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मिशन-24: विपक्ष के आक्रामक तेवरों पर भाजपा (BJP) फिर पुराने सहयोगियों और नए दलों को साथ लाने में जुटी

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मिशन-24: विपक्ष के आक्रामक तेवरों पर भाजपा (BJP) फिर पुराने सहयोगियों और नए दलों को साथ लाने में जुटी

(कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मिली हार और विपक्षी एकता के आक्रामक तेवर को देखते हुए भाजपा हाईकमान फिर पुराने सहयोगियों को साथ लाने के लिए जुट गया है। ‌भले ही बीजेपी के बड़े नेता यह कहते रहे हैं कि विपक्षी दलों के एक साथ आने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन बीजेपी आलाकमान को ये बात अच्छी तरह से पता है कि 2024 का लोकसभा चुनाव 2014 और 2019 की तरह नहीं है। इसलिए साथ छोड़ गए पुराने सहयोगी दलों और नए दलों के साथ गठबंधन करना जरूरी है।)

शंभू नाथ गौतम

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली हार और कांग्रेस की जीत के बाद समूचा विपक्ष जोश में है। अगले साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए विपक्ष भाजपा के खिलाफ कई दिनों से लामबंद है।

कांग्रेस के पूर्व सांसद राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार के खिलाफ लगातार हमलावर हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम में लगे हुए हैं। ऐसे ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी विपक्षी एकता की दल में बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं।

विपक्ष के आक्रामक तेवरों को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी के खेमे में गहरी चिंता और बेचैनी बढ़ रही है, भले ही वह बाहरी रूप से शांत दिख रहा हो।भाजपा हाईकमान भी विपक्ष की बढ़ती हुई एकता को लेकर चौकन्ना हो गया है।

मिशन 2024 के लिए बीजेपी जी-जान से जुट गई है। इसके लिए देशभर में गठबंधन के उन पुराने सहयोगियों से संपर्क साधा जा रहा है, जो एनडीए से बाहर चलें गए थे।

इसके अलावा नए सहयोगी दलों के सामने भी हाथ आगे बढ़ाया जा रहा है। 4 साल में एनडीए से शिअद, जदयू और आरएलपी बाहर निकल गए हैं। इनमें जदयू और एजीपी कांग्रेस के समर्थन वाली महागठबंधन में शामिल हो चुकी है, जबकि शिअद ने बसपा से गठबंधन किया है। ये सहयोगी दल 2024 में बीजेपी की नैया पार लगाकर तीसरी बार फिर से केंद्र में मोदी सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

भाजपा हाईकमान की दिल्ली में आयोजित बैठक में पुराने सहयोगियों को वापस लाने पर बुआ मंथन

भाजपा हाईकमान की राजधानी दिल्ली में आयोजित बैठक में पुराने सहयोगियों को दोबारा लाने पर गहन मंथन हुआ। कर्नाटक चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिली करारी शिकस्त के बाद अब संगठन 2024 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गया है।

कर्नाटक में जनता दल सेक्युलर बीजेपी के साथ गठबंधन करने के लिए इच्छुक है। इसके आसार इसलिए भी नजर आ रहे हैं, क्योंकि हाल के घटनाक्रमों पर नजर डाली जाए तो कई बेहद जरूरी मुद्दों पर जेडीएस ने बीजेपी का साथ दिया है।

ओडिशा के बालासोर में हुए ट्रेन हादसे के बाद जेडीएस ने रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव का बचाव किया था। इतना ही नहीं नए संसद भवन के उद्घाटन के समय जब ज्यादातर विपक्षी पार्टियां कार्यक्रम का बायकॉट कर रही थीं, उस समय देवगौड़ा उद्घाटन समारोह में सामिल हुए थे। कर्नाटक में बीजेपी के नजदीक आने की जेडीएस के पास कई वजहें हैं।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद भाजपा गठबंधन को लेकर फिर एक्टिव

कर्नाटक में विधानसभा चुनाव में हार के बाद बीजेपी यहां पर भी सहयोगी की तलाश है। बीजेपी की नजर देवगौड़ा की जेडीएस पर है। कर्नाटक में लोकसभा की कुल 28 लोकसभा सीटें है। 2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 28 सीटों में से 26 सीटों पर जीत दर्ज की थी।

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वहीं कांग्रेस और जेडीएस को एक-एक सीट से संतोष करना पड़ा था। हालांकि, अब विधानसभा चुनाव के बाद राज्य के सियासी समीकरण बदल गए हैं। इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 42.9% वोट शेयर के साथ 135 सीटें जीतीं।

पंजाब दूसरा राज्य है, जहां भाजपा को एक सहयोगी की जरूरत है और अकाली दल एक पुराने दोस्त की प्रतीक्षा कर रहा है। बीजेपी सूत्रों ने दावा किया कि 2017 के बाद से लगातार हार के बाद अकाली दल को बीजेपी के समर्थन की ज्यादा जरूरत थी। यह उतना ही मजबूत है जितना हाल ही में जालंधर लोकसभा सीट के उपचुनाव के नतीजों ने दिखाया।

आंध्रप्रदेश का सिनैरियो इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। जगन मोहन रेड्‌डी की अगुवाई वाली वाईएसआर कांग्रेस अब राज्य में कांग्रेस को उभरने नहीं दे रही है और बीजेपी को पैर जमाने से रोक रखा है। बीजेपी के लिए जगन ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक जैसे हैं। जगन भी पूरी तरह से पटनायक के रास्ते पर चल रहे हैं। वह पटनायक की तरह ही बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी बनाए हुए हैं। मिड पॉइंट पर खड़े रहकर पटनायक और जगन ने मोदी सरकार के साथ वर्किंग रिलेशन बनाए हैं। इससे उनके राज्यों को केंद्र की लगातार सहायता भी मिल रही है।

बीजेपी का सेंट्रल कमांड 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए जगन और पटनायक को जरूरतमंद दोस्त मान रहा है। यानी उस वक्त ज्यादा सहयोगियों की जरूरत पड़ने पर ये काम आ सकते हैं। ओडिशा में लोकसभा की 21 सीटें हैं।

बीजू जनता दल (भाजपा) जनता पर हावी है। 2019 में बीजेडी ने 12, बीजेपी ने 8 और कांग्रेस ने 1 सीटें जीती थीं। छत्तीसगढ़ में पिछले आम चुनाव में बीजेपी ने 11 में से 9 सीटें जीती थीं। मध्य प्रदेश में, पार्टी ने एक सीट को छोड़कर सभी सीटों पर जीत हासिल की। हालांकि आंध्र में बीजेपी अभी असमंजस की स्थिति में है।

28 मई को नई संसद के उद्घाटन का बहिष्कार जिन 19 पार्टियाें ने किया उनमें जेडीयू और उद्धव ठाकरे की शिवसेना भी शामिल थी। ये दोनों पार्टियां 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की सहयोगी रही चुकी हैं। 2019 में बीजेपी ने 303 सीटें जीतीं।

वहीं सहयोगियों ने 50 सीटें। इनमें भी जेडीयू और शिवसेना ने अकेले 34 सीटें जीतीं। यानी एक बड़ा हिस्सा इन दोनों पार्टियों ने जीता जो अब बीजेपी की सहयोगी नहीं बल्कि विरोधी हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय एनडीए में 26 पार्टियां थीं। बीजेपी ने इस चुनाव में 282 सीटें जीतीं, जबकि सहयोगियों ने 54 सीटें जीती थीं।

शिवसेना ने सबसे ज्यादा 18, टीडीपी ने 16, एलजेपी ने 6, अकाली दल ने 4, आरएलएसपी ने 3 और अन्य सीटें बाकी छोटे दलों ने जीतीं। इनमें से टीडीपी के साथ ही अकाली दल जैसी पार्टियां भी अब बीजेपी की सहयोगी नहीं है।

बीजेपी में लंबे समय तक विभाजन के लिए अच्छा शगुन नहीं है। हालांकि, बीजेपी और बीजेपी के एकनाथ शिंदे ग्रुप से निकलने में सक्षम थे, इसका प्रभाव होगा। हालांकि शिंदे नए गौरव का आनंद ले रहे हैं, लेकिन ब्रॉडबैंड के नेतृत्व वाले बीजेपी ग्रुप पलटवार करने के लिए सही समय का इंतजार कर रहे हैं।

साल 2014 और 19 की अपेक्षा 2024 के लोकसभा चुनाव अलग हैं

बीजेपी गठबंधन ने 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 सीटों में से 31 सीटें जीती थीं, लेकिन 2019 में जेडीयू के साथ आने से यह संख्या 39 पहुंच गई थी। यानी जेडीयू के आने से बीजेपी को सीधे-सीधे 8 सीटों को फायदा हुआ। जेडीयू अब बीजेपी से दूर जा चुकी है।

एलजेपी में दो फाड़ हो चुकी है। ऐसे में यह सवाल है कि क्या एलजेपी के पशुपतिनाथ पारस अब रामविलास पासवान की जगह ले सकते हैं। वहीं पशुपतिनाथ पारस को रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान भी उन्हें चुनौती दे रहे हैं। ऐसे में 2024 के चुनाव में बीजेपी को यहां पर नए सहयोगियों की जरूरत पड़ेगी।

वहीं बीजेपी शिवसेना में भी दो फाड़ कर चुकी है। कुछ सर्वे भी सामने आए हैं जिनमें कहा जा रहा है कि इससे बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। तमिलनाडु में एआईएडीएमके, महाराष्ट्र में शिंदे की शिवसेना और हरियाणा में जननायक जनता पार्टी को छोड़कर, केंद्र में बीजेपी के पास कोई महत्वपूर्ण सहयोगी नहीं है जो राज्य स्तर पर खास फर्क डाल सके।

2024 में इन तीनों की चुनावी क्षमता पर भी सवालिया निशान हैं। दक्षिण में अपना सबसे सुरक्षित किला कर्नाटक खोने के बाद बीजेपी उन राज्यों के बारे में आशावादी नहीं हो सकती, जहां उसकी जड़े कमजोर हैं। इनमें से ज्यादातर दक्षिण और पूर्व के राज्य हैं। यहां पर कांग्रेस को हटाकर क्षेत्रीय ताकतें मजबूत हुई हैं और ये ही बीजेपी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं।

भाजपा हाईकमान का उत्तर प्रदेश को लेकर फिर विशेष फोकस

यूपी में बीजेपी के प्रदेश स्तरीय नेता सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर से संपर्क में हैं। 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में ओमप्रकाश राजभर ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। लेकिन 2019 में लोकसभा चुनाव में सीटों में तालमेल नहीं हो पाने के कारण राजभर ने गठबंधन तोड़ दिया था।

उन्होंने 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया था और चुनाव के बाद सपा से गठबंधन तोड़कर बाहर आ गए थे। ओमप्रकाश राजभर बीजेपी के साथ एक बार फिर से हाथ मिलाने के लिए तैयार है, लेकिन अंतिम फैसला बीजेपी आलाकमान को लेना है।

पिछले कुछ समय से भाजपा और बसपा के भी अंदरूनी संबंध अच्छे बताए जा रहे हैं। केंद्र सरकार की कई नीतियों का बसपा प्रमुख मायावती समर्थन करती रहीं हैं। संभव है आने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा और बसपा के बीच नज़दीकियां दिखाई दे सकती हैं।

भले ही बीजेपी के बड़े नेता यह कहते रहे हैं कि विपक्षी दलों के एक साथ आने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन बीजेपी आलाकमान को ये बात अच्छी तरह से पता है कि 2024 का लोकसभा चुनाव 2014 और 2019 की तरह नहीं है। इसलिए साथ छोड़ गए पुराने सहयोगी दलों और नए दलों के साथ गठबंधन करना जरूरी है।

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