खत्म हो रहे गंगाजल को अमृत बनाने वाले मित्र जीवाणु (friendly bacteria) - Mukhyadhara

खत्म हो रहे गंगाजल को अमृत बनाने वाले मित्र जीवाणु (friendly bacteria)

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खत्म हो रहे गंगाजल को अमृत बनाने वाले मित्र जीवाणु (friendly bacteria)

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

इस फिल्म को बेहद ही खूबसूरती से बनाया। गंगा जो पहाड़ों से निकलती है तो निर्मल और पवित्र होती है लेकिन मैदान की तरफ जाते जाते वो मैली होती जाती है। फिल्म का तात्पर्य भी कुछ यही था। गंगा नाम की लड़की जो पहाड़ों में रहती है, निर्मल और पवित्र लेकिन जब पहाड़ों को छोड़ वो दूसरे शहर आती है तो उसे जीवन के सबसे बुरे अनुभव प्राप्त होते हैं। गंगा को पवित्र और निर्मल बनाए रखने के लिए अनेकों अभियान
चलाए जा रहे हैं। गंगा और उसके जल को बचाने के लिए चलाए जा रहे अभियान के तहत अरबों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। उसी गंगा के जल के मुगलकालीन शासक भी मुरीद थे। मुगल काल में गंगाजल को मिनरल वाटर से कम नहीं माना जाता था। सुबह के नाश्ते के समय, दोपहर के भोजन और यहां तक कि शिकार पर निकलने वक्त मुगल शासक गंगाजल को साथ लेकर चलते थे और इसे मिनरल वाटर के तौर पर सेवन करते थे। बादशाह अकबर से लेकर मुगल शासक औरंगजेब तक गंगा का अमृत सरीखा जल पीते रहे। पेशवा तो इतने क्रेजी थे कि खासतौर पर काशी से पूना और श्रीरामेश्वरम तक कावड़ी में गंगाजल मंगवाते थे।

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सन 1325 से 1354 तक मोरक्को के यात्री इब्नबतूता ने एशियाई यात्रा के विवरण में लिखा कि सुलतान मुहम्मद तुगलक के लिए गंगाजल नियमित रूप से दौलताबाद पहुंचाया जाता। अबुलफजल ने आइनेअकबरी में बादशाह अकबर के गंगाजल प्रेम पर विस्तारपूर्वक लिखा। इसके मुताबिक विश्वासपात्र कर्मचारी घड़ों में गंगाजल भरकर राजकीय मुहर लगाते और अकबर के दैनिक प्रयोग के लिए रवाना कर देते। अकबर घर और सफर में केवल गंगाजल ही सेवन करते थे। उनके आगरा या फतेहपुर सीकरी रहने पर सोरों से गंगाजल आता था। पंजाब में प्रवास के दौरान अकबर हरिद्वार से गंगा जल मंगाकर सेवन करते थे। भोजन तैयार करते समय भी गंगाजल मिला दिया जाता था।

रुड़की निवासी शिक्षाविद् के अनुसार गंगाजल को मुसलमान शासक सर्वश्रेष्ठ जल मानते थे और उनके लिए यह आज के मिनरल वाटर से कम नहीं था। उन्होंने बताया कि फ्रांसीसी चिकित्सक और इतिहासवेत्ता बर्नियर ने यात्रावृत्तांत में लिखा कि औरंगजेब सफर में गंगाजल रखता था। सुबह के नाश्ते में इसका प्रयोग होता। दरबारी भी नियमित सेवन करते थे। मुगल काल में फ्रांसीसी यात्री टैवर्नियर के भारत आए। उनके यात्रा
विवरण में उल्लिखित है कि हिंदुओं के विवाह समारोहों में भोजनोपरांत अतिथियों को गंगाजल पिलाने का रिवाज था। दूर से गंगाजल मंगाने में काफी खर्च आता। उस वक्त तो कभी-कभी तीन-चार हजार रुपये खर्च हो जाते, जो बजट का बड़ा हिस्सा होता। 1934 में प्रकाशित मराठी पुस्तक पेशवाइच्या सावलींत में लिखा गया है कि पेशवाओं के लिए काशी से पूना गंगाजल ले जाने पर प्रति बहंगी या कावड़ी दो रुपये तथा पूना से श्रीरामेश्वरम ले जाने में चार रुपये खर्च होते। गढ़मुक्तेश्वर, हरिद्वार से भी गंगाजल भेजा जाता था।

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1896 में संयुक्त प्रांत और मध्य प्रांत के तत्कालीन केमिकल एक्जामिनर हैनबरी हैंकिन ने अपने एक लेख में चिंता जताई थी कि बीते दौर में स्वच्छता के मानकों पर शतप्रतिशत खरे उतरने वाले गंगाजल में प्रदूषण की मात्रा लगातार बढ़ रही है। इसे रोका जाना चाहिए। लेकिन कड़वा सच यही है कि आगे चलकर इस खतरे के प्रति बारीकी से ध्यान नहीं दिया गया, जिसका नतीजा आज पवित्र गंगा के दिनोंदिन प्रदूषित होते स्वरूप की शक्ल में सबसे सामने है। गंगा की सहायक नदियों अलकनंदा और भागीरथी की सेहत ठीक नहीं है। पानी को सेहतमंद बनाने
वाले मित्र जीवाणु(माइक्रो इनवर्टेब्रेट्स) प्रदूषण के कारण तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। इस बात का खुलासा वैज्ञानिकों के शोध से हुआ है भागीरथी नदी में गोमुख से लेकर देवप्रयाग तक कई स्थान पर या तो मित्र जीवाणु पूरी तरह नदारद हैं या उनकी संख्या बेहद कम है। यही स्थिति अलकनंदा नदी में माणा से लेकर देवप्रयाग तक पाई गई है।

वैज्ञानिकों के अनुसार दोनों नदियों में माइक्रो इनवर्टिब्रेट्स का कम पाया जाना इस बात का संकेत है कि यहां पानी की गुणवत्ता फिलहाल ठीक नहीं है। वैज्ञानिकों की टीम विस्तृत रिपोर्ट है। ऑल वेदर रोड के साथ ही नदियों के किनारे बड़े पैमाने पर किए जा रहे विकास कार्यों का मलबा सीधे नदियों में डाला जा रहा है। नदियों के किनारे बसे शहरों के घरों से निकलने वाला गंदा पानी बगैर ट्रीटमेंट के नदियों में प्रवाहित किया जा रहा है। बैट्रियाफोस बैक्टीरिया की वजह से बनी रहती है गंगाजल की शुद्धतापूर्व में जलविज्ञानियों द्वारा किए गए शोध में यह बात सामने आई है कि गंगाजल में बैट्रियाफोस नामक बैक्टीरिया पाया जाता है जो गंगाजल के अंदर रासायनिक क्रियाओं से उत्पन्न होने वाले अवांछनीय पदार्थ को खाता रहता है।इससे गंगाजल की शुद्धता बनी रहती है।

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वैज्ञानिकों की माने तो गंगाजल में गंधक की बहुत अधिक मात्रा पाए जाने से भी इसकी शुद्धता बनी रहती है और गंगाजल लंबे समय तक खराब नहीं होता है। महज एक किमी के बहाव में खुद ही गंदगी साफ कर लेती है गंगा वैज्ञानिक शोधों से यह बात भी सामने आई है कि देश की अन्य
नदियां पंद्रह से लेकर बीस किलोमीटर के बहाव के बाद खुद को साफ कर पाती हैं और नदियों में पाई जाने वाली गंदगी नदियों की तलहटी में जमा हो जाता है। लेकिन, गंगा महज एक किलोमीटर के बहाव में खुद को साफ कर लेती है। मित्र जीवाणुओं की संख्या कहीं कहीं 15 फीसदी से भी कम दोनों नदियों में मित्र जीवाणुओं का अध्ययन ईफेमेरोपटेरा, प्लेकोपटेरा, ट्राइकोपटेरा (ईपीटी) के मानकों पर किया गया। यदि किसी नदी के जल में ईपीटी इंडेक्स बीस फीसदी पाया जाता है तो इससे साबित होता है कि जल की गुणवत्ता ठीक है। यदि ईपीटी इंडेक्स तीस फीसदी से अधिक है तो इसका मतलब पानी की गुणवत्ता बहुत ही अच्छी है। लेकिन, दोनों नदियों में कई जगहों ईपीटी का इंडेक्स 15 फीसदी से भी कम पाया गया है जो चिंताजनक पहलू है।

दोनों नदियों में अलग-अलग स्थानों पर मित्र जीवाणु (माइक्रो इनवर्टिब्रेट्स) की जांच की। नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) के तहत वैज्ञानिकों ने अलकनंदा नदी में माणा (बदरीनाथ) से लेकर देवप्रयाग तक और भागीरथी नदी में गोमुख से लेकर देवप्रयाग तक अध्ययन किया। गंगाजल में है ऑक्सीजन सोखने की अद्भुत क्षमता वैज्ञानिकों की माने तो गंगाजल में अन्य नदियों के जल की तुलना में वातावरण से ऑक्सीजन सोखने की क्षमता बहुत अधिक होती है। दूसरी नदियों की तुलना में गंगा में गंदगी को हजम करने की क्षमता 20 गुना अधिक पाई जाती है। 20 गुना अधिक है गंगा में गंदगी हजम करने की क्षमता गंगा की सहायक नदियां भागीरथी, अलकनंदा, महाकाली, करनाली, कोसी, गंडक, सरयू, यमुना, सोन नदी और महानंदा नदियां गंगा की मुख्य सहायक नदियां हैं। देश जीवनदायिनी गंगा के प्रति उदासीन क्यों हो गया है। गंगा जो इस देश का आधार और इसकी संस्कृतियों की संवाहक है। वैसे इस अंधेरे में भी प्रकाश की किरणें नजर आ रही हैं जो सुखद संकेत है। देश के विभिन्न हिस्सों में गंगा के प्रदूषण के प्रति जनमानस में चिंता जगाने, उन्हें गंगा की रक्षा में प्रवृत्त करने की दृष्टि से कई प्रयास किये जा रहे हैं। इनमें ही एक गंगा आरती है जो हरिद्वार के परमार्थ आश्रम में वर्षों से होती आ रही है। बनारस में भी होती है पिछले कुछ दिनों से हावड़ा के रामकृष्णपुर घाट में भी अशोक पांडेय के नेतृत्व में कुछ उत्साही लोगों ने ऐसी ही आरती शुरू की है जिसका उद्देश्य गंगा के प्रदूषण के बारे में जन जागरण फैलाना है।

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माना कि ऐसे प्रयासों से गंगा प्रदूषण मुक्त नहीं होगी लेकिन इससे गंगा की दुर्दशा के बारे में देश में चिंता जगाने का काम तो किया ही जा सकता है जो संभव है कल एक ऐसे सद्प्रयास में बदल जाये जो गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के सत्कार्य में सहभागी बन जाये। गंगा को भगवान का ही रूप मानने वाले एक महान व्यक्ति हैं केंद्रीय विश्वविद्यालय इलाहाबाद के वनस्पति विज्ञान वित्भाग के वरिष्य़ आचार्य जो गंगा को प्रदूषण मुक्त कराने के संकल्प ले चुके हैं। उन्होंने कहा है कि गंगा को प्रदूषम मुक्त करा कर ही वे उसमें स्नान करेंगे। वे प्रदर्शनियां लगा कर और गोष्ठियां आदि आयोजित कर गंगा के प्रदूषण और उसके खतरों के बारे में जनजागरण फैलाते हैं और इस अभियान से करोड़ो लोग जुड़ चुके हैं। वे तथा उनकी तरह के अन्य लोगों के प्रयास से यह आशा जगी है कि पावन सुरसरी आज नहीं तो कल अवश्य प्रदूषण मुक्त होगी।

गंगा एक्शन प्लान के तहत 1990 तक गंगा को पूरी तरह से प्रदूषण मुक्त हो जाना था लेकिन वह हुआ नहीं। अभी सरकार से कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि वह योजनाएं बनाने में माहिर होती है उसका कार्यान्वयन जरूरी नहीं कि हमेशा हो और वह भी सुचारू रूप से। ऐसे में देशवासियों को वे जहां हैं वहीं से गंगा को बचाने का प्रयास करना है। अगर कहीं भी ऐसी कोई औद्योगिक इकाई स्थापित होती है जिसका प्रदूषित कचड़ा गंगा में जायेगा तो स्थानीय जनता को अधिकारियों से अनुरोध कर पहले उस कचड़े के शुद्धीकरण का संयंत्र लगवाने की शर्त रखवानी चाहिए। वह बन जाये तभी कारखाने को बनाने की अनुमित दी जानी चाहिए। अगर इस नियम का कड़ाई से पालन हो (जो अभी तक शायद उस तरह नहीं हुआ जैसा होना चाहिए) तो कचड़ा स्वच्छ जल के रूप में गंगा में मिलेगा और इस तरह से उसके प्रदूषण को कम करने में मदद मिलेगी। हर नागरिक को गंगासेवक बनना है और गंगा को और नुकसान न पहुंचे इसके लिए चौकस रहना है। ऐसा न हुआ तो गंगा का अस्तित्व मिट
जायेगा फिर न पूजा के लिए इसका शुद्ध जल उपलब्ध होगा न इसके तट किसी पावन पर्व में स्नान लायक रह जायेंगे।

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शायद वह दिन कोई सच्चा हिंदुस्तानी नहीं देखना चाहेगा। क्योंकि गंगा न रही तो फिर सुहागन किससे निहोरा करेगी-गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो सैंया से करदे मिलनवा। सुहागन की मनकामना पूरी होती रहे, वह अपने सैंयां की सलामती के लिए गंगा मैया में चुनरी चढ़ाती रहे, पुण्य सलिला मां गंगा भारत भूमि पर अपने स्वच्छ अमृतमय जल के साथ अनवरत काल तक अबाध प्रवाहमान रहे यही हम सबकी कामना और प्रार्थना है। देशवासियो जागो, गंगा को बचाओ, गंगा की रक्षा आत्म रक्षा है। गंगा नहीं बची तो भारत का अस्तित्व भी संकट में आ जायेगा।

गंगा है देश का मान, देश की जान है गंगा। भारत के भारत होने की पहचान है गंगा।

जय जय गंगे, जय जय मां गंगे

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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