हिमालय (Himalaya) को बचाने के लिए बने ठोस नीति - Mukhyadhara

हिमालय (Himalaya) को बचाने के लिए बने ठोस नीति

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हिमालय (Himalaya) को बचाने के लिए बने ठोस नीति

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

हिमालय के मुद्‌दे पर अब सभी के गंभीर होने की बारी है, जिस तरह से इसके संसाधनों पर गत दशकों में आक्रमण हुआ है और प्रकृति ने अपना गुस्सा प्रकट करना शुरू कर दिया है, हमारे लिए खतरे की घंटी बज गई है। भारत दुनिया के गिने-चुने देशों में से एक है, जिसे प्राकृतिक संसाधनों का असली वरदान प्राप्त है।हिमालय से लेकर समुद्र तक और मरुस्थल से लेकर दलदल तक यह देश विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों का धनी है। इसके साथ यहां की संस्कृति देश की सबसे बड़ी शक्ति है। इन सभी में हिमालय को सबसे ऊंचा स्थान मात्र इसकी ऊंचाई के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्र सेवा के लिए प्राप्त है।हिमालय की गोद में बसे पर्वतीय क्षेत्रों की बात होती है। प्रकृति की यह अनमोल धरोहर न केवल हमारे देश का प्रहरी बन हमारी रक्षा करता है बल्कि जीवन के लिए आवश्यक संसाधनों की पूर्ति करता है।

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हिमालय का दोहन, उससे आर्थिक लाभ प्राप्त करने, व्यावसायिक गतिविधियों का संचालन करने और जितना हो सके उसके स्वरूप और सौंदर्य को बिगाडऩे में लग जाते हैं।सरकार हो या समाज, उस पर अदालतों की टिप्पणियों का भी कोई असर नहीं पड़ता। न्यायालय चीख-चीख कर कहते हैं कि इस क्षेत्र में जितनी भी आपदाएं आती हैं, अधिकतर मनुष्य की बनाई हैं, उसी की कारगुजारी है, गलत नीतियों का परिणाम हैं। वैज्ञानिक और पर्यावरण के जानकार बार-बार सचेत करते हैं कि यदि इसी प्रकार प्राकृतिक नियमों की अनदेखी करते हुए वन विनाश होता रहा, जंगलों को सपाट मैदान बनाया जाता रहा, नदियों को नालों में बदला जाता रहा, ईको सैंसिटिव क्षेत्रों में निर्माण कार्य होता रहा, पर्यटन के लिए सही प्रबंध किए बिना उबड़-खाबड़ तरीके से इन स्थलों पर आना- जाना लगा रहा, प्रदूषण बढ़ता रहा और विकास के नाम पर शोषण होता रहा तो प्राकृतिक प्रकोप से बचना असंभव है।

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यह ध्यान देने की बात है कि मनुष्य की गलतियों से हिमालय पर्वत तो अपनी जगह खड़ा रहेगा लेकिन वह हमारेसभी मंसूबों पर पानी भी फेरता रहेगा। पिछले वर्षों में लगातार इन पर्वतीय प्रदेशों में बाढ़ आती रही है। नियमों की अनदेखी कर निर्मित सड़कें, पुल, भवन और लाखों करोड़ों की लागत से बने ऊर्जा प्लांट इस प्रकार बहते दिखाई देते हैं जैसे कि वे मात्र खिलौने हों, इनके अस्तित्व को नकारना ही इन सब आपदाओं का मूल है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि विकास के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में निर्माण जरूरी है लेकिन यदि उसके लिए लैंडस्केप ही बदल देंगे , वनस्पति नष्ट कर देंगे,धरती के पानी सोखने की ताकत ही खत्म कर देंगे और पहाड़ों को काटकर उन्हें बदसूरत बना देंगे तो फिर हिमालय उसका विरोध करते हुए वह सब नष्ट तो करेगा ही जो हमने उसकी अनदेखी करते हुए बनाया है।

इसका अर्थ यह है कि हम हिमालय की रक्षा करने का दंभ न भरें बल्कि उसे अपने तरीके से हमारी हिफाजत करने दें। इन हिमालयी प्रदेशों में पिछले कुछ समय से कृषि और वानिकी में बहुत परिवर्तन हुआ है। किसान अब पारंपरिक अनाज की खेती के बजाय कैश क्रॉप का उत्पादन कर रहे हैं। इसके लिए उन्हें मंडी तक जल्दी पहुंचने के लिए सड़कें और आने-जाने के साधन चाहिएं। हुआ यह कि इस जरूरत को पूरा तो किया गया लेकिन उससे जो मलबा निकला, उसकी निकासी का इंतजाम न होने से वह नदियों में जमा हो गया। नतीजा यह हुआ कि वर्षा होते ही नदियां उफनने लगीं और बाढ़ ने पूरे इलाके को तहस-नहस कर दिया। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि सड़क निर्माण से पहले इस समस्या का निदान करने के लिए आवश्यक उपाय कर लिए जाते तो हिमालय के प्रकोप से बचा जा सकता था।

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इसी प्रकार ऊर्जा उत्पादन, सीमेंट उद्योग और दूसरे कार्यों के लिए जमीन का इस्तेमाल करने से पहले पर्यावरण संतुलन के प्रबंध अनिवार्य हैं। प्रगति के लिए यह सब आवश्यक हैं लेकिन उससे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि इससे हिमालय का कोपभाजन तो नहीं बनना पड़ेगा। हमारे यहां विज्ञान ने वे सब संसाधन उपलब्ध करा दिए हैं जिनसे हिमालय की प्रकृति, उसके प्राकृतिक नियम और उसकी संरचना को आसानी से समझा जा सकता है। हिमालय पर शोध, अनुसंधान, उसके संसाधनों के उपयोग को लेकर अनेक सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान कार्यरत हैं। वन, वन्य जीव, जड़ी बूटी, औषधियों की निर्माण सामग्री और प्राकृतिक सौंदर्य को बनाए रखने में इनका योगदान महत्वपूर्ण है।

हिमालय अपने अनुपम सौंदर्य, मनोहारी दृश्यों और प्राकृतिक छटा के लिए विख्यात है। विश्व में बहुत ही कम स्थान होंगे जो इसकी बराबरी कर सकें। नदियों का जल हो, बर्फ से ढंके पर्वतों की शीतलता हो, धर्म और आस्था स्थल हों, घूमने-फिरने के स्थान हों, यहां तक कि साहित्यकारों की रचना स्थली हो, हिमालय अपने विशाल वक्ष में सब कुछ समेटे हुए है। यह हमारा पालनहार भी है। इससे प्राप्त संपदा हमारी आर्थिक उन्नति का आधार है। उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, अरुणांचल, सिक्किम से लेकर जहां तक भी इसका फैलाव है, यह हमारा संरक्षण करता है।
इसके बिना भारत की कल्पना करना भयावह है। जब ऐसा है तो इसके आदर, सम्मान में किसी प्रकार की कोताही क्यों?

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विडंबना यह है कि समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद, पहाड़ी और पहाड़ी क्षेत्रों में लोग आर्थिक, ऊर्जा, पोषण और स्वास्थ्य तक खराब पहुंच के अलावा बहुआयामी गरीबी से पीड़ित हैं। जलवायु परिवर्तन, भूमि क्षरण और घटती पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के संयुक्त प्रभाव खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और कमजोर आबादी के लिए स्थायी आजीविका प्रदान करने में गंभीर चुनौतियां पैदा करते हैं। यह राज्य के पर्वतीय क्षेत्र में खड़ी हिमालयी चुनौतियों के प्रति सरकार की चिंता को भी दर्शाता है। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो अविभाजित उत्तर प्रदेश में पहाड़ की लगातार उपेक्षा के चलते ही राज्य आंदोलन की मांग ने जोर पकड़ा। नौ नवंबर 2000 को उत्तराखंड के अस्तित्व में आने के बाद भी पहाड़ की स्थिति में रत्तीभर भी बदलाव नहीं आया।

ये बात अलग है कि गुजरे 17 सालों में राज्य ने ऊंची विकास दर का लक्ष्य हासिल किया है, लेकिन पर्वतीय इलाकों में इसे लेकर आंशिक सफलता ही मिल पाई। सरकार भी इसे स्वीकारती है कि विकास की यात्रा में पहाड़ पिछड़ा है। यही कारण भी है कि राज्य में पलायन, आजीविका और आपदा एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आए हैं। स्थिति ये है कि पर्वतीय इलाकों से पलायन का सिलसिला थमने की बजाए और तेज हुआ है। शिक्षा एवं रोजगार के समुचित अवसरों के साथ ही मूलभूत सुविधाओं के अभाव समेत अन्य कारणों के मद्देनजर बेहतर भविष्य के लिए पलायन तेज हुआ है। इसके चलते राज्य के तीन हजार गांव खाली हो गए हैं तो ढाई लाख से अधिक घरों में ताले लटके हुए हैं। बावजूद इसके पलायन थामने के उपायों पर गंभीरता से कदम नहीं उठाए गए।

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यही नही, गांवों में जो लोग हैं, वे कुदरत के कहर से जूझ रहे हैं। ठीक है कि आपदा पर किसी का वश नहीं चलता, लेकिन आपदा के असर को न्यून तो किया ही जा सकता है। हालांकि, इस क्रम में प्रदेश में आपदा प्रबंधन मंत्रालय अस्तित्व में है,लेकिन वक्त पर मशीनरी बेबस नजर आती है। ऐसा एक नहीं अनेक मौकों पर सामने आ चुका है। साफ है कि पलायन, आपदा और आजीविका के रूप में पहाड़ की यह चुनौतियां ऐसी हैं, जिनके समाधान की दिशा में बेहद गंभीरता और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ कदम उठाने की जरूरत है। यदि सरकार इन तीन चुनौतियों से निबटने की दिशा में ठोस कार्ययोजना तैयार कर इसे धरातल पर उतारती है तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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