सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे मुंशी हरी प्रसाद टम्टा (Munshi Hari Prasad Tamta) - Mukhyadhara

सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे मुंशी हरी प्रसाद टम्टा (Munshi Hari Prasad Tamta)

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सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे मुंशी हरी प्रसाद टम्टा (Munshi Hari Prasad Tamta)

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

दलित शोषित समाज के नायक मुंशी हरि प्रसाद टम्टा ने न केवल दलित समाज को शिल्पकार नाम दिया, बल्कि सेना में शिल्पकारों को प्रतिनिधित्व दिलाने वाले पहले समाज सुधारक थे। उन्होंने जीवन भर समाज में पनप रहे भेदभाव को खत्म करने के लिए संघर्ष किया। उन्होंने शिल्पकार समाज को समाज में बराबर का अधिकार दिलाने के लिए लगातार कार्य किया। मुंशी हरिप्रसाद टम्टा का जन्म 26 अगस्त 1887 को अल्मोड़ा में हुआ, बचपन में पिता का साया सिर से उठ गया, समाजसेवी मामा कृष्ण चंद्र टम्टा की देखरेख में हरिप्रसाद टम्टा ने अपनी जीवन यात्रा प्रारंभ की, मामा कृष्ण चंद टम्टा की प्रतिभा का भांजे हरिप्रसाद टम्टा के ब्यक्तिव मे पूरा प्रभाव पडा।

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मिडिल परीक्षा पास करने के साथ ही हरिप्रसाद टम्टा ने उर्दू और फारसी में विशेष योग्यता हासिल कर ली इसलिए उन्हें मुंशी की उपाधि से नवाजा गयामामा कृष्ण चंद टम्टा की प्रेरणा से 1903 में ही हरिप्रसाद टम्टा ने उत्तराखंड में दलित में चेतना व दलितो के उत्थान के लिए खुद को समर्पित कर देने का संकल्प लिया। आपने मामा की प्रेरणा से 1905 में अल्मोड़ा में ,टम्टा सुधारक समाज की स्थापना हुई। इस पर कार्य करते हुए हरिप्रसाद टम्टा ने बहुत जल्दी यह स्वीकार कर लिया कि उत्तराखंड में दलित समाज जो कि सदियों से यहां की अर्थव्यवस्था, शिल्प, और उद्योग को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है उसके हिस्से अर्थ और सामाजिक संसाधनों की भागीदारी में भेदभावपूर्ण और गैर बराबरी का व्यवहार जारी है। इसलिए जाति- उपजाति के सारे बंधनों को तोड़ते हुए सभी शिल्पकार संगठित हों और अपने समाज की शिक्षा , सामाजिक चेतना और उन्नति के लिए संघर्ष करें।

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इस बीच 1911 में जब अल्मोड़ा में जॉर्ज पंचम के सम्मान में समारोह का बद्रेश्वर मंदिर में आयोजन किया जा रहा था। तब उस समारोह में आमंत्रण के बाद भी उनके मामा कृष्ण चंद्र टम्टा तथा हरिप्रसाद टम्टा को बैठने के लिए समुचित स्थान नहीं मिला, इस सार्वजनिक अपमान का युवा हरिप्रसाद टम्टा के मस्तिष्क में गहरा प्रभाव पड़ा और उनका समाज में इस गैर बराबरी और भेदभाव पूर्ण व्यवहार के विरुद्ध संघर्ष करने का संकल्प और प्रगाढ़ हुआ। दलित चेतना के समग्र विकास के उद्देश्य की पूर्ति के लिए हरिप्रसाद टम्टा ने 1914 में ही “कुमायूं शिल्पकार सभा ” की स्थापना की। जिससे सम्पूर्ण दलित समाज के भीतर इस गैर बराबरी के सवाल तथा सामाजिक उन्नति के लिए शिक्षा के महत्व को लेकर विचार मंथन प्रारम्भ हुआ , दलित उत्थान के लिए शिक्षा की ताकत को वह पहचानते थे, इसलिए उन्होंने निजी प्रयासों से 150 से अधिक दलित बहुल क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालय खोले व दलित छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए छात्रवृत्ति का वितरण भी किया।

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इस प्रकार हरिप्रसाद टम्टा जी जो बी.आर.अंबेडकर के समकालीन थे, वह सामाजिक सक्रियता की दृष्टि से अंबेडकर जी के महाड मार्च 1927 से कोई डेढ दशक पहले से सक्रिय थे , हालांकि उनकी सक्रियता को अंबेडकर जैसा बृहद आयाम प्राप्त नही हुआ।आपके प्रयासों से ही 1927 में शिल्पकार शब्द को मान्यता प्राप्त हुई। हरिप्रसाद टम्टा के व्यक्तित्व कि यह विराटता थी ,कि एक ओर वह दलित समाज को संगठित करने और उसके उद्धार के लिए सामाजिक रुप से सक्रिय थे, वहीं दूसरी ओर उनके अपने समकालीन स्वर्ण समाज के नेताओं के साथ आपके बहुत मधुर संबंध थे, उनके भीतर जातीय कुंठा लेश मात्र भी नहीं थी। इस सद्भावना पूर्ण व्यवहार का परिणाम यह हुआ 1916  में गठित कुमायूं परिषद जिसके अग्रणी नेता बद्री दत्त पांडे, हर गोविंद पंत आदि थे ने भी अपने समाज सुधार के कार्यक्रमों नाली, नौले सफाई के साथ अछूत उद्धार छूंआछूत प्रतिशेध कार्यक्रम को भी मुख्य कार्यक्रम में शामिल किया , जिससे इस आंदोलन को सामाजिक समर्थन प्राप्त हुआ।

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यद्यपि ब्रिटिश सेना में महार और नमो शूद्र के रूप में दलित समाज के सैनिक पहले से शामिल थे, लेकिन उत्तर – भारत में सेना में भर्ती के लिए अभी भी राजपूतों को ही वरीयता दी जा रही थी। मात्र 26 राजपूत जातियां भर्ती के लिए नामित थी।सेना में दलितों को प्रतिनिधित्व देने के लिए आपने पुरजोर कोशिश की आप इस तर्क को अंग्रेजों को समझाने में कामयाब रहे कि’ जो कौम बंदूक बना सकती है, वह कौम आखिर बंदूक चला क्यों नहीं सकती’ आपके प्रयासों से कुमायूं के 5000 सैनिकों ने सेना में नौकरी पाई जिन्हें पायनियर के 3,9,11,14,15 और 18 बटालियन में भर्ती किया गया , जिससे दलित युवकों का आत्मसम्मान बड़ा।

कुमायूं परिषद के कांग्रेस में विलय के बाद शिल्पकार सभा ने भी कांग्रेस के सहयोगी संगठन के रूप में काम किया, दलित चेतना आंदोलन का विस्तार गढ़वाल में भी हुआ, जहां दलित नेताओं मुख्यतया जयानंद भारती आदि ने हरिप्रसाद टम्टा जी से प्रेरित होकर ‘डोला पालकी’ जैसे बड़े सामाजिक आंदोलन का नेतृत्व किया।हरी प्रसाद टम्टा एक राजनीतिक चिंतक और समाज सुधारक के साथ प्रमुख उद्यमी भी थे।आपने ही कुमाऊं की पहली मोटर सर्विस ‘हिल मोटर्स ट्रांसपोर्ट कंपनी ‘ की 1920 में स्थापना की दलित समाज की चेतना जागरण के उद्देश्य को आगे बढ़ाने और चेतना के इस कार्य को निरंतरता देने के उद्देश्य से आपने 1934 में ‘समता’ नामक पत्र का संपादन प्रारंभ किया और ताउम्र इसका संपादन करते रहे।

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आपके व्यक्तित्व की विराटता का ही यह परिणाम था कि आप उत्तराखंड से बाहर उत्तर भारत में भी एक बड़े दलित नेता के रूप में पहचाने गए, 1934 से 1940 तक आप ऑल इंडिया डिप्रेस्ड सोसायटी के उपाध्यक्ष रहे। क्षेत्र की सीमाओं को भी तोड़ने में आप कामयाब रहे ,1937  में संयुक्त प्रांत की विधानसभा में आप गोंडा उत्तर प्रदेश से निर्विरोध निर्वाचित हुए, इससे आपके व्यक्तित्व की व्यापकता और स्वीकार्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। 1942 में लखनऊ की पायनियर बटालियन ने आपको गार्ड ऑफ ऑनर दिया यह किसी सिविलियन को दिया गया पहला गार्ड ऑफ ऑनर था। आजादी की लड़ाई में आपका योगदान अभूतपूर्व है, आप अल्मोड़ा नगर पालिका के बहुत सक्रिय सभासद और 1945 से चुने गए चेयरमैन रहे , अल्मोड़ा में आपको एक कुशल प्रशासक के रूप में जाना जाता है। आपके व्यक्तित्व की विराटता इस बात में रही कि जहां आप दलित समाज के उत्थान के लिए संघर्षशील रहे ,वहीं आप सामाजिक कटुता से हमेशा दूर रहे सर्व समाज का सम्मान आपको लगातार मिलता रहा।

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हरिप्रसाद टम्टा की भतीजी लक्षमी देवी टम्टा न सिर्फ उत्तराखण्ड की पहली दलित ग्रजुएट थीं बल्कि समता की सम्पादक होने की वजह से उत्तराखंड की पहली महिला सम्पादक भी। मुंशी हरि प्रसाद टम्टा किसी जाति विशेष के नेता नहीं बल्कि सर्व समाज के नेता ही नहीं प्रखर समाज सेवी रहे। अभूतपूर्व उत्थान कार्यों के लिए ,लोग उन्हें उत्तराखंड के भीम राव  अम्बेडकर तक कहते थे। 23 फरवरी 1960 को आपका देहावसान हुआ, की जयन्ती पर विनम्र श्रद्धांजलि।

( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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