑक्साइड धूं-धूं कर उत्तरकाशी शहर में जहर की तरह घुल जाती है।
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कभी अपनी जागरूकता के लिए पहचान रखने वाले उत्तरकाशी में जब मौत खुलकर अपना तमाशा कर रही हो और उसके खिलाफ कोई बोलने वाली एक आवाज भी न हो। जनता या लोग न चेते तो निश्चित रूप से इस शहर का बहुत अच्छा अविष्य नजर नहीं आता। आज वैसे ही हम एक छोटे से इस शहर का स्वरुप देखें तो इसमें उत्तरकाशी से ऊपर मनेरी झील, उत्तरकाशी से नीचे जोशियाडा झील बीच में एक सुरंग और उत्तरकाशी एक सेंसिटिव जोन है। उत्तरकाशी और आस-पास का क्षेत्र लगभग प्रत्येक साल कई प्राकृतिक आपदाओं को झेलता है, लेकिन हर प्राक्रतिक आपदा के बाद एक अनियोजित और अवैज्ञानिक विकास के कारण पूरे शहर का स्वरूप तहस-नहस होता दिखाई देता है। देवभूमि का दावा करने वाला उत्तराखंड अभी अपने कचरे के पहाड़ को ढो रहा है, वो पहाड़ झरकर कुछ समय बाद नदियों में सारा कचरा मिला देता है। राज्य में जब तक कचरा निस्तारण की व्यवस्था नहीं होगी, नदियां मुश्किल में रहेंगी।
सरकार को कचरा निस्तारण का कोई सुसंगत समाधान निकालना चाहिए न कि उन क्षेत्रों को फिर प्रदूषित कर देना चाहिए जो पहले से स्वच्छ इलाके माने जाते थे। ग्रामीणों की आय का एक बड़ा हिस्सा यदि इस प्रदूषण से उत्पन्न असाध्य रोगों की दवाई में चला गया तो गरीबी और बढ़ेगी। नदियों में बढ़ते प्रदूषण के कारण उसमें मछलियां पहले से ही कम होती जा रही हैं, यह नई समस्या उनके जीवन को और कठिन बना देगी। नदी और मानव बस्ती के बीच ऐसे प्लांट बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहे जा सकते हैं। इन्हें किन्हीं निर्जन स्थानों पर लगाया जाना चाहिए और उससे पहले पर्यावरणीय मानकों पर ठीक से सोच विचार करना चाहिए। लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)