हिरदा (Hirda) के गीतों में पहाड़ की पीड़ा - Mukhyadhara

हिरदा (Hirda) के गीतों में पहाड़ की पीड़ा

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हिरदा (Hirda) के गीतों में पहाड़ की पीड़ा

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

हीरा सिंह राणा का जन्म 16 सिंतबर 1942 , ग्राम – डंडोली , मनिला जिला अल्मोड़ा उत्तराखंड में हुवा था। हीरा सिंह राणा पांच भाइयो में सबसे बड़े भाई थे। हीरा सिंह राणा जी प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा , मनिला में ही हुई। तदोपरांत 1959 में वे नौकरी के लिए, दिल्ली चले गये दिल्ली में उन्होंने, कभी कपड़े की दुकान में,कभी कंपनी में काम किया। इसी बीच हिरदा की पहचान (लोग उन्हें प्यार से हिरदा बुलाते थे।) कुमाउनी गायक आनंद सिंह कुमाउनी से हुई। आनन्द कुमाउनी उस समय पर्वतीय कला केंद्र दिल्ली के लिए काम करते थे। उन्होंने हीरा सिंह राणा की बहुत मदद की। हिरदा दिल्ली में रामलीलाओं में कुमाउनी गीत गाते थे। हीरासिंह राणा जी ने मात्र 15 वर्ष में ही गीत गाना शुरू कर दिया था।दिल्ली में पंडित गोविंद बल्लभ पंत जी की प्र पुण्यवतिथि पर इन्होंने ,आ लिली बकरी लिलिल छू छू  काफी शाबाशी बटोरी। इसी गीत संगीत के सफर को जारी रखते हुए, उन्होंने अपना पहला गीत,कविता संग्रह प्योली और बुरांश  नाम से 1971 में प्रकाशित हुआ।

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तत्पश्चात गीत और कविताओं का अगला संग्रह मेरी मानिले डानी 1976 में प्रकाशित किया। 1987 में मनखयु पडयाव जैसे गीत कविता संग्रह प्रकाशित किये। त्यर पहाड़ म्यर पहाड़, हय दुखों क ड्यर पहाड़।  बुजुर्गोंल ज्वड पहाड़, राजनीतिल् त्वड़ पहाड़। ठ्यकदारोंल फोड़ पहाड़, नान्तिनोंन छोड़ पहाड़। इन पंक्तियों में पहाड़ की वेदना है। बुजुर्गों का संघर्ष है। खोखले होते पहाड़ों की पीड़ा और समाज को बांटती राजनीति की व्यथा भी है। दो पंक्तियों में इतना कुछ कह जाने का हुनर रखने वाले सुप्रसिद्ध लोक गायक व गीतकार स्व. हीरा सिंह राणा की चौथी  पुण्यतिथि है। उनके दौर की पीढ़ी राणा को हिरदा कुमाउंनी नाम से संबोधित करती थी।
पहाड़ के पलायन का दर्द उनके इस गीत ,

मेरी मानिले डानी तेरी बलाई ल्यूला।
तू भगवती छे तू ही भवानी,
हम तेरी बलाई ल्यूला ।।

यह गीत पहाड़ के पलायन के साथ साथ घर की याद को दिलाता है। उनके श्रगार रस प्रधान गीत,  हाई रे मिजाता गीत तो अभी भी शादी व्याह समारोह में काफ़ी बजाया जाता है। हिरदा का गाना आ लिली बकरी लिली छू कुमाउनी लोक संगीत के इतिहास का प्रसिद्ध गीत रहा है।हीरा सिंह राणा जी ने , आकाशवाणी केंद्रों, नजीबाबाद, लखनऊ, दिल्ली में भी काफी गीत गाये। और इन आकाशवाणी केंद्रों और अन्य केंद्रों से भी  हीरा सिंह राणा हिरदा के गीतों का प्रसारण हुआ।

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2019 में  दिल्ली सरकार द्वारा गढ़वाली ,कुमाउनी, जौनसारी भाषा अकादमी के पहला उपाध्यक्ष बनाया। जीवन के शुरुआती संघर्ष से ज्यादा संघर्ष शील  हीरा सिंह राणा का अंतिम सफर। जीवन भर अपने पहाड़ के लिए गीत संगीत कविताओं द्वारा जंन जागृति करने वाले हिरदा जीवन भर आर्थिक स्थिति के लिए संघर्ष करते रहे। एक दुर्घटना में 2016 में हीरा सिंह राणा जी के कूल्हे की हड्डी टूट गई। रामनगर के एक निजी अस्पताल में उनका ऑपरेशन हुवा, निजी अस्पताल का बिल देने की राणा जी की हालत नही थी। जैसे तैसे पत्र पत्रिकाओं और ज्ञापनों के माध्यम से सरकार तक बात पहुँचाई गई। सरकार ने हिरदा की मदद की घोषणा भी की,लेकिन वो घोषणा ही रही। अपने पहाड़ अपनी भाषा को नया आयाम देने वाला यह बहुमुखी कलाकार जीवनभर संघर्ष में रहा। और इस संघर्ष को पूर्ण विराम मिला 13 जून 2020 को।उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान उनके जनगीत लस्का कमर बॉदा हिम्मत क साथा, भोल फिर उजियाली होली कालै रैली राता ने राज्य आंदोलन में एक नई ऊर्जा का संचार किया।

हीरा सिंह राणा के गीतों में पहाड़ बसता है। कहीं गीतों में पहाड़ पर पड़ने वाली धूप से उपजा श्रृंगार है तो कहीं बंजर पड़े पहाड़ की पीड़ा है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद चली लूस-खसोट और खोखले विकास पर दुःख और टीस उनके गीतों में सहज दिखती है। हीरा सिंह राणा के जन्मदिन पर आज उनके गीत की यह पंक्ति खूब याद आती है।

कैक तरक्की कैक विकास
हर आँखा में आंस ही आंस
जे.ई कैजां बिल के पास
ए.ई मारूँ पैसों गास
अटैच्यू में भौरो पहाड़…

यानी किसकी तरक्की किसका विकास, हर आंख में बस उम्मीद ही उम्मीद है, जेई बिल पास करता है और एई पैसों का गास कहता है अटैची में भरा हुआ है पहाड़। राणा की पहचान पहाड़ अस्मिता के तौर पर की जाती थी। वे समाज के दुश्मनों की पहचान करने और उनसे लड़ने की प्रेरणा देते थे।

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उन्होंने बताया कि उनका गाया गाना ‘लसके कमर बांधा हिम्मत का साथा’ आज भी समाज को हिम्मत के साथ अपने हितों के लिए लड़ने की प्रेरणा देता है। नई पीढ़ी अपनी तरह का बदलाव चाहती है। लोक विधाएं बिना संरक्षण और संवर्धन के नहीं चल सकती। युवा नई चीजें तो करना चाहते हैं, लेकिन पुरानी चीजों के संरक्षण के प्रति लापरवाह हैं।संस्कृति और इतिहासबोध के बिना लोक को जिन्दा नहीं रखा जा सकता  यही वजह है कि लगातार गीत-संगीत में लोक गायब होता जा रहा है। अभी जो सबसे बड़ा संकट आया है, वह बाजार का भी है। सीडी कंपनियां अपने तरह के गीत-संगीत को लोक के रूप में परिभाषित करने लगी हैं। लोक का मतलब सिर्फ वहां की भाषा में गीत बनाना नहीं है। उसका संगीत और वाद्य भी लोक के ही होने चाहिए। इस मामले में हमने बहुत कुछ खो दिया है। कंपनियों के पास जो संगीतकार और वाद्य यंत्र हैं, वे सब बाहर के हैं। इसलिए हम लोक के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं।

(लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)

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