गीत के जरिए पहाड़ों को दुखों से लड़ने की हिम्मत देने वाले लोक गायक हीरा सिंह राणा (Heera Singh Rana) - Mukhyadhara

गीत के जरिए पहाड़ों को दुखों से लड़ने की हिम्मत देने वाले लोक गायक हीरा सिंह राणा (Heera Singh Rana)

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गीत के जरिए पहाड़ों को दुखों से लड़ने की हिम्मत देने वाले लोक गायक हीरा सिंह राणा (Heera Singh Rana)

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

हीरा सिंह राणा का जन्म मनीला के डढूली गांव में 16 सितंबर 1942 को मोहन सिंह और नारंगी देवी के घर में हुआ। हीरा सिंह राणा उत्तराखंड के उन कलाकारों में से हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन उत्तराखंड की लोक संस्कृति को समर्पित किया। हीरा सिंह राणा ने 70 के दशक में हीरा सिंह राणा ने कालजयी गीतों से अपनी पहचान बनाई। देश विदेश में विभिन्न मंचों तक उत्तराखंड की लोक संस्कृति को पहुंचाया। 1987  में प्यूली व बुराशं नाम से उनका कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान उनके जनगीत लस्का कमर बॉदा हिम्मत क साथा, भोल फिर उजियाली होली कालै रैली राता ने राज्य आंदोलन में एक नई ऊर्जा का संचार किया। हीरा सिंह राणा के गीतों में पहाड़ बसता है।  कहीं गीतों में पहाड़ पर पड़ने वाली धूप से उपजा श्रृंगार है तो कहीं बंजर पड़े पहाड़ की पीड़ा है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद चली लूस-
खसोट और खोखले विकास पर दुःख और टीस उनके गीतों में सहज दिखती है।

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हीरा सिंह राणा के जन्मदिन पर आज उनके गीत की यह पंक्ति खूब याद आती हैराणा जी ने प्राथमिक शिक्षा और हाई स्कूल की परीक्षा मानिला से प्राप्त की। उसके बाद हायर सेकण्डरी दिल्ली से पास करने बाद उन्होंने दिल्ली में सेल्समैन की नौकरी शुरु की, जिसमें उनका मन नहीं
लगा और इस नौकरी को छोड़कर वह संगीत की स्कॉलरशिप लेकर कलकत्ता चले गए।  वहां से वापस आने के बाद राणा क संगीत क सफ़र शुरु हो गया।  १९६५ में राणा जी गीत व नाटक प्रभाग में रहे, जिसके बाद विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से संगीत की सेवा में लगे रहे।हीरा सिंह राणा जी ने उत्तराखंड के स्थानीय कलाकारों का दल नवयुवक केंद्र ताड़ीखेत 1974 ,  हिमांगन कला संगम दिल्ली 1992, पहले ज्योली बुरुंश (1971), मानिला डांडी 1985, मनख्यु पड़यौव में 1987, के साथ उत्तराखण्ड के लोक संगीत के लिए काम किया। इस बीच राणा ने  कुमाउनी लोक गीतों के उनकी प्रमुख एल्बम ( कैसेट में) हैं:-

रंगीली बिंदी
रंगदार मुखड़ी
सौमनो की चोरा
ढाई विसी बरस हाई कमाला
आहा रे ज़माना
बन्धारी को पाणि

राणा ने कुमाऊँनी संगीत को नई दिशा दी और नयी ऊचाँई पर पहुँचाया. राणा ने ऐसे गाने बनाये जो कुमाऊँ की संस्कृति और रीति-रिवाज को बखुबी दर्शाते हैं। यही वजह कि भूमंडलीकरण के इस दौर में हीरा सिंह राणा के गीत खूब गाए बजाए जाते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नही होगा कि हीरा सिंह राणा जी जैसा कलाकार सदियों में पैदा होता हैं और उनके जैसा बनने के लिए किसी कलाकार को कठोर श्रम करना पड़ता है।  तब जाकर भी कोई-कोई कलाकार राणा जी तक छणिक भर पहुंच पाता है।  यही सही अर्थों में किसी गायक और गीतकार के हीरा सिंह राणा होने के मायने हैं।  इसलिए कहा भी जाता है कि संगीत से भेदभाव, राजनीति में उठापटक और वीरान होते पहाड़ के दर्द को उकेरने वाले लोकगायक हीरा सिंह राणा पहाड़ों की लोक आवाज़ है। जिसने कुमाऊँ के लोक संगीत को नयी पहचान ही नहीं दिलाई बल्कि विश्व सांस्कृतिक मंच पर नयी पहचान के साथ स्थापित भी किया।

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स्वय़ं राणा का कहना है कि जब तक शरीर में प्राण है तक तक वो गाते रहेंगे और नौनिहालों को अपनी लोक संस्कृति एवं लोक परंपराओं से रूबरू कराते रहेंगे। वो चाहते हैं कि हमारे नौनिहाल अपनी भाषा-बोली के प्रति जागरूक हो अपने लोक संस्कृति को जाने समझे।अपने लोकगीतों को समझे अपने गीतों में उकरी पीड़ा को जानने की कोशिश करे। जो लोक गीत बिखरे हुए हैं, उन्हें संकलित करने का प्रयास करे हीरा सिंह राणा पूरे उत्तराखंड में हिरदा के नाम से प्रचलित थे और उनके कुमाउंनी गीतों की एलबम रंगीली बिंदी, रंगदार मुखड़ी, सौ मनों की चोरा, ढाई बीसी बरस हाई कमाला, आहा रे जमाना जैसे गीत आज भी बेहद लोकप्रिय हैं। इस दौरान आकाशवाणी नजीबाबाद, लखनऊ और दिल्ली से भी उनके कई गीत प्रसारित हुए।

उनका एक बहुप्रसिद्ध गीत रंगीली बिंदी, घाघरी काई.. धोती लाल किनार वाई आज भी लोगों की जुबान पर सुनाई पड़ता है तो पहाड़ियों के सामने हिरदा की स्मृति ताज़ा हो जाती है। हिरदा के गीतों में अक्सर पहाड़ के जल जंगल और जानवरों का भी खूब जिक्र देखने को मिला है।
चाहे उनका गीत “आ ली ली बाकरी ली ली छु छु ” हो या फिर मेरी मानिला डानी.. हो उनके ” लस्का कमर बांधा ” को खूब सराहा गया है। गढ़वाली- कुमाऊंनी,- जौनसारी भाषा अकादमी दिल्ली के पहले उपाध्यक्ष लोकगायक हीरा सिंह राणा को फरवरी 2020 में भारत सरकार संगीत नाटक अकादमी ने अकादमी सलाहकार नियुक्त किया था। ‘त्यर पहाड़, म्यर पहाड़, हय दुखों क ड्यर पहाड़। बुजुर्गोंल ज्वड पहाड़, राजनीतिल त्वड पहाड़। ठ्यकदारोंल फोड़ पहाड़, नान्तिनोंन छोड़ पहाड़।’ जैसे गीत रचकर पहाड़ों की वेदना को उकेरने वाले हीरा सिंह राणा पहाड़ के हर छोटे-बड़े आंदोलन में भी सक्रिय रहा करते थे। पहाड़ों के हर सुख-दुःख में साथ रहने वाले हीरा सिंह राणा अपने गीत के जरिए पहाड़वासियों को हर मुसीबत का सामना बहादुरी के साथ करने का भी हौसला देते रहे।

राज्य आंदोलन में जनगीत ने दी थी धार उत्तराखंड राज्य आदोलन में हिरदा के जनगीत ” लस्का कमर बांधा, हिम्मत क साथा। भोल फिर उजियाली होली, कैले रैली राता..” ने नई ऊर्जा व धार दी। उनका गीत ” दिन आनै जानैं रया, हम बाटिकै चाने रया, सांसों की धागी आसूं का हम फूल गठाने रया..” पहाड़ प्रेम व पलायन की पीड़ा बयां करता है। एक ऐसा राज्य जिसका हिस्सा बनना दुनिया के हर शख्स की चाहत होती है। भिन्न संस्कृति होने के बाद भी वह दूसरों को अपनी ओर खींचता है। यहां के लोकसंगीत केवल पहाड़ियों को हीं नही बल्कि किसी को भी थिरकने पर मजबूर कर देते हैं। एक ऐसा ही गाना है रंगिली बिंदी घाघरी काईज् जो हीरा सिंह राणा द्वारा गाया था और पूरी दुनिया में छा गया। आज ये गाना दोबारा वायरल हो रहा है क्योकि इसे पहचान देने वाले हीरा अब इस दुनिया में नहीं है।

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हीरा सिंह राणा के कुमाउंनी लोक गीतों के एलबम रंगीली बिंदी, रंगदार मुखड़ी, सौमनो की चोरा, ढाई विसी बरस हाई कमाला, आहा रे जमाना
जबर्दस्त हिट रहे और आज का युवा भी इन गानों को गाने से पीछे नहीं हटते हैं। कुमाऊँ के सौन्दर्य और संघर्षों की झलक दिखाने वाले और कुमाउँनी, गढ़वाली, जौनसारी अकादमी दिल्ली के पहले उपाध्यक्ष हीरा सिंह राणा और स्वतंत्रता संग्राम में आजाद हिन्द फौज के सिपाही के रूप में ब्रिटिश हुकूमत को नाकों चने चबवा देने वाले अमर शहीद वीर केसरी चन्द्र के सम्मान में वेस्ट विनोद नगर वार्ड में रविवार को दो रोड का नामकरण किया गया राज्य बनने से पहले भी पहाड़ में यही कहा जाता था कि यहाँ अफसर एक लोहे का सन्दूक ले कर आता था और तबादले के समय ट्रक भर कर ले जाता था।  राज्य बनने के दो दशक होने पर भी तस्वीर लगभग वैसी ही है कि लुटेरे,तस्कर,भ्रष्ट नेता और नौकरशाह यही कर रहे हैं :अटैच्यूं में भौरो पहाड़लेकिन इस लूटे के खिलाफ लड़ना ही होगा।

संघर्षों के गीतों का शस्त्रागार जो हमारे पास है,उस जखीरे में राणा  के गीत उनके दुनिया से विदा होने के बाद भी हमारे साथ बने रहेंगे। और राणा जी तो आसजगाते हैं :.हिरदा लोक संस्कृति के मजबूत हस्ताक्षर थे, देवभूमि उत्तराखंड के सौंदर्य को अपने गीतों में जिसखूबसूरती से उन्होंने पिरोया, ऐसा शायद ही कोई और कर पाए। उत्तराखंड के पर्यावरणवादी हों, या फिर राजनैतिक दल,पत्रकार हों या साहित्यकार, उत्तराखंड की जन समस्याओं को उतनी बारीकी से नहीं समझ पाए, जितनी आत्मीयता से राणा की कविता ने पहाड़ के दर्द को समझा है. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का सरकारी स्तर पर दोहन हुआ, प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट हुई और जेई और एई मिल बांट कर सरकारी ठेकेदारों से पैसों से जेब भरते रहे, निश्चित रूप से पहाड़ की उस पीड़ा को केवल हीरा सिंह राणा जैसा कवि ही बांच सकता है, जिसकी कविता की आत्मा में पहाड़ बसा हो।  इस दुःख की घड़ी में हीरा सिंह राणा की इस कविता के चंद बोलों को जरा ध्यान से सुनने की जरूरत है  जो उनकी हृदय से निकले अत्यंत मार्मिक स्वर हैं-

सब न्हाई गयी शहरों में,
ठुला छव्टा नगरों में
पेट पावण क चक्करों में,
किराय दीनी कमरों में.
बांज कुड़ों में जम गो झाड़,
त्यर पहाड़ म्यर पहाड़..
क्येकी तरक्की क्येक विकास.
हर आँखों में आंसा आंस..
जेई करण रौ बिल कें पास
ऐई मारण रौ पैसोंक गास
अटैची में भर पहाड़
त्यर पहाड़ म्यर पहाड़’

इतने घनघोर संकट के बावजूद भी जितनी भी हरियाली आज उत्तराखंड में बची है वह इस देव भूमि में विराजमान देवताओं का आशीर्वाद, प्रकृति परमेश्वरी का कृपा प्रसाद और हमारी तपस्यारत नारी शक्ति के कठोर परिश्रम का ही फल है मां,बेटी, बहन तथा पत्नी के रूप में नारी शक्ति की इस राज्य को खुशहाल बनाने में अहम भूमिका रही है।  वह नारी शक्ति ही आज भी उत्तराखंड को हरित क्रांति से जोड़ने के लिए संघर्षशील है।  पलायन के भारी संकट के बाद भी हम जहां इधर उधर एक दूसरे पर आरोप मढ़ने में लगे हैं वहां पहाड़ की नारीशक्ति इस घोर पलायन के दौर में भी बंजर खेतों को हरा भरा करने के लिए अपने दुख सुख की परवाह किए बिना जी जान से जुटी है। उत्तराखंड की धरती से जुड़े कवि हीरा सिंह राणा ने अपने  शब्दों के माध्यम से उत्तराखंड की मातृभूमि को हरितक्रांति से जोड़ने वाली इस नारी शक्ति के संघर्ष को भी इन मार्मिक शब्दों में अपनी भावपूर्ण अभिव्यक्ति से जोड़ा है-

“भ्योव पहाड़ों का गोद गहानैं,

खेतों का बीचम बिणै बजानै.
नांगड़ि खुट्यां मा बुड़िया कानी,
च्यापिंछ पीड़ै कैं क्ये नि चितानी.
पहाड़ा सैणियोंक तप और त्याग,

आफि बणाय जैल आपोंण भाग.
स्वोचौ पहाड़क सैणियोंक ल्हिजी,
जे आजि गों बटी गों में नि पूजी॥”

महानगरीय संस्कृति के प्रभाव से आज कुमाउँनी भाषा और संस्कृति अपनी पहचान खोने के दौर से गुजर रही है ऐसे कठिन दौर में हमारे बीच से हीरा सिंह राणा जैसे लोककवि और दुदबोलि भाषा के उन्नायक लोक गायक का अचानक ही चला जाना बहुत ही दुःखद था भावपूर्ण श्रद्धाजंलि हिरदा।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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