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उत्तराखंड के शौर्य का प्रतीक है मंगशीर बग्वाल

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उत्तराखंड के शौर्य का प्रतीक है मंगशीर बग्वाल

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

देवभूमि से प्रसिद्ध उत्तरकाशी में संस्कृति और लोक परंपराओं को बचाने और उसके विकास एवं संवर्धन के लिए यह कार्य अनघा माउंटेन एसोसिएशन वर्ष 2007 से अनवरत करता आ रहा है।

इस क्रम में शौर्य के उत्सव मंगसीर की बग्वाल के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए स्थानीय लोगों को साथ लेकर अनघा माउंटेन एसोसिएशन ने 2007 से उत्तरकाशी शहर में सामूहिक बग्वाल मनाने की शुरुआत की थी। तब से इस मंगशीर बग्वाल को दो-दिवसीय उत्सव के रूप मनाया जाने लगा। वर्ष दर वर्ष के कार्यक्रम की व्यापकता, लोकप्रियता व स्थानीय संस्कृति के जुड़ाव के चलते अब यह उत्सव पांच दिवसीय उत्सव के रूप में उत्तरकाशी से लेकर मुंबई और नोएडा में भी मनाया जाने लगा है। इस मंगशीर बग्वाल कार्यक्रम के अंतर्गत् स्कूली छात्रों के लिए मंगशीर की बग्वाल और गढ़वाल के वीर भड़ों पर आधारित गढ़़वाली भाषण व निबंध प्रतियोगिता, गढ़वाली फैशन शो, रस्साकशी और मुर्गाझपट आदि कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। लोक परंपरा के अनुरूप गढ़़वाली व्यंजनों का स्टाल गढ़ भोज भी लगाया गया।इस उत्सव में शाम कण्डार देवता मंदिर बाड़ाहाट से रामलीला मैदान उत्तरकाशी तक जो सांस्कृतिक यात्रा निकाली जाती है। जो अत्यंत आकर्षक झांकियों से सजी होती है।

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इस सांस्कृतिक यात्रा में गढ़वाली संस्कृति के सभी रंग सड़कों पर देखने को मिलते हैं, जिसमें लोक परंपरा अनुसार थडि़या, चौफला, सारो नृत्य के साथ-साथ कुमाऊं के समृद्ध छोलिया नृत्य की छटा भी देखने को मिलती है।अनघा माउंटेन एसोसिएशन के संयोजक एवं उत्तरकाशी विश्वनाथ मंदिर के महंत अजय पुरी महाराज ने बताया कि इस मंगशीर बग्वाल के उत्सव का अपना अलग महत्व है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि मंगशीर की बग्वाल वीर सेनापति माधोसिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाली सेना की तिब्बत विजय का उत्सव है। वर्ष 1627-28 के बीच गढ़वाल नरेश महिपत शाह के शासनकाल में तिब्बती लुटेरे गढ़वाल की सीमाओं में घुसकर लूटपाट करते थे। तब राजा ने गढ़वाल रियासत के दीवान एवं सेनापति माधोसिंह भंडारी व लोदी रिखोला के नेतृत्व में चमोली के पैनखंडा और उत्तरकाशी के टकनोर क्षेत्र में सेना भेजी थी। सेना विजय करते हुए दावा घाट (तिब्बत) तक पहुंच गई थी। ऐसे में कार्तिक मास की बग्वाल के लिए माधोसिंह भंडारी घर नहीं पहुंच पाए, किंतु यह खबर श्रीनगर पहुंच चुकी थी कि गढ़वाली सेना ने तिब्बतियों पर विजय प्रप्त कर ली है।

राजा महीपत शाह नें घोषणा की थी कि जब सेनापति माधोसिंह भंडारी अपनी सेना के साथ श्रीनगर पहुचेंगे, उस दिन रियासत में बग्वाल (दीवाली) मनाईजाएगी। तभी से मंगसीर की बग्वाल मनाई जाती है। मंगसीर की बग्वाल मात्र बग्वाल नहीं हमारे वीर भड़ों के गौरवमय इतिहास का सम्मान करना एवं अपने इतिहास पुरुषों के प्रति श्रद्धांजलि भी है।सांस्कृतिक धरोहर हमारे गौरवशाली इतिहास को आज भी देश दुनिया के सामने हमारा मस्तक ऊंचा करके सम्मान दिला रही है। हमारे देश में अनेक त्योहार और उत्सव मनाये जाते हैं। पश्चिमी सभ्यता के आगमन के साथ कई तीज त्यौहार आज विलुप्त होने की कगार पर हैं। आज यदि हमारे तीज-त्यौहार बचेंगे तो हमारी संस्कृति और हमारा लोक संस्कृति और शौर्य से भरा गौरवमयी इतिहास भी बचेगा। उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में सम्पूर्ण जनपद उत्तरकाशी, रवाईं जौनपुर, देहरादून जौनसार क्षेत्र टिहरी के थाती, कठूड, बूढ़ा केदार आदि क्षेत्रों में मनाया जाता है।

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हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों मे भी मंगसीर बगवाल को मनाया जाता है। रवाईं क्षेत्र के बनाल व अन्य हिस्सों में जिसमें उत्तरकाशी जिले के धनारी फट्टी भण्डारस्यूं के गेंवला गांव इस बग्वाल को द्यूलांग के रूप में मनाया जाता है।मंगसीर बग्वाल तीन दिन का कार्यक्रम होता है। पहले दिन छोटी बग्वाल, दूसरे दिन बड़ी बग्वाल और तीसरे दिन बदराज का त्यौहार होता है।जिसे व्रततोड़ भी कहा जाता है। इसमें पहाड़ी क्षेत्रों की विशेष प्रकार की घास बाबैं का मोटा व मजबूत रस्सा बनाया जाता है जिसे ग्रामीण दो हिस्सों में बंटकर खींचते हैं। यह बहुत मजबूत घास होती है। ग्रामीण बड़े उत्साह के साथ इसे खींचते हैं।इस रस्सी को स्थानीय भाषा में व्रत भी कहते हैं।इस रस्सी को तोड़ने की प्रक्रिया को व्रततोड़ कहते हैं। इस व्रत की बाकायदा पंडित द्वारा पहले पूजा की जाती है।कई लोग इस मान्यता को समुद्रमन्थन की पौराणिक गाथा से भी जोडते हैं।

बग्वाल यानी दीप के इस उत्सव का गढ़वाल के लिए अलग ही महत्व है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि मंगसीर की बग्वाल गढ़वाली सेना की तिब्बत विजय का उत्सव है। इस बार यह उत्सव 27 व 28 नवंबर को मनाया जाएगा। उत्तरकाशी में इसके लिए खास तैयारियां की गई हैं। इस उत्सव को देखने के लिए प्रदेश भर के 150 स्कूली छात्र-छात्राओं के अलावा विदेशी पर्यटक भी आ रहेहैं।गंगोत्री तीर्थ क्षेत्र ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन शोध ग्रंथ के लेखक उमा रमण सेमवाल बताते हैं कि वर्ष 1627-28 के बीच गढ़वाल नरेश महिपत शाह के शासनकाल के दौरान तिब्बती लुटेरे गढ़वाल की सीमाओं के अंदर घुसकर लूटपाट करते थे। ढ़वाल में वह रिखोला लोदी के नाम से जाना गया। उसका पूरा नाम लोदी सिंह रिखोला नेगी था। पहले की जाति कुछ और रही होगी लेकिन गढ़वाल राजा से नेगीचारी मिलने से नेगी हुए। वह गढ़वाल रियासत के बदलपुर के बयेली / बयेला गांव में भौसिंह रिखोला नेगी के घर में जन्मा था। यहीं रिखणीखाल भी है। रिखोला का रिखणीखाल। उसके पिता भी भड़ (योद्धा) हुए। भड़ थे और थोकदार राजा मान साह ने 1605-1606 के दौरान भौ सिंह को सिरमौर के राजा को पराजित करने के लिए भेजा। क्योंकि सिरमौर की ओर से गढ़वाल रियासत के सीमा क्षेत्र जौनसार व रवांई की तरफ आक्रमण होते रहते थे।भौ सिंह रिखोला नेगी युद्ध जीत गया। लेकिन लौटते हुए धोखे से सिरमौर के राजा ने मरवा दिया। सिरमौर से बद्रीनाथ के जिस ध्वज और कैलापीर के नगाड़े को लेकर भौ सिंह लौट रहा था, वह फ़िर से सिरमौर का राजा छीन ले गया। पूर्व में तपोवन के युद्ध में यह ध्वज और नगाड़ा सिरमौर का राजा छीन ले गया था।रिखोला लोदी तब 16 साल का था। बाद के वर्षों में जब राजा महीपत साह ने गढ़वाल का शासन संभाला तब तक रिखोला की ख्याति काफी हो चुकी थी।भौ सिंह ने पहले ही अपनी पत्नी से वचन ले लिया था की युद्ध में उसके मारे जाने पर भी वह सती नहीं होगी और बालक रिखोला की देखभाल करेगी।

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गढ़वाली में एक पंवाड़ा लोकगीतहै –
”लाड करी प्यार तू रानी रिखोला माल को
तेरो रिखोला छ रानी अबि सोला साल को

1625 – 26 के दरमियान सेनापति रिखोला लोदी ने पहले दापा घाट तिब्बत का युद्ध जीता। इस युद्ध में राजा भी साथ गया था। वे संभवत नेलंग – जादुंग होते हुए दापा गढ़ तक पहुंचे थे। इसी रास्ते दापा के सरदार टकनौर, उत्तरकाशी पर आक्रमण करते रहते थे। युद्ध गढ़वाल ने जीत लिया। भीम सिंह बर्त्वाल और उनके भाई दापा के सरदार नियुक्त हुए।इसके बाद महीपत साह ने रिखोला को सिरमौर के राजा से बद्रीनाथ का ध्वज और कैलापीर का नगाड़ा जीतकर वापस लाने को भेजा। सेना लेकर रिखोला गया और शेरगढ़, काणीगढ़, कालसी और बैराटगढ़ से सिरमौर के राजा को खदेड़ दिया। बद्रीनाथ का ध्वज और कैलापीर का नगाड़ा भी छीन ले आया वैराटगढ की राजकुमारी मंगलाज्योति ने घोषणा की थी कि जो सिरमौर को जीतेगा उसी योद्धा से विवाह करेगी। तब रिखोला, मंगलाज्योति को ब्याह कर ले आया। उनके दो पुत्र हुए। भानू रिखोला और मोती रिखोला। इनके वंशज अब भी बदलपुर क्षेत्र के कुछ गांवों में रहते हैं।

लोक में मान्यता है कि तिब्बत युद्ध जीतने के बाद रिखोला के लौटने पर मंगसीर की दिवाली मनाई गई और उसे रिख बग्वाळ कहा गया। अर्थात रिखोला की बग्वाळ। हालांकि इसका संबंध सिरमौर के युद्ध से अधिक जान पड़ता है। क्योंकि तिब्बत के युद्ध में राजा स्वयं साथ था और वहां बर्त्वाल भाई जैसे योद्धा भी थे। जबकि सिरमौर का युद्ध मुख्य रूप से रिखोला के शौर्य से जुड़ा हुआ है।और आज भी मंगसीर की बग्वाल जौनसार, रवाईं और कैलापीर के क्षेत्र – बुढ़केदार में ही सबसे ज्यादा उत्साह से मनाई जाती है। अर्थात जिनका मान सम्मान सिरमौर युद्ध से सीधा जुड़ा हुआ था। कैलापीर का नगाड़ा आज भी प्रसिद्ध है। और बूढ़ा केदार में मौजूद है।रिखोला ने गढ़वाल रियासत की पश्चिम और दक्षिण की सीमाओं का निर्धारण भी किया। दिल्ली की मुगल सल्तनत के मल्लों को पराजित कर उसने “दिल्ली दर्जा” प्राप्त किया था। वह कोई भी युद्ध नहीं हारा। अपराजेय रहा।।लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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