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पहली रक्तहीन क्रांति थी कुली बेगार प्रथा

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पहली रक्तहीन क्रांति थी कुली बेगार प्रथा

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

बागनाथ मंदिर,भारत के उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में सरयु और गोमती नदियों के संगम पर बागेश्वर शहर में स्थित है। बागनाथ मंदिर भगवान शिव को पूणतः समर्पित है। इस मंदिर में शिवरात्रि के अवसर पर भक्तों की बहुत बढ़ी संख्या भगवान शिव के दर्शन के लिए आते है। बागेश्वर शहर को यह नाम इस मंदिर से मिला है। हिंदू किंवदंती के अनुसार, ऋषि मार्कंडेय ने यहां भगवान शिव की पूजा की थी। भगवान शिव ने बाघ के रूप में यहां आकर ऋषि मार्कंडेया को आशीर्वाद दिया था। यहां उत्तरायणी मेला हर साल जनवरी महीने में मकर संक्रांति के अवसर पर आयोजित किया जाता है। मेले के धार्मिक अनुष्ठान में संगम पर मेले के पहले दिन स्नान करने से पहले स्नान होता है। स्नान के बाद, मंदिर के अंदर भगवान शिव को पानी अर्पित करना आवश्यक माना जाता है। इस धार्मिक अनुष्ठान को तीन दिनों तक किया जाता है जिसे ‘त्रिमाघी’ के नाम से जाना जाता है।

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उत्तराखंड के बागेश्‍वर जिले में सरयू के बगड़ में सौ साल पहले कुली बेगार प्रथा के विरोध में जन्मी रक्तहीन क्रांति की सफलता के पीछे बागनाथ की कांति थी। आंदोलन के नेताओं को हिरासत में लेने का तत्कालीन जिलाधिकारी डब्ल्यूसी डायबल का नोटिस भी वहां उमड़े जन समूह के आगे बेअसर हो गया था। यह आंदोलन का ही प्रभाव था कि बाद में महात्मा गांधी ने अपने यंग इंडिया समाचार पत्र में इसे रक्तहीन क्रांति की संज्ञा दी थी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कुली बेगार प्रथा के खिलाफ शुरू हुए जनांदोलन ने खूब सुर्खियां बटोरी थी। बागनाथ को
साक्षी मानते हुए जन सैलाब को बेगार कुप्रथा का पालन नहीं करने की शपथ दिलाने और तत्कालीन सरकार से इसे वापस लेने की पं. बदरी पांडे की गर्जना भी वहां मौजूद अल्मोड़ा के तत्कालीन जिलाधिकारी डायबल को कार्रवाई के लिए बाध्य नहीं कर सकी। इसी के साथ हजारों प्रधानों के अपने कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित करने का साहस इतिहास में कुमाऊं की रक्तहीन क्रांति के नाम से विख्यात हो गया।

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आंदोलन को गढ़वाल में पं. अनुसुइया प्रसाद बहुगुणा ने संचालित किया था। इसी की सफलता के बाद  बदरी दत्त पांडे व अनुसुइया प्रसाद बहुगुणा को क्रमश: कुमाऊं व गढ़ केसरी का सम्मान दिया गया था। मकर संक्रांति यानी उत्तरायणी के दिन ही इस कुप्रथा का अंत हुआ था। ब्रिटिशकाल में कुमाऊं कमिश्नरी के अंतर्गत बेगार प्रथा करीब 105 वर्ष तक यानी 1815 से 1921 तक रही। लेकिन इस प्रथा का प्रतिरोध प्रारंभ से ही होता रहा। 1913 के बाद बेगार प्रथा के खिलाफ जनांदोलन ऐसा भड़का कि 1921 में उत्तरायणी के बागेश्वर में कुली कुप्रथा का ही खात्मा कर दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार की किताब उत्तराखंड का समग्र राजनीतिक इतिहास में उल्लेख है कि कमिश्नर ट्रेल ने इस प्रथा को हटाने और खच्चर सेना को विकसित करने का प्रयास किया था, लेकिन प्रथा समाप्त न की जा सकी। 1840 में ग्रामीणों ने अपने उत्पादों को लोहाघाट छावनी में रख दिया। साथ ही सैनिक सामग्री को ले जाने से भी मना कर दिया। इससे 1844 में तीर्थयात्रियों को सोमेश्वर से अल्मोड़ा के बीच पर्याप्त कुली नहीं मिले।

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1850 में जब बिसाड़ पिथौरागढ़ के ग्रामीणों से बेगारी कराई तो उन्होंने विरोध करते हुए खुद को बेगार मुक्त कराया। 1857 में कमिश्नर रैमजे को जेल के कैदियों को इस काम में लगाना पड़ा। कुमाऊं परिषद के काशीपुर अधिवेशन में ही यह निर्णय लिया गया था कि उत्तरायण के मेले में जब पहाड़ के कोने-कोने से जनता एकत्रित होगी तो उनके मध्य बेगार विरोधी प्रचार अधिक सफल होगा। नागपुर कांग्रेस से लौटने के बाद 10 जनवरी 1921 को चिरंजीलाल साह, बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत सहित कुमाऊं परिषद के लगभग 50 कार्यकर्ता बागेश्वर पहुंचे। 12 जनवरी को दो बजे बागेश्वर में जलूस निकला। जुलूस की परिणति विशाल सभा के रूप में हुई, जिसमें 10 हजार से अधिक लोग उपस्थित थे। 13जनवरी को मकर संक्रांति के दिन दोपहर एक बजे के आसपास सरयू नदी के किनारे पर आमसभा आयोजित की गई। इसी समय कुछ मालगुजारी अपने गांव के कुली रजिस्टरों को सरयू में डुबो दिया।

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14 जनवरी 1921 को बद्रीदत्त पांडे ने अत्यधिक उत्तेजनापूर्ण भाषण देते हुए समीप में स्थित बागनाथ मंदिर की ओर संकेत करते हुए जनता को शपथ लेने का आह्वान किया। सभी लोगों ने एक स्वर में कहा, हम कुली नहीं बनेंगे और कुली रजिस्टर फिर से सरयू में फेंक दिए गए। इसे पहली रक्तहीन क्रांति के नाम से भी संबोधित किया जाता है। जिस समय बागेश्वर में कुली उतार, कुली बेगार व कुली बर्दायश नामक कुप्रथा को समाप्त करने के लिऐ जनता उत्तेजित थी, उस समय डिप्टी कमिश्नर डायबिल जनता को गोलियों से भून देना चाहता था लेकिन तब कूर्मांचल केसरी बद्रीदत्त पांडे की ललकार और अपनी शक्ति सीमित देखकर डिप्टी कमिश्नर ने गोली चलाने का निर्णय वापस ले लिया। 15 जनवरी, जिस दिन अंग्रेज अधिकारियों को यहां से वापस लौटना था, उन्हें कुली नहीं मिले। अंग्रेज अधिकारी पहाड़ के भ्रमण पर जाते थे, उनके सामान को उठाने के लिए स्थानीय जनता को निश्शुल्क व्यवस्था करनी होती थी। इसे कुली उतार कहा जाता था।

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अंग्रेज अधिकारियों के लिए उस दौरान निश्शुल्क काम करना पड़ता था। इसे कुली बेगार कहा जाता था जबकि अंग्रेज अधिकारियों के लिए भोजन व्यवस्था करने वाले को कुली बर्दायश कहा जाता था। बागेश्वर के पास पुण्य सलिला सरयू में खड़े रह कर अंजलि से सूर्य भगवान को अर्ध्य चढ़ाते हुए ,उन्होंने प्रतिज्ञा की कि मर जायेंगे, परन्तु बेगारी जुल्म को जरा भी बर्दाश्त नहीं करेंगे। इन सबका आत्म बल इतना ऊँचा सिद्ध हुआ कि तत्काल बेगारी के असुर को कुमाऊँ प्रदेश से विदा लेनी पड़ी।गाँव-गाँव में प्रत्येक घर के ऊपर बेगारी की बारी का जो क्रम बना हुआ था उस क्रम वाली बहियों को सरयू जल में समाधि दे दी गई और ब्रिटिश सेना के गोरे सैनिकों का अत्याचार भी बेगारी को पुनः चालू नहीं करा सका। इस प्रकार भयानक पशुबल के सामने पहाड़ी भाइयों के आत्मबल ने शत प्रतिशत विजय पाई। इस घटना के आठ वर्ष बाद गाँधी ने अल्मोड़ा की यात्रा की। बागेश्वर में हजारों लोग गाँधी जी के दर्शन के लिए इकट्ठे हुए। सबके मन में यह भावना थी कि गाँधी ने अपने जादू से पुरखों के जमाने से चली आ रही बेगारी को दूर कर दिया। प्राचीन काल से ही कुमाऊं के गरिमामय और गौरवपूर्ण इतिहास का साक्षी रहा है।

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आजादी के आंदोलन में कुली बेगार प्रथा को समाप्त करने के लिए वर्ष 1921 में हुए आंदोलन के साथ इस मेले का राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की दृष्टि से भी विशेष महत्त्व है। राष्ट्रीय धरातल पर देखा जाए तो उत्तराखंड को यह श्रेय भी जाता है कि समूचे देश में अंग्रेजों की हुकूमत के विरुद्ध जो आजादी की लड़ाई का पहला बिगुल बजा, उसका निर्भीक नेतृत्व कुमाऊं और गढ़वाल के स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा उत्तराखंड की वादियों में ही किया गया था। उत्तराखंड के इसी उत्तरायणी के जन आंदोलन से ही गांधी जी को ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ आजादी की लड़ाई के लिए सत्याग्रह की प्रेरणा मिली थी। उत्तराखंड के इतिहास की दृष्टि से भी सन् 2021 के उत्तरायणी मेले का यह साल स्वतंत्रता आंदोलन का शताब्दी वर्ष होने के कारण विशेष महत्त्वपूर्ण है। किंतु विडम्बना यह है कि न तो हमारे उत्तराखंड की राज्य सरकार और न केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के इस उत्तरायणी मेले के शताब्दी वर्ष का कोई संज्ञान लिया और न ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने,जिसके नेतृत्व में  कुली बेगार प्रथा के विरुद्ध यह आंदोलन लड़ा गया था।

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एक इतिहासकार का कथन है कि यदि आपको अपनी आजादी की रक्षा करनी है तो अपने स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को सदा याद रखना चाहिए और उन स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मानित भी करना चाहिए.हमारी उत्तराखंड की सांस्कृतिक संस्थाओं के लिए भी आज उत्तरायणी महज एक सांस्कृतिक पर्व के रूप में याद है, इसके शताब्दी वर्ष के राष्ट्रीय महत्त्व के प्रति वे उदासीन ही नज़र आते हैं। इस आन्दोलन की सफलता के कारण अंग्रेज हुक्मरानों को कुली बेगार जैसे काले कानून को वापस लेना पड़ा। इस जन आंदोलन के सफल होने के बाद  बद्रीदत्त पाण्डे को ‘कुमाऊं केसरी’ और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा को ‘गढ़ केसरी’  का खिताब जनता द्वारा दिया गया था। उत्तराखंड के जन आंदोलन का यह इतना सशक्त आंदोलन था जिसकी परिणति बाद में सन 1942 में अगस्त की सल्ट क्रांति के रूप में हुई। स्वतंत्रता आंदोलन की शताब्दी वर्ष के अवसर पर मकर संक्रान्ति और ‘उत्तरायणी’ पर्व की सभी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएं। लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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