उत्तराखंड ने 23 सालों में हासिल किए कई मुकाम लेकिन सफर अब भी जारी - Mukhyadhara

उत्तराखंड ने 23 सालों में हासिल किए कई मुकाम लेकिन सफर अब भी जारी

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उत्तराखंड ने 23 सालों में हासिल किए कई मुकाम लेकिन सफर अब भी जारी

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

भारत में पहाड़ी राज्य उत्तरांखड बनाने को लेकर प्रदेशवासियों को लंबे संघर्ष का एक दौर देखना पड़ा। कई आंदोलनों और शहादतों के बाद 9 नवंबर 2000 को आखिरकार उत्तर प्रदेश से पृथक होकर एक अलग पहाड़ी राज्य का गठन हुआ। इस पहाड़ी राज्य को बनाने में कई बड़े नेताओं और राज्य आंदोलनकारियों का अहम योगदान रहा है जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता है। उत्तराखंड को एक अलग पहाड़ी राज्य बनाने के लिए कई दशकों तक संघर्ष करना पड़ा। पहली बार पहाड़ी क्षेत्र की तरफ से ही पहाड़ी राज्य बनाने की मांग हुई थी। 1897 में सबसे पहले अलग राज्य की मांग उठी थी। उस दौरान पहाड़ी क्षेत्र के लोगों ने तत्कालीन महारानी को बधाई संदेश भेजा था।

इस संदेश के साथ इस क्षेत्र के सांस्कृतिक और पर्यावरणीय आवश्यकताओं के अनुरूप एक अलग पहाड़ी राज्य बनाने की मांग भी की गई थी। जिसके बाद साल 1923 में जब उत्तर प्रदेश संयुक्त प्रांत का हिस्सा हुआ करता था उस दौरान संयुक्त प्रांत के राज्यपाल को भी अलग पहाड़ी प्रदेश बनाने की मांग को लेकर ज्ञापन भेजा गया। जिससे कि पहाड़ की आवाज को सबके सामने रखा जाए। इसके बाद साल 1928 में कांग्रेस के मंच पर अलग पहाड़ी राज्य बनने की मांग रखी गयी थी। यही नहीं साल 1938 में श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी अलग पहाड़ी राज्य बनाने का समर्थन किया था। इसके बाद भी जब पृथक राज्य नहीं बना तो साल 1946 में कुमाऊं के बद्रीदत्त पांडेय ने एक अलग प्रशासनिक इकाई के रूप में गठन की मांग की थी। इसके साथ ही करीब साल 1950 से ही पहाड़ी क्षेत्र एक अलग पहाड़ी राज्य की मांग को लेकर हिमाचल प्रदेश के साथ मिलकर ‘पर्वतीय जन विकास समिति’ के माध्यम से संघर्ष शुरू हुआ।

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साल 1979 में अलग पहाड़ी राज्य की मांग को लेकर क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल का गठन हुआ। जिसके बाद पहाड़ी राज्य बनाने की मांग ने तूल पकड़ा और संघर्ष तेज हो गया  इसके बाद 1994 में अलग राज्य बनाने की मांग को और गति मिली। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने ‘कौशिक समिति’ का गठन किया। इसके बाद 9 नवंबर 2000  में एक अलग पहाड़ी राज्य बना। पहाड़ी राज्य बनाने को लेकर एक लंबा संघर्ष चला जिसके लिए कई आंदोलन किये गये कई मार्च निकाले गये अलग पहाड़ी प्रदेश के लिए 42 आंदोलनकारियों को शहादत देनी पड़ी। अनगिनत आंदोलनकारी घायल हुए। पहाड़ी राज्य की मांग को लेकर उस समय इतना जुनून था कि महिलाएं, बुजुर्ग यहां तक की स्कूली बच्चों तक ने आंदोलन में भाग लिया।

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उत्तराखंड राज्य गठन में तब हम बड़े नेताओं और आंदोलनकारियों के साथ ही पहाड़ी क्षेत्र की महिलाओं का भी अहम योगदान रहा उत्तराखंड राज्य बनने से पहले गौरा देवी ने वृक्षों के कटान को रोकने के लिए चिपको आंदोलन शुरू किया था जो लंबे समय तक चला। इसके बाद जब अलग राज्य बनने को लेकर संघर्ष चल रहा था तो पहाड़ी क्षेत्र की महिलाओं ने भी इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। इस संघर्ष में कई महिलाओं ने अपनी शहादत दी थी जिन्हें आज भी बड़े गर्व से याद किया जाता है।उत्तराखंड का गठन 9 नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश के उत्तर- पश्चिमी भाग के कई जिलों और हिमालय पर्वत श्रृंखला के एक हिस्से को मिलाकर किया गया था। इस साल २३वां उत्तराखंड स्थापना दिवस मनाया जा रहा है 2007 में, राज्य का नाम औपचारिक रूप से उत्तरांचल से बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया।

उत्तराखंड 23 वर्ष बाद भी हम राज्य निर्माण की मूल अवधारणा की बुनियाद भी नहीं रख पाए। राज्य गठन के बाद से उत्तराखंड में सबसे ज्यादा क्या बढ़ा? उत्तर होगा- जनसंख्या, असमानता, पलायन और आपदाएं। अनुमान है कि पिछले दो दशकों में देश में 36 प्रतिशत और उत्तराखंड में 50 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या बढ़ी। 2021 में जनगणना नहीं हुई, लेकिन अनुमान है कि पिछले दो दशक में उत्तराखंड में औसत हर वर्ष दो लाख लोगों की बढ़ोतरी हुई। पहाड़ का पानी पहाड़ के काम आए। जल, जंगल और जमीन पर हमारा अधिकार हो, यह इंतजार अभी खत्म नहीं हुआ है। हमारी दशा चिंताजनक है और दिशा स्पष्ट नहीं है। निसंदेह हमें इस बात पर गुमान है कि हम दुनिया के अपनी तरह के अहिंसक और सफल जनांदोलन के साक्षी रहे।

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पहाड़ की पहाड़ जैसी समस्याओं के समाधान, रोजगार, बेहतर शासन-प्रशासन और अपनी अलग पहचान के लिए ही हमारे लोगों ने शहादतें दीं, मगर अभी तक इस यात्रा में पहाड़ का जनमानस खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। हमारा हेप्पीनेस इंडेक्स नीचे जा रहा है। अविभाजित उत्तरप्रदेश में लखनऊ से लिए गए फैसले सुदूर पहाड़ में धरातल पर उतर जाते थे।लेकिन, अपना राज्य बनने के बाद ऐसे ही फैसले देहरादून से लागू नहीं हो पा रहे हैं। गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों में रौनक रहती थी। काम होते थे। प्रशासनिक मशीनरी वहीं से चलती थी। आज दोनों कमीशनरी सफेद हाथी बनकर रह गई हैं। पूर्ववर्ती उत्तरप्रदेश की तुलना में उत्तराखंड में भ्रष्टाचार भी कई गुना बढ़ा है। राज्य का युवा रोजगार के लिए केवल सरकारी नौकरियों पर निर्भर है। हमने परंपरागत कुटीर उद्योग, बागवानी, पशुपालन आदि की घोर उपेक्षा की है, जबकि हम पर्यावरण मित्र उद्योग लगाकर रोजगार भी दे सकते थे। हम नीति-नियोजन बनाने में नाकाम हो गए।

सीमांत क्षेत्रों में नागरिक ही पहली पंक्ति के सैनिक होते हैं, जो सेना को सूचना देने, रास्ता बताने और अन्य महत्वपूर्ण कार्य में सहयोग देते हैं।इन गांवों से लोग पलायन को मजबूर हों तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से चिंता का विषय भी है। पलायन हमारी सबसे बड़ी चिंता है। हमें लोगों को गांवों में बनाए रखने की योजना पर गंभीरता से काम करना होगा। हिमालयी राज्य के सामने विकास के साथ पर्यावरण संतुलन भी एक बड़ी
चुनौती है। हमें बड़ी परियोजनाओं और निर्माण में पर्यावरणीय मानकों की चिंता करनी होगी।प्रकृति ने उत्तराखंड को भरपूर दिया है, पर हमने उन क्षेत्रों की उपेक्षा की जो हमारी आर्थिकी को सुदृढ़ कर सकते थे। पर्यटन,ऊर्जा,पशुपालन, बागवानी,जड़ी बूटी,उद्यानिकी, सूचनाप्रौद्योगिकी, इलेक्ट्रॉनिक उद्योग की संभावनाओं का हम दोहन नहीं कर सके, जबकि ये सारे क्षेत्र राज्य के विकास की काया पलट सकते हैं।

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हम दुनिया में बढ़ रही जैविक उत्पादों की मांग की पूर्ति करने में सक्षम थे, लेकिन खास नहीं हो पाया। आमदनी के लिए हमारी सरकारों की निर्भरता आबकारी और खनन पर केंद्रित हो गई। इसमें भी भ्रष्टाचार और अनियमितता का बोलबाला व पारदर्शिता का अभाव दिखाई दिया। हमें सोचना होगा कि सेवानिवृत्त हो चुके पूर्व सैनिकों के पास अनुभव और प्रशिक्षण का भंडार है। उनके सहयोग से हम तेजी से विकास पथ पर बढ़ सकते हैं चुनाव आयोग के अनुसार वर्ष 2002 से 2012 के बीच उत्तराखंड में मतदाताओं की संख्या 21 प्रतिशत और 2012 से 2022 के बीच 30 प्रतिशत बढ़ी। एमडीडीए के मास्टर प्लान 2041 प्रारूप में 2041 तक देहरादून की जनसंख्या दोगुनी होकर 24 लाख तक पहुंचने का अनुमान है।

बढ़ती जनसंख्या के बीच राज्य की कैरिंग कैपेसिटी (धारण क्षमता) एक बड़ी चिंता है। राज्य में संसाधन सीमित हैं। इस तरह जनसंख्या और दबाव बढ़ते रहे तो साधन संपन्न लोग संसाधनों पर और कब्जा करेंगे और बेरोजगार, गरीब-गुरबे पीछे रह जाएंगे। इसके आने वाले समय में विस्फोटक परिणाम होंगे। इस समस्या पर गंभीरता नहीं दिखी, जबकि यह सरकार की शीर्ष प्राथमिकता होनी चाहिए। पलायन आयोग के अनुसार 2008 से 2018 तक राज्य में प्रतिवर्ष 50,272 लोगों ने और 2018 से 2022 के बीच प्रतिवर्ष 83,960लोगों ने पलायन किया। यानी हर वर्ष पहले से 33 हजार ज्यादा लोग पलायन करने लगे। ये सिर्फ आंकड़े नहीं, पर्वतीय राज्य की उस मूल अवधारणा पर ही प्रहार है, जिस कारण राज्य गठन हुआ।इस वर्ष आपदाओं से हिमाचल प्रदेश को १२ हजार करोड़ का नुकसान हुआ। जो चारधाम सड़क परियोजना की लागत के बराबर। सुरक्षित हम भी नहीं हैं, लेकिन क्या हम ईमानदारी से क्लाइमेट फ्रेंडली योजनाएं बनाने का काम कर रहे हैं।

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हमारी सरकार और समाज क्या इन परिस्थितियों को आत्मसात करके योजनाओं के खतरों को लेकर पर्याप्त तौर से सतर्क है ? इसमें कहीं संदेह नहीं कि कई लोगों की जिंदगी बेहतर हुई है। लेकिन बड़ी चुनौतियां मुहं बाएं खड़ी हैं। पर्वतीय क्षेत्र के खेत जहां बंजर हो गए हैं और उनमें घास और झाड़ियां उग आईं हैं, वहीं शहर के खेतों में कंक्रीट के जंगल उग गए हैं। साल दर साल खेती की जमीन भी दैवीय आपदा की भेंट चढ़ती रही है और मानसून में नदियों के किनारे की जमीन बाढ़ के पानी से तबाह हो जाती है। पिछले 23 सालों में खेती का रकबा काफी घट गया है। जनसंख्या, असमानता, पलायन और आपदाओं के मध्य उत्तराखंड को पीछे छूट चुके लाखों लोगों को साथ लेकर चलने की जरूरत है। राज्य गठन में सब कुछ न्योछावर करने वाले शहीदों को संतुलित और सतत विकास ही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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