जय जवान जय किसान का नारा देने वाले लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) की पुण्यतिथि पर राष्ट्र कर रहा है नमन - Mukhyadhara

जय जवान जय किसान का नारा देने वाले लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) की पुण्यतिथि पर राष्ट्र कर रहा है नमन

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जय जवान जय किसान का नारा देने वाले लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) की पुण्यतिथि पर राष्ट्र कर रहा है नमन

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता एक स्कूल शिक्षक थे। जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। उनकी माँ अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर जाकर बस गईं।उस छोटे-से शहर में लाल बहादुर की स्कूली शिक्षा कुछ खास नहीं रही लेकिन गरीबी की मार पड़ने के बावजूद उनका बचपन पर्याप्त रूप से खुशहाल बीता। उन्हें वाराणसी में चाचा के साथ रहने के लिए भेज दिया गया था ताकि वे उच्च विद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर सकें। घर पर सब उन्हें नन्हे के नाम से पुकारते थे। वे कई मील की दूरी नंगे पांव से ही तय कर विद्यालय जाते थे, यहाँ तक की भीषण गर्मी में जब सड़कें अत्यधिक गर्म हुआ करती थीं तब भी उन्हें ऐसे ही जाना पड़ता था। बड़े होने के साथ-ही लाल बहादुर शास्त्री विदेशी दासता से आजादी के लिए देश के संघर्ष में अधिक रुचि रखने लगे। वे भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे भारतीय
राजाओं की महात्मा गांधी द्वारा की गई निंदा से अत्यंत प्रभावित हुए।

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लाल बहादुर शास्त्री जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था। गांधी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया था, इस समय लाल बहादुर शास्त्री केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। उनके इस निर्णय ने उनकी मां की उम्मीदें तोड़ दीं। उनके परिवार ने उनके इस निर्णय को गलत बताते हुए उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन वे इसमें असफल रहे। लाल बहादुर ने अपना मन बना लिया था। उनके सभी करीबी लोगों को यह पता था कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं बदलेंगें क्योंकि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अन्दर से चट्टान की तरह दृढ़ हैं।

लाल बहादुर शास्त्री ब्रिटिश शासन की अवज्ञा में स्थापित किये गए कई राष्ट्रीय संस्थानों में से एक वाराणसी के काशी विद्या पीठ में शामिल हुए। यहाँ वे महान विद्वानों एवं देश के राष्ट्रवादियों के प्रभाव में आए। विद्या पीठ द्वारा उन्हें प्रदत्त स्नातक की डिग्री का नाम ‘शास्त्री’ था लेकिन लोगों के दिमाग में यह उनके नाम के एक भाग के रूप में बस गया। 1927 में उनकी शादी हो गई। उनकी पत्नी ललिता देवी मिर्जापुर से थीं जो उनके अपने शहर के पास ही था। उनकी शादी सभी तरह से पारंपरिक थी। दहेज के नाम पर एक चरखा एवं हाथ से बुने हुए कुछ मीटर कपड़े थे। वे दहेज के रूप में इससे ज्यादा कुछ और नहीं चाहते थे। 1930 में महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी।

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लाल बहादुर शास्त्री विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया।आजादी के बाद जब कांग्रेस सत्ता में आई, उससे पहले ही राष्ट्रीय संग्राम के नेता विनीत एवं नम्र लाल बहादुर शास्त्री के महत्व को समझ चुके थे। 1946 में जब सरकार का गठन हुआ तो इस ‘छोटे से डायनमो’ को देश के शासन में रचनात्मक भूमिका निभाने के लिए कहा गया। उन्हें अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया और जल्द ही वे गृह मंत्री के पद पर भी आसीन हुए। कड़ी मेहनत करने की उनकी क्षमता एवं उनकी दक्षता उत्तर प्रदेश में एक लोकोक्ति बन गई। वे 1951 में नई दिल्ली आ गए एवं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला – रेल मंत्री; परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री; गृह मंत्री एवं नेहरू की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री रहे। उनकी प्रतिष्ठा लगातार बढ़ रही थी।

एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। देश एवं संसद ने उनके इस अभूतपूर्व पहल को काफी सराहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस घटना पर संसद में बोलते हुए लाल बहादुर शास्त्री की ईमानदारी एवं उच्च आदर्शों की काफी तारीफ की। उन्होंने कहा कि उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा इसलिए नहीं स्वीकार किया है कि जो कुछ हुआ वे इसके लिए जिम्मेदार हैं बल्कि इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि इससे संवैधानिक मर्यादा में एक मिसाल कायम होगी। रेल दुर्घटना पर लंबी बहस का जवाब देते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने कहा; “शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को लगता है कि मैं बहुत दृढ नहीं हो पा रहा हूँ। यद्यपि शारीरिक रूप से में मैं मजबूत नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूँ।” अपने मंत्रालय के कामकाज के दौरान भी वे कांग्रेस पार्टी से संबंधित मामलों को देखते रहे एवं उसमें अपना भरपूर योगदान दिया।

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1952, 1957 एवं 1962 के आम चुनावों में पार्टी की निर्णायक एवं जबर्दस्त सफलता में उनकी सांगठनिक प्रतिभा एवं चीजों को नजदीक से
परखने की उनकी अद्भुत क्षमता का बड़ा योगदान था।तीस से अधिक वर्षों तक अपनी समर्पित सेवा के दौरान लाल बहादुर शास्त्री अपनी उदात्त निष्ठा एवं क्षमता के लिए लोगों के बीच प्रसिद्ध हो गए। विनम्र, दृढ,सहिष्णु एवं जबर्दस्त आंतरिक शक्ति वाले शास्त्री जी लोगों के बीच ऐसे व्यक्ति बनकर उभरे जिन्होंने लोगों की भावनाओं को समझा। वे दूरदर्शी थे जो देश को प्रगति के मार्ग पर लेकर आये। लाल बहादुर शास्त्री महात्मा गांधी के राजनीतिक शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे। अपने गुरु महात्मा गाँधी के ही लहजे में एक बार उन्होंने कहा था – ‘मेहनत प्रार्थना करने के समान है।’ महात्मा गांधी के समान विचार रखने वाले लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ पहचान हैं। प्रधनमंत्री रहते हुए लाल बहादुर शास्‍त्री ने एक कार खरीदी थी। फिएट कार की कीमत 12 हजार थी। कार के लिए बैंक में लोन को आवेदन किया था।

तीन दशकों तक देश को अपनी समर्पित सेवा, उदात्त निष्ठा, अपूर्व क्षमता, विनम्रता, सहिष्णुता एवं दृढ़ इच्छा-शक्ति के बल पर शास्त्री जी लोगों के दिलो-दिमाग पर छा गए। उनकी प्रतिभा और निष्ठा ने ही नेहरू की मृत्यु के बाद 09 जून 1964 को उन्हें प्रधानमंत्री बनाया। 26  जनवरी 1965 को खाद्य के क्षेत्र में देश को आत्म निर्भर बनाने के उद्देश्य से ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा उन्होंने ही दिया था तथा देश की आर्थिक दशा को देखते हुए उन्होंने देश वासियों से सप्ताह में एक दिन उपवास रख अन्न बचाने का आग्रह किया, जिसे सबसे पहले उन्होंने स्वयं से प्रारम्भ किया। सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए, मरणोपरांत, 1966 में उन्हें भारत -रत्न’ से सम्मानित किया गया। शास्त्री के नेतृत्व में ही भारत -पाकिस्तान के बीच 1965 में अप्रैल से 23 सितंबर के बीच 6 महीने तक युद्ध चला। जनवरी, 1966 में दोनों देशों के शीर्ष नेता तब के रूसी क्षेत्र में आने वाले ताशकंद में शांति समझौते के लिए रवाना हुए. पाकिस्तान की ओर से राष्ट्रपति अयूब खान वहां गए।

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10 जनवरी को दोनों देशों के बीच शांति समझौता भी हो गया, किन्तु इसके मात्र 12 घंटे बाद यानि 11 जनवरी को तड़के 1.32 बजे अचानक उनकी मौत की खबर ने सबको चौंका दिया। आधिकारिक तौर पर तो कहा जाता रहा है कि उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई। किन्तु एक ऐतिहासिक समझौते के चंद घंटों के अन्दर ही आधी रात को परदेश में प्रधानमंत्री की मृत्यु ने ना सिर्फ उनके साथ गए प्रतिनिधि मंडल, बल्कि, सम्पूर्ण विश्व को सकते में डाल दिया। कुछ आरटीआई के जवाब, पुस्तकों के उद्धरण, शास्त्री परिवार के लोगों व जनमानस में उठे प्रश्नों पर गौर करें तो पता चलता है कि मरने से 30 मिनट पहले तक, यानि रात्रि 12.30 बजे तक वे बिलकुल ठीक थे। 15 से 20 मिनट में तबियत खराब हुई और वे हमसे विदा हो लिए।

यह भी कहा जाता है कि उन्हें उनके साथ गए अधिकारियों व स्टाफ से दूर अकेले में रखा गया। तथा साथ गए कुक को भी ऐन मौके पर बदल दिया गया। उस रात खाना उनके नौकर रामनाथ ने नहीं, बल्कि सोवियत संघ में भारतीय राजदूत टीएन कौल के पाकिस्तानी कुक जानमोहम्मद ने बनाया था। घटना के बाद उस बावर्ची को हिरासत में तो लिया गया, लेकिन बाद में उसे छोड़ दिया गया। कहते हैं कि वह पाकिस्तान भाग गया , जिसे इंदिरा ने आजीवन घर बैठे पेंशन भी दी। उनका आवास ताशकंद शहर से 15-20 किमी दूर रखा गया तथा उनके कमरे में घंटी व फोन तक नहीं था। शायद, इसी कारण उस आधी रात को जब शास्त्री खुद चलकर सेक्रेटरी जगन्नाथ के कमरे में गए, तब वह दर्द से तड़प रहे थे। उन्होंने दरवाजा नॉक कर जगन्नाथ को उठाया और डॉक्टर को बुलाने का आग्रह किया।

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जगन्नाथ ने उन्हें पानी पिलाया और बिस्तर पर लिटा दिया। उनके निजी चिकित्सक डॉक्टर ने पाया कि उनकी सांसें तेज चल रही थीं और वो अपने बेड पर छाती को पकड़कर बैठे थे। इसके बाद डॉक्टर ने इंट्रा मस्कूलर इंजेक्शन दिया और उसके तीन मिनट बाद ही शास्त्री का शरीर शांत होने लगा और सांस की गति धीमी पड़ गई। सोवियत डॉक्टर को बुलाया गया, किन्तु इससे पहले कि सोवियत डॉक्टर इलाज शुरू करते, 1.32 बजे शास्त्री की मृत्यु हो गई। कहते हैं कि शास्त्री की मौत वाली रात दो ही गवाह मौजूद थे। एक थे – उनके निजी चिकित्सक और दूसरे थे उनके सेवक रामनाथ। दोनों ही शास्त्री की मौत पर 1977 में गठित राजनारायण संसदीय समिति के समक्ष पेश नहीं हो सके क्योंकि दोनों को ही ट्रक ने टक्कर मार दी थी। इसमें डॉक्टर साहब तो मारे गए, जबकि रामनाथ अपनी स्मरण शक्ति गंवा बैठे।

बताते हैं कि समिति के सामने गवाही से पहले रामनाथ ने शास्त्री के परिजनों से च्सीने पर चढ़े बोझज् का जिक्र किया था, जिसे वह उतारना चाहते थे। यह भी कहा जाता है कि शायद उनके हाथ ताशकंद में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मौत से जुड़ा कोई सुराग मिल गया था! पत्रकार ग्रेगरी डगलस से साक्षात्कार में सीआईए के एजेंट रॉबर्ट क्रोले ने दावा किया था कि शास्त्री की मौत का प्लॉट सीआईए ने तैयार किया था। उनके मृत शरीर का ना तो पोस्टमार्टम किया गया और ना ही मौत की जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक किया गया। शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री व अन्य परिजनों ने भी इस हेतु सरकारों से अनेक बार अपील करते हुए कहा था कि उनकी मृत्यु प्राकृतिक नहीं थी। उनकी छाती, पेट और पीठ पर नीले निशान थे और कई जगह चकते पड़ गए थे, जिन्हें देखकर साफ़ लग रहा था कि उन्हें ज़हर दिया गया है।

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पत्नी ललिता शास्त्री का भी यही मानना था कि अगर हार्टअटैक आया तो उनका शरीर नीला क्यों पड़ गया था! यहां वहां चकत्ते क्यों पड़ गए। यदि पोस्टमार्टम होता तो उनकी मौत का सच अवश्य सामने आता। यह आज तक स्पष्ट नहीं है कि शास्त्री की मौत या उनके अंतिम समय से जुड़े दस्तावेज किसके आदेश से गोपनीय करार दिए गए? एक श्रेष्ठ नेता, पूर्व प्रधानमंत्री व भारत रत्न की विदेश में विस्मयकारी असमय मृत्यु की सच्चाई को जानने से देश को आखिर क्यों वंचित रखा जा रहा है? कम से कम वर्तमान सरकार को इस मामले में पहल कर नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की तरह भारत के इस बहादुर लाल से जुड़े दस्तावेजों को भी सार्वजनिक करना चाहिए। देश में अनाज संकट के दौरान उन्‍होंने खाली जमीन में अनाज या सब्जियां पैदा करने की अपील की थी। सादगी की प्रतिमूर्ति एवं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न लालबहादूर शास्त्री की पुण्यतिथि पर उन्हें हमारा नतमस्तक वंदन।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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