हिमालय क्षेत्र की सेहत बिगाड़ रहा प्लास्टिक (Plastic) का कचरा - Mukhyadhara

हिमालय क्षेत्र की सेहत बिगाड़ रहा प्लास्टिक (Plastic) का कचरा

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हिमालय क्षेत्र की सेहत बिगाड़ रहा प्लास्टिक (Plastic) का कचरा

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

पर्यावरण के लिए कचरा एक बड़ी समस्या रहा है। समुद्रों, नदियों से लेकर छोटे-छोटे तालाबों तक में कचरा मिलना आम बात है, जिससे पर्यावरण को भारी नुकसान होता है। कचरा पैदा होने और इसके फैलने के विभिन्न कारण हो सकते हैं। इससे निपटने के लिए भी कई गंभीर प्रयास किए गए हैं, लेकिन उनके कोई ठोस परिणाम अब भी हासिल नहीं हुए हैं।व्यापक शब्दों में कचरे में पर्यावरण में मौजूद कोई भी ठोस
सामग्री शामिल है, जो लोगों की वजह से पैदा हुई है या जिसे उन्होंने इस्तेमाल किया है।कचरे के इतने रूप होते हैं कि इसे पहचान पाना मुमकिन नहीं होता। ऐसे में किस प्रकार के कचरे से अधिक नुकसान होता है और किससे कम, यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है। कचरे की पहचान के लिए विभिन्न स्तरों पर प्रयास किए गए हैं।

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सामुदायिक हितों पर काम करने वाली कंपनी “प्लैनेट पेट्रोल” ने लोगों के लिए एक ऐप तैयार किया, जिसके जरिए वे उन्हें मिले कचरे का रिकॉर्ड रख सकते हैं और फिर उसे नष्ट कर सकते हैं। कंपनी ने कहा हमने साल 2020 में ब्रिटेन में कचरे की 43,187 वस्तुओं को एकत्र किया और फिर इस ऐप के जरिए कचरे के स्थान, सामग्री, प्रकार आदि के बारे में शोध किया।हमारा शोध हाल में”जनरल ऑफ हैजार्डस मेटिरियल”  में प्रकाशित हुआ है। शोध में पता चला है कि कचरे में सबसे अधिक 63.1 प्रतिशत प्लास्टिक सामग्री मिली। इसके बाद धातु (14.3प्रतिशत) और फिर मिश्रित सामग्री 11.6 प्रतिशत रही। पेय पदार्थ की बोतलों, ढक्कनों, पुआल और अन्य सामग्रियों का हिस्सा 33.6 प्रतिशत रहा, जिनमें धातु के डिब्बे सबसे आम थे।

हमारे वैज्ञानिकों ने 16,751 वस्तुओं के ब्रांड की पहचान की, जिनमें से 50 प्रतिशत वस्तुएं सिर्फ दस ब्रांड से संबंधित थीं। इन 50 प्रतिशत में से सबसे अधिक 11.9 प्रतिशत सामग्री कोका-कोला कंपनी की मिली। दूसरे नंबर पर “एनह्यूजर-बुश इनबेव” (7.6प्रतिशत) और पेप्सिको (6.9 प्रतिशत) की सामग्री रही। ये शीर्ष तीन ब्रांड पेय पदार्थ से संबंधित हैं।इस पूरे दशक के दौरान ब्रिटेन सरकार कचरे की समस्या से निपटने के लिए कई कानून पेश करेगी या उसमें सुधार करेगी। इनमें अप्रैल 2022 में पेश किया गया प्लास्टिक कर प्रस्ताव शामिल है, जिसके तहत उस प्लास्टिक में सामान पैक करने पर कर लगाया जाएगा, जिसके दोबारा इस्तेमाल की संभावना 30 प्रतिशत से कम होगी।

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इसके अलावा भी सरकार ने कई और कदम उठाने का इरादा जाहिर किया है।इसी दशक में शीर्ष दस कंपनियां जिनकी हमारे शोध में पहचान की गई है, वे भी अपने सामान की पैकेजिंग में इस्तेमाल होने वाली सामग्री को बदलने की योजना पर काम करेंगी। इन कॉरपोरेट और विधायी नीतियों से संबंधित हमारे विश्लेषण में निष्कर्ष निकला है कि ये कंपनियां पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग) पर आधारित समाधान की पक्षधर हैं हालांकि वे इस बात को लेकर कम चिंतित नजर आ रही हैं कि कचरे को कम कैसे किया जाए और किस प्रकार लोगों को इन सामग्रियों का दोबारा इस्तेमाल करने दिया जाएगा।

हिमालयी क्षेत्र की तलहटी तक पहुंच चुका प्लास्टिक का कचरा बहुत तेजी से इसकी सेहत को बिगाड़ रहा है। उत्तराखंड में आम लोगों के अलावा धार्मिक तीर्थाटन, पर्यटक और शौकिया ट्रैकर प्रतिवर्ष हजारों टन कचरा हिमालय क्षेत्र में छोड़कर जा रहे हैं। सरकार और अदालतों के
सख्त रुख के बावजूद शहरों से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्रों तक प्लास्टिक के अंबार कम नहीं हो रहे हैं। पनियों का यह दृष्टिकोण प्लास्टिक की समस्या से निपटने को लेकर उनकी चिंता को कम जबकि लोगों को अपने उत्पाद बेचने की चिंता को अधिक दर्शाता है। ऐसे में पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे कचरे और खासतौर पर प्लास्टिक कचरे को कम करने के लिए गंभीर प्रयास करने की जरूरत है। आने वाले दिनों में यह समस्या और विकराल रूप ले सकती है।

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केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक सर्वे के मुताबिक, देश के 60 बड़े शहरों में हुए सर्वे में यह बात सामने आई है कि पूरे देश में प्रतिदिन 25 हजार 940 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, देश में हर साल प्रति व्यक्ति 9.7 किग्रा प्लास्टिक का इस्तेमाल करता है, जो बाद में कचरे के रूप में तब्दील होता है। उत्तराखंड में रोजाना खतरनाक प्लास्टिक कचरे की मात्रा बढ़ती जा रही है। वर्ष 2041 तक यह करीब 457.63 टन प्रतिदिन के खतरनाक स्तर पर पहुंच जाएगा। पिछले दिनों उत्तराखंड पर्यावरण और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) के सर्वे में सामने आई यह तस्वीर चौंकाने वाली आई है। पहाड़ों पर इसी गति से प्लास्टिक कचरा बढ़ता रहा तो इससे संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र के पर्यावरण, जंगल और पानी के स्रोतों पर संकट और गहरा जाएगा।

राज्य सरकार ने पॉलिथीन पर पाबंदी लगाई है। इसके बावजूद पॉलिथीन और प्लास्टिक का लगातार उपयोग हो रहा है। खूबसूरत उत्तराखंड और यहां के हिमालयी क्षेत्र का पर्यावरण बचाने के लिए जरूरी है कि हिमालय पर प्लास्टिक के पहाड़ नहीं बनने दिए जाएं। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव के मुताबिक, इस दिशा में पीसीबी की ओर से लगातार जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं, ताकि राज्य में आने वाले पर्यटकों को प्लास्टिक के कचरे से होने वाले नुकसान के बारे में अवगत कराया जा सके।प्लास्टिक का कचरा हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को नुकसान पहुंचा रहा है। हिमालय के वन क्षेत्रों में प्लास्टिक के कचरे के अंबार लगे हैं। निकायों के स्तर पर इनकी निगरानी नहीं हो रही है। कचरे के निस्तारण की समुचित व्यवस्था नहीं होने से स्थानीय लोगों के साथ छोटे-बड़े होटल-ढाबे वाले भी अपना कचरा हिमालय क्षेत्र में बनी खाइयों और जंगलों में डंप कर रहे हैं। यदि हिमालय क्षेत्र को संरक्षित नहीं किया गया तो समूचा बहाव क्षेत्र प्रभावित होगा।

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70 करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित होंगे पिछले कुछ सालों में हिमालय क्षेत्र में मानवीय गतिविधियां बढ़ी हैं। उच्च हिमालय क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में कीड़ा जड़ी का दोहन होता है। ग्रामीण इस जड़ी की खोज में बुग्यालों को पीछे छोड़कर हिमालय की तलहटी तक पहुंच रहे हैं। इसके साथ ही बड़े पैमाने पर प्लास्टिक भी हिमालय की तलहटी में पहुंच रहा जो बड़ी चिंता का विषय है। सरकार को इस दिशा में ठोस कार्ययोजना बनानी होगी। स्थानीय लोगों के साथ बाहर से आने वाले लोगा में भी चेतना बढ़ानी होगी हिमालय दिवस पर साल-दर-साल लिए गए संकल्प आज भी
अधूरे हैं।

विशेषज्ञों की मानें तो जब तक हिमालय के प्रति सामूहिक सहभागिता सामने नहीं आएगी, तब तक इन संकल्पों को पूरा नहीं किया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों से उत्पन्न आपदाएं एक वैश्विक चिंता के रूप में उभरी हैं, जो जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित कर रही हैं। हम प्लास्टिक के कूड़े को साफ करने के काम में स्कूली बच्चों को शामिल कर रहे हैं। यह देखना दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोग यहां आते हैं और कूड़ा फेंकते हैं। लोगों को प्लास्टिक प्रदूषण को हराने के लिए आगे आना चाहिए। पहाड़ कचरे के प्रबंधन का अपना बोझ उठाते हैं। प्रक्रिया के हर चरण में अतिरिक्त लागत होती है – संग्रहण से लेकर पुनर्प्राप्ति और परिवहन तक। पुनर्चक्रण योग्य वस्तुओं की कम मात्रा जिन्हें बिखरे हुए स्थानों से एकत्र किया जाना है, पहाड़ों में आर्थिक रूप से मायने नहीं रखती है, जिसके परिणामस्वरूप इसका अधिकांश हिस्सा पुनर्प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

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पहाड़ों में प्लास्टिक की बाढ़ का एक बड़ा हिस्सा ज्यादातर पैकेज्ड खाद्य पदार्थों का भी है जो प्रकृति में गैर-पुनर्चक्रण योग्य हैं। हालाँकि इन प्लास्टिकों के कारण होने वाला व्यापक प्रदूषण आँखों से दिखाई देता है, लेकिन जो देखा या अध्ययन नहीं किया जाता है वह समय के साथ पर्वतीय समुदायों की भोजन की आदतों पर पड़ने वाला प्रभाव है।खाली कैलोरी और पोषण संबंधी असुरक्षा की बढ़ती चुनौतियों को नजरअंदाज
नहीं किया जा सकता है जो ये उत्पाद समुदायों में ला रहे हैं।यूनिफ़ॉर्म ईपीआर ढांचा, जिसे वर्तमान में भूगोल तटस्थ के रूप में देखा गया है , पर्वतीय क्षेत्रों की सभी सामाजिक-पारिस्थितिक विशिष्टताओं की उपेक्षा करता है।

पर्वतीय राज्यों पर उनके कचरे के प्रबंधन की अतिरिक्त लागत पर विशेष ध्यान दिए बिना, ईपीआर ढांचा उन्हें गंभीर रूप से नुकसानदेह स्थिति में छोड़ देता है। प्रस्तावित प्लास्टिक क्रेडिट प्रणाली में केवल कंपनियों के लिए रीसाइक्लिंग लक्ष्य के लिए विशिष्टताएँ हैं; भौगोलिक पैरामीटर सेट नहीं हैं।  पहुंच और मात्रा के कारण प्लास्टिक पुनर्प्राप्ति की मौजूदा चुनौतियों के साथ, पहाड़ कंपनियों के लिए प्राथमिकता नहीं हो सकते हैं, जब तक कि विशेष रूप से ईपीआर फ्रेमवर्क के तहत उच्च फोकस क्षेत्र के रूप में अनिवार्य न किया जाए। इसके अलावा, कंपनियों को अपशिष्ट-से-ऊर्जा, प्लास्टिक सड़कों आदि के माध्यम से अपने प्लास्टिक कचरे को जलाने या ऊर्जा पुनर्प्राप्ति के लिए श्रेय लेने की अनुमति देना एक अत्यधिक प्रतिकूल प्रक्रिया है और पहाड़ों के लिए बिल्कुल भी संभव नहीं है।

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पहाड़ों में प्लास्टिक प्रदूषण कभी भी जल्द खत्म नहीं होगा जब तक कि ईपीआर ढांचे के प्रावधान उत्पादकों को पहाड़ों को एक विशेष लेंस से देखने के लिए मजबूर नहीं करते। वह जो पहाड़ों द्वारा प्रदान की जाने वाली सामाजिक-पारिस्थितिकीय नाजुकता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर विचार करता है। जो कचरा ट्रकों में भरकर पहाड़ों तक जाता है, उसे भी उसी रास्ते से अपना रास्ता ढूंढना पड़ता है, या इससे भी बेहतर, अभी भी इसका उत्पादन नहीं किया जाता है। ये लेखक के अपने विचार हैं।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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