पलायन उत्तराखंड की विकटतम समस्या
दीप चन्द्र पंत
यद्यपि पर्वतीय भूभाग की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए इस भूभाग को पृथक राज्य के रूप में गठित कर समस्याओं के निवारण हेतु पृथक राज्य गठन की मांग उठी तथा लोगों ने इसकी प्राप्ति हेतु संघर्ष और आंदोलन भी 1990 के दशक में किया था। जिस पर सम्यक विचारोपरांत वर्ष 2000 में पर्वतीय भूभाग को सटे हुए भाभर और तराई क्षेत्र को मिला कर पर्वतीय राज्य उत्तराखंड का गठन कर दिया गया।
उम्मीद तो तब इस भूभाग के निवासियों को बहुत रही होगी, पर सारे सपने हाथ में रखी रेत की तरह फिसलते गए। समस्याओं का समाधान तो नहीं हुआ पर स्थिति बद से बदतर जरूर होती गई। मूलभूत आवश्यकताओं के अभाव में लोगों ने न केवल गांवों को छोड़ना प्रारंभ किया। पहाड़ी कस्बों से भी लोग प्रदेश के मैदानी क्षेत्र अपितु अन्य राज्यों की ओर भी पलायन शुरू कर दिया है।
सिलसिलेवार हमने उन कारणों पर विचार करना चाहिए तथा समाधान करने का प्रयास भी करना चाहिए। जीवन की पहली आवश्यकता जीवन की सुरक्षा है, जो बुरी तरह प्रभावित हुई है। मानव वन्य जीव संघर्ष पूरे प्रदेश में काफी बढ़ गया है। कहीं तेंदुए का आतंक तो कहीं बंदर की धमाकों लगातार बढ रही है। मुनष्य का स्वभाव है कि वह स्वयं अपनी तथा अपने परिवार की सुरक्षा के प्रति एक संवेदनशील प्राणी है। संभवत: इस जीव की असुरक्षा भावना के कारण ही मकान, घर, परिवार, जाति, धर्म, भाषाई आधार पर प्रांत, देश, सुरक्षा परिषद आदि संस्थाओं का निर्माण उसके द्वारा किया गया। संभवत: पलायन के कारणों में उसका यह असुरक्षा भाव मुख्य है।
पृथक राज्य उत्तराखंड बनने पर उसका यह असुरक्षा भाव मिटाना शासन का उद्देश्य होना चाहिए, पर इस स्तर पर जो भी गंभीर प्रयास होने चाहिए थे, अभी तक दृष्टिगोचर नहीं हो पाए हैं और बेबस मुनष्य के पास पलायन के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है।
मूलभूत स्तरीय बुनियादी सुविधाओं का अभाव भी पलायन का प्रमुख कारण है। भोजन, शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार आदि वे बुनियादी जरूरतें हैं, जिनका अभाव उसे अपना स्थान छोड़ने को मजबूर कर रहा है। पहाड़ी ढलानों पर वैसे ही उत्पादन कम होता है तथा साधनों की सीमितता भी उसे सच को स्वीकार करने के अतिरिक्त और विकल्प भी नहीं देती। ऊपर से सुवर व अन्य शाकाहारी जीव जंगल में भोजन की आपूर्ति न होने पर उसके खेतों में मेहनत से उगाई फसल को चट कर जाते हैं। यह समस्या लगभग पूरे राज्यों में समान रूप से विद्यमान है तथा इसका समुचित निवारण ही उसे अपने स्थान पर रहने का जज्बा दे सकता है। संभवत: इस विषय में गंभीरता से सोचा ही नहीं गया।
शिक्षा धीरे-धीरे मुनष्य की वह बुनियादी जरूरत बनती जा रही है जो शरीर पालन के लिए जीविकोपार्जन का प्रमुख आधार बनती जा रही है। राज्य के पहाड़ी भूभाग में जीविकोपार्जन के श्रोत वैसे भी सीमित हैं। अत: बेहतर शिक्षा के बाद अपने और परिवार का पेट पालने के लिए शिक्षा तथा उसके बाद उसके आधार पर नौकरी या अन्य व्यवसाय उसकी मजबूरी बनाता जा रहा है।
हम अक्सर पाते हैं कि सुदूर पहाड़ी भूभाग में या तो स्कूल नहीं हैं या दुर्गमता के कारण या तो अध्यापक नहीं हैं या फिर तैनात होना ही नहीं चाहते हैं।
स्वास्थ मनुष्य की वह बुनियादी जरूरत है, जिसके आधार पर वह कोई भी काम कर सकता है तथा अपने और परिवार का पेट पाल सकता है। पहाड़ी भूभाग में चिकित्सा की पुरानी वैद्यकी पद्धति धीरे धीरे विलुप्त होती जा रही है। आग आदि कारणों से वनों की जैव विविधता समाप्त होने के कारण उपचार योग्य जड़ी बूटियों का अस्तित्व भी समाप्त होता जा रहा है। चिकित्सालय या तो हैं ही नहीं, या जर्जर हालत में है या समुचित सुविधा और चिकित्सक के बगैर हैं। गंभीर बीमारी की दशा में यदि उसे समुचित सुविधा तक पहुंचाना है तो साधनों की दुर्लभता भी ससमय समुचित उपचार मिलने से रोकती है। बाढ़ , भूक्षरण आदि के खतरे भी उसकी राह में बाधा बनते हैं। भूगर्भीय दृष्टि से कमजोर हिमालयी पहाड़ियों को जलेबीनुमा सड़कों से काटा जाना भी हिमालय की अस्थिरता और भूक्षरण का कारण बनता जा रहा है।
रोजगार के साधनों का अभाव भी पलायन का प्रमुख कारण बनता जा रहा है। इस दिशा में समुचित नीति जरूरी है। भूगर्भीय रूप से संवेदनशील क्षेत्र होने के कारण हमें इसके अनुरूप ही रोजगार के साधनों की दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए।
नैसर्गिक सुंदरता का यह प्रदेश धनी हैं तथा इसको राज्य की आय और लोगों के रोज़गार का जरिया बनाया जा सकता है। इस दिशा में सरकार व शासन-प्रशासन को अवश्य सोचना और प्रयास करना चाहिए। जब तक लोगों की समस्याओं का समाधान नहीं होगा, उन्हें जबरन नहीं रोका जा सकता है।
(लेखक भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं।)