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उत्तराखंड: सुरक्षित रहें बांज के जंगल (Oak forest) !

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सुरक्षित रहें बांज के जंगल (Oak forest) !

Harishchandra Andola

  • डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

पहाड़ का हरा सोना यानी बांज अब विलुप्ति के कगार पर है। वर्षा के पानी को अवशोषित कर भूमिगत करने वाले इन पेड़ों की कमी की वजह से धरती की कोख भी बांझ होती जा रही है। परिणाम यह है कि गैर हिमालयी नदियों से लेकर अधिकांश नौले व धारों में उम्मीद से कम पानी रह गया है।

वैसे तो बांज की सभी छह तरह की प्रजातियां खतरे में हैं, लेकिन सबसे अधिक तीन प्रजातियां रयांस, फ्यांठ और मोरू का अस्तित्व नष्ट होने को है खुद वन विभाग इस तरह के संकट से परिचित है। इसके बावजूद बड़े स्तर पर पहल नहीं नजर आ रही है।

बांज, यह केवल वृक्ष प्रजाति ही नहीं, पारिस्थितिकी और आर्थिकी से जुड़ा प्रश्न भी है। 5000 फीट से अधिक ऊंचाई पर मिलने वाले बांज (ओक) के जंगल, जल संरक्षण के साथ ही तरह-तरह के बायोमास और विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

बांज की पत्तियां पशुओं के लिए उत्तम चारा हैं तो खेती में कृषि यंत्रों के निर्माण में बांज की लकड़ी का उपयोग सदियों से हो रहा है। यही कारण है कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में बांज वहां की संस्कृति से गहरे तक जुड़ा है। बावजूद इसके बांज पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। जंगल की आग तो खतरा है ही, बांज वनों में चीड़ (चिर पाइन) की दस्तक होने लगी है। इस दोहरी मार से पार पाने की चुनौती है। ऐसे कदम उठाने की आवश्यकता है, जिससे बांज के जंगल सुरक्षित रहें। इसमें सरकार और आमजन दोनों को आगे आना होगा।

मानव-वन्यजीव संघर्ष थामने के दृष्टिगत पिछले 23 वर्ष से राज्य में विमर्श का दौर जारी है, लेकिन ठोस समाधान नहीं निकल पाया है। यद्यपि, संघर्ष थामने के उपायों की कड़ी में जंगलों में फलदार प्रजातियों के रोपण पर जोर दिया जा रहा है। इस दिशा में प्रयास भी हो रहे, लेकिन इनकी गति धीमी है। इस पहल के पीछे मंशा यही है कि यदि बंदर, लंगूर जैसे जानवरों के लिए जंगल में फलों के रूप में भोजन की उपलब्धता होगी तो वे आबादी की तरफ रुख नहीं करेंगे।

इसके अलावा शाकाहारी वन्यजीव जंगल में रहेंगे तो मांसाहारी जानवरों के कदम भी बाहर नहीं निकलेंगे। यानी, जंगल की खाद्य श्रृंखला मजबूत रहेगी। अब जिस तरह से मानव-वन्यजीव संघर्ष गहरा रहा है, उसमें ऐसे प्रयासों को तेजी से गति देना आवश्यक है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि वन विभाग इस बार वर्षाकालीन पौधारोपण में फलदार प्रजातियों के रोपण पर ध्यान केंद्रित करेगा। पर्यावरणविदों ने इसके लिए चिंता जाहिर की है और लगातार आवाज भी उठा रहे हैं।

उनका कहना है, बांज की कुछ प्रजातियां रयांस, फ्यांठ व मोरू के बीज नहीं उग रहे हैं। इसके पीछे ग्लोबल वार्मिंग है या कोई अन्य वजह। इस पर वृहद स्तर पर शोध की आवश्यकता है। वन अनुसंधान केंद्र के रेंजर ने माना कि पहले जंगलों में बांज के पेड़ अधिक दिखते थे। यही वजह थी कि धरती में नमी बनी रहती थी। स्रोतों से पानी भी निकलता था, लेकिन अब जंगलों में बांज की संख्या बहुत कम हो गई है। क्षेत्रीय लोगों ने निजी उपयोग के लिए बांज का अंधाधुंध कटान किया। यही कारण है कि बांज जंगलों से कम हो गया। इसकी पीड़ा लोकगीतों में भी झलकती है।

लोकगीत नी काटा झुमराली बांजा, बजांनी धुरा ठंडा पाणि यानी कि घने पत्तियों वाले बांज को मत काटो, इस जंगल का पानी बहुत ठंडा है। वन विभाग के अनुसार ही कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों के जंगलों में 80 फीसद चीड़ है, जबकि तीन फीसद से कम बांज है। अध्ययन से भी यह साबित हो चुका है कि बांज के जंगलों से 23 फीसद जल संग्रहण होता है।

इसके अलावा चीड़ से 16 फीसद, खेतों से 13 फीसद, बंजर भूमि से पांच फीसद और शहरी भूमि से केवल दो फीसद की वृद्धि होती है। अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद सियासी नजरिए से यहाँ के वनों का खूब प्रचार हुआ। पहाड़ के नेता यहाँ मौजद वनों के एवज में “ग्रीन बोनस” की माँग करते रहे हैं। पहाड़ की सियासत में “जल, जंगल और जमीन सर्वदलीय और सार्वभौमिक नारा है। पर इनकी असल हालत से सभी नावाकिफ हैं।

अलग राज्य बनने के बाद जल, जंगल और जमीन को संरक्षित रखने की दिशा में कोई ईमानदार जमीनी पहल कहीं से नहीं हुई। नतीजतन “जल, जंगल और जमीन” महज एक राजनैतिक मुद्दा बन कर रह गए हैं। उत्तराखंड राज्य में वन अधिकारियों की संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ है, पर वनों की स्थिति पहले के मुकाबले और बदतर हो गई है।

उत्तर प्रदेश में जहाँ एक प्रमुख वन संरक्षक पूरे प्रदेश की जिम्मेदारी संभालते थे, अलग राज्य बनने के बाद इस छोटे से प्रदेश में प्रमुख एवं मुख्य वन संरक्षक स्तर के करीब ढाई दर्जन आला अफसर हैं। इस छोटे से राज्य में भारतीय वन सेवा के तकरीबन एक सौ अधिकारी तैनात हैं, पर जमीनी स्तर पर कर्मचारियों की जबरदस्त कमी है। फील्ड के स्टाफ में कई दशकों से कोई इजाफा नहीं हुआ है।

नतीजतन फील्ड स्टाफ की कमी के चलते साल भर वन संपदा का खूब अवैध दोहन होता है। गर्मियों की आग अवैध दोहन के सबूत नष्ट कर देती है।

उत्तराखंड का वन विभाग वनीकरण के नाम पर सालाना करोड़ों रुपए खर्च करता है। दिलचस्प तथ्य यह है कि रोपे गए पौधों की सुरक्षा का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है। जंगलात विभाग के आंकड़ों पर अगर यकीन किया जाए हेक्टेयर क्षेत्र लाख पौधे लगाए गए। दावानल के बाद इस कथित वृक्षारोपण की पुष्टि नहीं की जा सकती है।

पहाड़ के जंगलों का बुरा हाल है। यहाँ जंगलों का वनावरण लगातार घट रहा है। वन भूमि सिमट रही है। वन सीमा पिलर तक गायब हो गए हैं। पर एयर कंडीशन कमरों में हरियाली और वन क्षेत्र कायम है। आखिर कब तक? जंगलों से आम आदमी का सदियों पुराना रिश्ता कायम किए बिना जंगलों को अवैध दोहन तथा आग और इससे होने वाले नुकसान से बचाना सरकार और वन विभाग के बूते से बाहर हो गया है। इस रिश्ते को बहाल करने के लिए सरकार और खुद वन महकमे को जंगलों के प्रति संवेदनशील होने और दिखने की जरूरत है।

फिलहाल दूर-दूर तक इसके आसार नजर नहीं आ रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण में उत्तराखंड महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हर साल तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक की पर्यावरणीय सेवाएं यह राज्य दे रहा है। इसमें अकेले वनों की भागीदारी एक लाख करोड़ की है। यद्यपि, वनों के संरक्षण की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं

और ये व्यक्तिगत विचार हैं)

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