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उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस 9 नवंबर पर विशेष

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उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस 9 नवंबर पर विशेष

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड का 25वां स्‍थापना दिवस 9 नवंबर को मनाया जाएगा। उत्तराखंड अलग राज्‍य की मांग को लेकर कई वर्षों तक चले आंदोलन के बाद आखिरकार 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड अलग राज्‍य बन गया. 2006 तक इसे उत्‍तरांचल कहा गया, इसके बाद जनवरी 2007 में इसका नाम उत्‍तराखंड कर दिया गया।उत्तराखंड कई प्राचीन धार्मिक स्थलों के साथ ही देश की सबसे बड़ी नदियों गंगा और यमुना का उद्गम स्थल है। उत्तराखंड का 24 साल पुराना इतिहास उत्तराखंड को देवताओं की भूमि या देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। स्थापना के समय इसे उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था। उत्तर भारत मे स्थित यह राज्य भारतीय तीर्थ स्थलों का एक अद्वितीय केंद्र है। हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, और हरियाणा भारतीय राज्यों सहित तिब्बत, और नेपाल की सीमा भी उत्तराखंड से लगती है। संस्कृत भाषा में उत्तराखंड शब्द का अर्थउत्तरी शहरहोता है। 2007 में औपचारिक रूप से इसका नाम बदलकर उत्तरांचल से उत्तराखंड कर दिया गया। उत्तराखंड चार सबसे पवित्र हिंदू मंदिरों का घर है, जिन्हें चारधाम के रूप में
जाना जाता है। इसमें बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमनोत्री शामिल है।

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उत्तराखंड स्थापना दिवस को राज्य में सार्वजनिक अवकाश के रूप में मनाया जाता है. इस दिन राज्य भर में उत्सव मनाए जाते हैं। इस बार उत्‍तराखंड राज्‍य स्थापना की रजत जयंती के मौके पर प्रवासी सम्‍मेलन का आयोजन किया देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग क्षेत्र में अपने नाम का लोहा मनवाने वाले लोगों को इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया है।उत्तराखंड स्थापना दिवस का उद्देश्य राज्य के गठन की याद दिलाना और राज्य की एकता और समृद्धि को बढ़ावा देना है। यह दिन राज्य के लोगों के लिए गर्व और उत्साह का दिन है। राज्य गठन के बाद से ही प्रदेश में सशक्त भू कानून लागू किए जाने की मांग उठती रही है. इन 24 सालों के भीतर समय-समय पर तमाम सामाजिक संगठनों और राज्य आंदोलनकारी की ओर से सशक्त भू-कानून की मांग की जाती रही है। लेकिन अभी तक प्रदेश में सशक्त भू कानून लागू नहीं हो पाया है। जबकि प्रदेश में जो कानून लागू किया गया, उसमें समय-समय पर संशोधन जरूर किया जाता रहा है। ऐसे में सीएम धामी ने साल 2018 में किए गए संशोधन को वापस लेने के साथ ही प्रदेश में एक सशक्त भू कानून लागू करने की बात कह चुके हैं। जिस पर विभागीय स्तर से भी कार्रवाई शुरू हो चुकी है। हालांकि, मुख्यमंत्री सशक्त भू कानून को लेकर कई बार इस बात पर जोर दे चुके हैं कि साल 2025 में होने वाले विधानसभा बजट सत्र के दौरान उत्तराखंड वासियों को सशक्त भू कानून की सौगात दी जाएगी।

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साल 2024 के नए साल पर मुख्यमंत्री धामी ने बड़ा फैसला लेते हुए उत्तराखंड में राज्य से बाहरी व्यक्तियों के कृषि एवं उद्यान के लिए जमीन खरीदने पर अंतरिम रोक लगा दी थी। साथ ही इस बाबत सभी जिलाधिकारियों को निर्देश दिए थे कि राज्य के बाहरी व्यक्तियों को कृषि एवं उद्यान के उद्देश्य से जमीन खरीदने के प्रस्ताव को अनुमति नहीं देंगे।हालांकि, उस दौरान मुख्यमंत्री ने कहा था कि प्रदेशहित और जनहित में यह निर्णय लिया गया है। दंगाइयों से नुकसान की वसूली का कानून: 8 फरवरी 2024 को हल्द्वानी के बनभूलपुरा में हुए हिंसा के दौरान सरकारी और निजी संपत्तियों को भी नुकसान पहुंचा था। जिसके बाद मुख्यमंत्री पु ने बड़ा फैसला लेते हुए सरकारी और निजी संपत्ति क्षति वसूली एक्ट को प्रदेश में लागू किया। जिसके तहत सरकारी और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले असामाजिक तत्वों और उपद्रवियों से इसकी वसूली करने का प्रावधान किया गया है।

उत्तराखंड राज्य में बाहरी व्यक्तियों की ओर से खरीदी गई जमीनों का दुरुपयोग करने और भू कानून के नियमों को ताक पर रखकर खरीदी गई जमीनों को लेकर बड़ा फैसला लिया। जिसके तहत जिन लोगों ने भू कानून के नियमों को ताक पर रखकर 250 वर्ग मीटर से अधिक कृषि भूमि खरीदी है, उनकी संपत्तियों को राज्य सरकार में निहित करने का फैसला लिया। साथ ही जिन लोगों ने जिस उद्देश्य से कृषि भूमि को खरीदा था, अगर उस उद्देश्य से जमीनों का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं तो उक्त भूमि को भी राज्य सरकार में निहित करने का निर्णय लिया।इसके तहत ऐसे लोगों की जांच की जा रही है। उत्तराखंड राज्य में यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) लागू किए जाने की दिशा में साल 2024 बेहद खास रहा है। क्योंकि इसी साल के शुरुआत में यूनिफॉर्म सिविल कोड का मसौदा तैयार करने के लिए गठित विशेषज्ञ समिति ने ड्राफ्ट राज्य सरकार को सौंपा था। इसके बाद विधानसभा बजट सत्र के दौरान यूसीसी विधेयक को सदन में पारित किया गया साथ ही उत्तराखंड राज्यपाल की मंजूरी मिलने के बाद राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए राष्ट्रपति भवन भेजा गया।

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राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद उत्तराखंड सरकार ने यूनिफॉर्म सिविल कोड के लिए गजट नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया। इसके साथ ही यूसीसी को लागू करने के लिए धामी सरकार ने रूल्स मेकिंग एंड इंप्लीमेंटेशन कमेटी का गठन किया, कमेटी यूसीसी नियमावली तैयार कर राज्य सरकार को सौंप चुकी है। ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि इस साल के नए साल पर उत्तराखंड वासियों को यूनिफॉर्म सिविल कोड की सौगात मिल सकती है।हालांकि, सीएम धामी ने 7 नवंबर 2024 को कहा है कि जल्द ही यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने की तिथि का ऐलान किया जाएगा। उत्तराखंड सरकार प्रदेश की पहली राज्य महिला नीति 2024 का ड्राफ्ट तैयार कर चुकी है। हालांकि, महिलाओं से संबंधित पहले से ही तमाम नियम कानून हैं। बावजूद इसके उत्तराखंड महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास विभाग ने राज्य महिला आयोग की सहयोग से राज्य महिला नीति 2024 का ड्राफ्ट तैयार कर लिया है। जिसकी प्रक्रिया अंतिम चरण में है। हालांकि, संभावना जताई जा रही है कि उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर राज्य महिला नीति प्रदेश की महिलाओं को समर्पित कर दिया जाएगा।

दरअसल, राज्य महिला नीति में बेटी के जन्म से लेकर महिला के मृत्यु तक के बीच होने वाली तमाम चुनौतियों और समस्याओं को ध्यान में रखते हुए तमाम प्रावधान किए गए हैं। हालांकि, इस महिला नीति को लेकर महिला सशक्तिकरण विभाग का दावा है कि इससे महिलाओं को और अधिक सशक्त बनाया जा सकेगा। इन 24 सालों में हमारी देवतुल्य जनता के सहयोग से हर क्षेत्र में राज्य तेजी से आगे बढ़ा है। इस दशक को उत्तराखंड का दशक बनाने के लिए जन सहभागिता से राज्य सरकार द्वारा हर क्षेत्र में
अल्पकालिक, लघुकालिक और दीर्घकालिक योजनाओं पर कार्य किए जा रहे हैं।मुख्यमंत्री ने कहा कि आज अनेक क्षेत्रों में उत्तराखंड देश के अग्रणी राज्यों की श्रेणी में है। नीति आयोग द्वारा जारी सतत विकास लक्ष्यों की रैंकिंग में उत्तराखंड को देश में प्रथम स्थान मिला है। ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में राज्य को अचीवर्स और स्टार्टअप में लीडर की श्रेणी प्राप्त हुई है। जीएसडीपी में 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। उत्तराखंड युवाओं को रोजगार देने में भी अग्रणी राज्य बना है। एक वर्ष में बेरोजगारी दर में 4.4 प्रतिशत कमी लाई गई है। इस पहाड़ी राज्य की अपनी एक अलग पहचान मिले इसके लिए करीब सौ साल का संघर्ष चला और 40
से ज्यादा लोग इस संघर्ष में शहीद हुए।

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उत्तराखंड का अलग राज्य बनने का सफर उतना आसान नहीं था जितना आज हमें लगता है। इस पहाड़ी राज्य की पहचान को हासिल करने के लिए 42 लोगों ने अपनी जान कुर्बान की और हजारों-लाखों ने सालों तक आंदोलन किए. लेकिन उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग सबसे पहले 1897 में उठी थी, जब ब्रिटिश हुकूमत का दौर था।तब के समय में पहाड़ी लोगों ने महारानी से एक अलग राज्य की जरूरत का जिक्र किया, लेकिन उस पर ध्यान नहीं दिया गया. इसके बाद, 1923 में भी संयुक्त प्रांत के राज्यपाल के सामने फिर से मांग रखी गई, और 1938 में श्रीनगर गढ़वाल में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान पंडित नेहरू ने इस मांग का समर्थन भी किया।फिर भी, एक अलग राज्य का सपना अधूरा रह गया। आजादी के बाद भी उत्तराखंड की जनता के लिए संघर्ष जारी रहा। 1950 में संयुक्त प्रांत का नाम बदलकर उत्तर प्रदेश कर दिया गया, लेकिन उत्तर प्रदेश की सरकार हिमालयी क्षेत्र की विशेष जरूरतों को नहीं समझ सकी। इसके चलते पहाड़ी लोगों ने एक बार फिर से एक अलग राज्य की मांग उठाई और उत्तराखंड क्रांति दल का गठन हुआ। 90 के दशक में आंदोलन तेज हुआ और 1994 में हालात इतनेखराब हो गए कि आंदोलन हो गया।

अलग राज्य बनाने की मांग  मोतीलाल बोहरा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे। उनके एडीसी दार्जिलिंग के रहने वाले एक आईपीएस अधिकारी थे। वे आंदोलन के दिन थे। उनके एडीसी ने मुझसे पूछा कि आपके राज्य में आंदोलन को अखबार बहुत हाईलाइट करता है, जबकि हमारे यहां भी आंदोलन होते हैं, लेकिन वहां अखबारों में उन्हें वैसा स्थान नहीं मिल पाता, आखिर ऐसा क्यों हैं? मैंने उन्हें इसकी दो प्रमुख वजह बताई। पहली यह कि राज्य से लेकर दिल्ली तक मीडिया में उत्तराखंड के बहुत बड़ी संख्या में लोग रहे, जिनका नैतिक और वैचारिक समर्थन और मार्गदर्शन हमेशा मिलता रहा। दूसरा अमर उजाला जैसे अखबारों का जन आंदोलन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण था। अमर उजाला राज्य की नब्ज जानता था कि यहां लोग क्या चाहते हैं। बच्चा, बूढ़ा, जवान ऐसा कोई वर्ग नहीं था, जिसने सड़कों पर उतरकर आज दो अभी दो, उत्तराखंड राज्य दो के नारे नहीं लगाए। इन नारों को
अखबार ने ताकत दी इन 24 वर्षों में राज्य के सैकड़ों गांवों खाली हो चुके हैं। पृथक राज्य बनने के बाद तकरीबन 32 लाख लोग पलायन कर चुके हैं।

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सरकारी पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के 1702 गांव भुतहा हो चुके हैं। मतलब एकदम खाली हो चुके हैं और तक़रीबन 1000 गांव ऐसे हैं जहां 100 से कम लोग बचे हैं। पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 50% लोग रोजगार के कारण, 15% शिक्षा के चलते और 8% लचर स्वास्थ्य सुविधा की वजह से पलायन करने को मजबूर हुए। शिक्षा का हाल यह है कि कई गांवों में तो 20- 20 किलोमीटर तक कोई स्कूल ही नहीं है। कहीं स्कूल है तो शिक्षक नहीं हैं. पिछले वर्षों में सरकार ने कई सारे स्कूल बंद भी किए। शिक्षा की स्थिति आज भी 24 वर्ष पुरानी जैसी ही है. चिकित्सा सुविधाओं के मामले में तो राज्य का हाल ही खस्ता है। एक तरफ जहां 30 से 40 किलोमीटर तक कोई सरकारी हॉस्पिटल नहीं है तो वहीं सुविधा के लिहाज से तहसील तक में बने सरकारी हॉस्पिटल में अल्ट्रासाउंड की मशीन और अन्य जांच के उपकरण तक नहीं हैं। गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। आज भी इलाज के लिए दिल्ली ही आना पड़ता है।

प्राकृतिक संसाधनों की लूट के मामले में तो इस राज्य का कोई मुकाबला है ही नहीं। सरकारी तंत्र और भू-माफिया के गठजोड़ ने पूरे पहाड़ को फोड़ डाला है। सड़कों की माया में लाखों पेड़ काट डाले गए हैं। खनन माफियाओं ने नदियों को खत्म कर दिया है। यह सब 24वर्षों की अदला-बदली की सरकारों की देन ही है। यह 20 वर्षों की वह तस्वीर है जो स्थापना दिवस की चकाचौंध में
कहीं नजर नहीं आएगी। वहां नजर आएगी तो बस फाइलों में दर्ज विकास की इबारतें जो कभी जनता तक पहुंच ही नहीं पाई। अदम गोंडवी ने लिखा-“तुम्‍हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है” वास्तविकता भी यही है। एक तरफ जहां पहाड़ के गाड, गध्यर, नौले सूखे और गांव के गांव उजड़े तो वहीं दूसरी तरफ बड़े-बड़े महल बने, पानी पर बांध बने और विधायक- मंत्री व मुख्यमंत्री बने।इसलिए उत्तराखंड को जब देखना व समझना हो तो उसे देहरादून और ऋषिकेश से न देखा और न समझा जा सकता है। उसकी इन 20 वर्षों की यात्रा को भी पहाड़ की उन महिलाओं की नजर से
देखना होगा जो, चिपको आंदोलन में जंगल को अपना मायका बताती हैं और कुल्हाड़े के आगे आ खड़ी होती हैं।

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शराब के खिलाफ आंदोलन में बाजार के बाजार बंद करा देती हैं और शराब माफियाओं के सामने दरांती ताने निडर खड़ी हो जाती हैं।पृथक राज्य आंदोलन में गोठ-गुठ्यार छोड़ दिल्ली तक हुंकारा भरने के लिए चल पड़ती हैं। उनकी आंखों से भी इसे देखना होगा। तभी उन सपनों को भी समझा जा सकता है जो अलग राज्य की मांग और संकल्पना के साथ जुड़े हुए थे लेकिन वह सपने अब धुंधले हो चुके हैं। वह आंखें आशावान तो हैं लेकिन उम्मीद हारती जा रही हैं। बजट, सडक आदि से पहाड़ को कैसे समझा जा सकता है। विकास का यह रेडीमेड मॉडल जिसमें सड़क, शहर और सीमेंट है वह कैसे पहाड़ों में फिट हो सकता है ? क्या यही पहाड़ की जरूरतें हैं? या फिर इन 24 वर्षों में हमारे नीति निर्माता पहाड़ की जरूरतों को समझ ही नहीं पाए। पर्यटन की असीम संभावनाओं के बावजूद इस दिशा में सरकारों की अकर्मण्यता तारीफे-काबिल है। ऐसी स्थिति में कैसे जश्न मनाया जा सकता है।आखिर इन 24 वर्षों में सिवाय सरकारों के क्या बदला है ! फिर भी राज्य स्थापना दिवस की बधाई देते हुए दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां मुझे मौजू लगती हैं- मैं बे- पनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं / मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।

गैरसैंण में बनने वाले उत्तराखंड भाषा संस्थान के मुख्यालय के लिए विभाग को देहरादून में भी जमीन नहीं मिल रही है। विभाग की निदेशक के मुताबिक भाषा संस्थान के मुख्यालय के लिए सहस्त्रधारा रोड में करीब दो एकड़ जमीन चिन्हित की गई, लेकिन अब इस पर आपत्ति आ गई है। जिला प्रशासन को कहा गया है कि नियम के तहत यदि यहजमीन नहीं मिल सकती तो किसी अन्य स्थान पर संस्थान के मुख्यालय के लिए जमीन दी जाए। उत्तराखंड की बोली भाषा को बढ़ावा देने के लिए 24 फरवरी वर्ष 2009 को भाषा संस्थान की स्थापना की गई, लेकिन तब से भाषा संस्थान का अपना मुख्यालय भवन नहीं है। जो शुरू से ही किराये के भवन में चल रहा है। छह अक्तूबर 2020 को तत्कालीन मुख्यमंत्री ने ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण में इसके मुख्यालय की
स्थापना की घोषणा की थी। संस्थान के लिए भूमि खरीदने के लिए 50 लाख की व्यवस्था भी की गई, लेकिन सीएम की घोषणा के बावजूद संस्थान का मुख्यालय पहाड़ में नहीं बन पाया।

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पूर्व विभागीय मंत्री इसे गैरसैंण के स्थान पर हरिद्वार में बनाना चाहते थे। जबकि विभागीय मंत्री इसका मुख्यालय देहरादून में
बनाने की तैयारी में हैं। इसके लिए पिछले दिनों सहस्त्रधारा रोड में जमीन चिन्हित की गई थी। जिला प्रशासन को संस्थान के मुख्यालय के लिए जमीन भाषा संस्थान को हस्तांतरित करनी थी, लेकिन अब इसमें अड़चन आ गई है। विभाग की निदेशक के मुताबिक यह भूमि पठाल वाली भूमि है। बताया गया है नियम के तहत इसे भाषा संस्थान को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। उत्तराखंड भाषा संस्थान पहाड़ और मैदान की राजनीति में लटक गया है। कुछ लोग इसे पहाड़ में बनाना चाहते हैं। उनका कहना है कि गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया गया है। इसके बाद वहां विभिन्न संस्थानों की स्थापना की प्रक्रिया शुरू होगी। गैरसैंण में उत्तराखंड भाषा संस्थान की स्थापना की घोषणा इसी दिशा में बढ़ाया गया कदम है, लेकिन कुछ का कहना है कि पहाड़ में जाने को कोई तैयार नहीं है। यदि संस्थान का मुख्यालय गैरसैंण में बनाया गया तो यह कुछ समय बाद खंडहर में तब्दील हो जाएगा। गढ़वाली, कुमाऊंनी भाषा एवं साहित्य पर कई विश्वविद्यालयों में पीएचडी शोध ग्रंथ लिखे जा चुके हैं। वर्ष 1913 में गढ़वाली भाषा का प्रथम समाचार पत्र गढ़वाली समाचार प्रकाशित हुआ। इसके अलावा भी इसकी कई साहित्यिक पृष्ठभूमि है, लेकिन राज्य गठन के 24 साल बाद भी अपनी बोली-भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिलकरने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं हुए।

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उत्तराखंड की राजनीति हमेशा जन भावनाओं के इर्द गिर्द घूमती रही है। इसी के तहत राजनीतिक नफा नुकसान के लिहाज से ही प्रदेश में कई बड़े निर्णय लिए गए। ये निर्णय केवल लिये गये इन पर कोई काम वास्तव में हुआ ही नहीं है। उत्तराखंड में नए जिलों का मामला भी कुछ ऐसा ही है। राज्य स्थापना दिवस के मौके पर 24 सालों में अधर में लटके नए जिलों का मुद्दा खास है।
उत्तराखंड को बनाने में आमजन की सीधी सहभागिता रही, इसमें हर वर्ग का संघर्ष रहा, लेकिन जब राज्य के बारे में सोचने व सरकारों के कार्यो के आकलन का मौका आया तो सभी सरकार से अपनी-अपनी मांगों को मनवाने में लग गए। ऐसा लग रहा है कि उत्तराखंड राज्य का गठन ही कम काम बेहतर पगार, अधिक पदोन्नति और ज्यादा सरकारी छुट्टियों, भर्तियों में अनियमितता व विभिन्न निर्माण कार्यो की गुणवत्ता में समझौता करने के लिए हुआ है। मानो विकास का मतलब विद्यालय व महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, अस्पतालों व मेडिकल कालेजों के ज्यादा से ज्यादा भवन बनाना भर है, न कि उनके बेहतर संचालन की व्यवस्था करना।

हर साल सड़कें बनाना मकसद है, पर हर साल ये क्यों उखड़ रही हैं, इसकी चिंता न तो सरकारें करती हैं और न ही विपक्ष इस पर सवाल उठाता है। जाहिर है कि करोड़ों रुपये के निर्माण में लाभार्थी पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने हैं। उस वर्षगांठ को मनाने का औचित्य ही क्या है जिसमें उपलब्धियों व असफलताओं की बैलेंस सीट ईमानदारी से न खंगाली जाए। अब लोग भी यह पूछने लगे हैं कि अलग राज्य बनने के बाद ऐसा क्या हुआ जो उत्तर प्रदेश में ही रहते तो नहीं हो पाता। अगर कई जमीनी मुद्दों को सत्ताधारी नहीं देखते हैं या छिपाते हैं तो इसके कारण समझ में आते हैं, लेकिन विपक्ष की खानापूर्ति तो चिंता का कारण बनती है। जाहिर है कि इन 24 सालों में जवाबदेह व्यवस्था नहीं बन पाई है।दोनों प्रमुख दलों ने प्रदेश को मुख्यमंत्री तो दिए, लेकिन जननेता नहीं। सत्ता के सिंहासन पर बारी-बारी से दल तो बदले, लेकिन तौर-तरीके नहीं। इन वर्षो में राज्य की राजधानी का मसला तक नहीं सुलझ पाया। आज राज्य के पास गैरसैंण में शीतकालीन राजधानी है व देहरादून में अस्थायी राजधानी। भावनाओं की कीमत पर जमीनी हकीकत से किनारा न किया गया होता तो 21 सालों में स्थायी राजधानी तो मिल ही गई होती। नौकरशाही का खामियाजा आमजन ने भुगता, लेकिन सत्ताधारी तो इसमें भी मुनाफा कमा गए। हर विफलता के लिए नौकरशाही को कोसने वाले सफेदपोश व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थी ही रहे हैं।जब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ तो यह माना जाता रहा कि अब नवोदित उत्तराखंड राज्य की राजनीतिक संस्कृति भी अलग होगी, लेकिन यह हुआ नहीं।

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आज भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश की ही राजनीतिक विरासत ढो रहा है। बस बाहुबल की राजनीतिक संस्कृति से काफी हद तक निजात मिली है, बाकी सारी तिकड़म की राजनीति वहां भी है और यहां भी।मतदाताओं के सामने खड़ी समस्याओं के समाधान से अधिक उनकी भावनाओं के दोहन की फिक्र रही है। कर्मचारी-शिक्षक सबसे बड़ा वोट बैंक बन कर उभरा है। स्थिति यह है
कि आर्थिक स्थिति कैसी भी हो कर्मचारी-शिक्षक यूनियनों के सामने सरकारें नतमस्तक होती रही हैं।यही वजह है कि 24 साल बाद भी आर्थिक-औद्योगिक प्रगति केंद्र की अपेक्षित मदद के बाद भी गति नहीं पकड़ पाई। विकास जो हो रहा है वह पूरी तरह से केंद्र के भरोसे। पीएम का उत्तराखंड के प्रति सकारात्मक रुख के कारण ढांचागत विकास पर तेजी से काम हो रहा है, पर सवाल है कि इतने सालों में प्रदेश इनका लाभ लेने की स्थिति में भी पहुंचा या नहीं। 24 साल में 11 मुख्यमंत्री, राजनीतिक अस्थिरता की कहानी भी बयान करता हैअब सरकारी योजनाएं ठंडे बस्ते में नहीं पड़ी रहेंगी, अलग राज्य बनने के बाद 11 मुख्यमंत्री बन चुके हैं लेकिन पहाड़ के विकास के लिए कोई भी गंभीर नहीं है। पलायन जारी है। कोई ठोस नीति नहीं बनीहै।

राज्य आंदोलनकारी मंच के जिलाध्यक्ष ने कहा कि राज्य के शहीदों और आंदोलनकारियों के अनुरूप उत्तराखंड नहीं बन पाया और न ही शहीदों के हत्यारों को आज तक सजा मिल पाई है।आज आंदोलनकारी इस बात को लेकर खफा हैं कि उनके सपनों का उत्तराखंड नहीं बन पाया। लेकिन जिन मोर्चों पर न्याय की इस लड़ाई को असल में लड़ा जाना था, वहां आंदोलनकारियों की मजबूत पैरवी करने वाला कभी कोई रहा ही नहीं। नतीजा यह हुआ कि न्यायालयों से लगभग सभी मामले एक-एक कर समाप्त होते चले गए और दोषी भी बरी हो गए। बेहद गिने-चुने जो मामले आज भी न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें भी यह उम्मीद अब न के बराबर ही बची है कि दोषियों को कभी सजा हो सकेगी। जब सत्याग्रह ने न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की तो यह कड़वी हकीकत सामने आई कि प्रदेश के शहीदों को बीते 25 सालों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है।

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उत्तर प्रदेश से पृथक पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के लिए सालों तक यहां के लोगों ने आंदोलन किया। जिसमें शहीदों के बलिदान और राज्य आंदोलनकारियों के प्रयास से 9 नवंबर 2000 को पृथक उत्तराखंड राज्य बना। हालांकि तब राज्य का नाम उत्तरांचल रखा गया था। जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसका आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों को लेकर राज्य की जनता आए दिन सड़कों पर रहती है। पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं।लेकिन जब भी
सरकार की इच्छा शक्ति हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है। पर्यटन के क्षेत्र में प्रदेश सरकार के प्रयास रंग ला रहे हैं। दो वर्ष पहले अर्थव्यवस्था में पर्यटन सेक्टर की भागीदारी 37 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 43.7 प्रतिशत हो गई है।

अर्थव्यवस्था को पांच वर्ष में दोगुना करने का सरकार का संकल्प तेजी से आकार ले रहा है।उत्तराखंड राज्य आगामी नौ नवंबर को 24 वर्ष पूरे करने जा रहा है। इस अवधि में विकास का पहिया तेजी से घूमा और अर्थव्यवस्था ने लंबी छलांग लगाई। अर्थव्यवस्था का आकार 24 गुना बढ़ गया, जबकि प्रति व्यक्ति आय में 17 गुना वृद्धि हुई है। आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। उत्तराखंड में सड़क हादसों की बड़ी वजह मौसम, मानवीय भूल यानी लापरवाही और सड़कों का खस्ताहाल होना व वाहनों की स्थिति बड़ी वजह हैं। लेकिन समस्या ये है कि न तो सरकार और न ही प्रशासन इस तरह ध्यान देता है।

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आंकड़े बताते हैं कि राज्य में पिछले 24 साल के दौरान सड़कों दुर्घटनाओं के कारण करीब 20 हजार लोगों की जान जा चुकी है।
पिछले 5 साल में ही करीब 5,500 लोग सड़क हादसे का शिकार हुए हैं। साल दर साल बढ़ रही सड़क हादसों की संख्या चिंता की बात यह है कि पुलिस और परिवहन विभाग के तमाम प्रयासों के बावजूद साल दर साल सड़क हादसों की संख्या कम नहीं हो पा रही है। हालांकि समय-समय पर तमाम जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं।इतना ही नहीं मुख्य सचिव की अध्यक्षता में समय-समय पर सड़क सुरक्षा की बैठकें भी की जाती हैं, लेकिन नतीजा शून्य ही नजर आता है।राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में बहुत कुछ बदला है।लगातार हो रही औद्योगीकरण के चलते उत्तराखंड में कृषि भूमि घट रही है है। कृषि उत्तराखंड राज्य में 70 फीसदी से अधिक भू-भाग वन क्षेत्र हो और खेती के लिए बेहद सीमित भूमि बची हो, वहां खेती- राज्य इस कारण उन स्थानों से रोजी रोटी की व्यवस्था में लोग पलायन कर गये हैं और अभी कर रहे हैं। इन एक दो दशकों में तो बहुत सारे गांव सूने पड़ गये है। लोगों के घरों में ताले लग गये हैं। मिट्टी और लकड़ी के बने घर उजाड़ हो गये हैं। उन घरों का कोई रखवाला भी नहीं रहा है। लोग अपने बच्चों सहित शहरों की ओर कूच कर गये हैं। उन्हें अब इस बात की चिंतां रहती है कि वे अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा अच्छे प्राइबेट स्कूलों में करायें, ताकि उनका भविष्य उज्ज्वल हो सके। इस कारण इस क्षेत्र का युवा काम की तलाश में बाहर निकल रहा है, इसी वजह से गांवों में काम करने वालों की निरंतर कमी हो रही है। यही कारण पूरे उत्तराखंड का है जो पलायन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। दूसरी ओर जो बीज यहां के मौसम के हिसाब से उपजते थे उनको न बोने की वजह से पैदावार भी नहीं हो पा रही है।

(लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।)

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