उत्तराखंड आपदा विभाग (Uttarakhand Disaster Department) बनाने वाला देश का पहला राज्य था लेकिन काम संविदा पर
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
पर्वतीय इलाकों में प्राकृतिक आपदा की वजह और वैज्ञानिक तथ्यों के प्रति लोगों को जागरूक करना बेहद जरूरी है। उत्तराखंड इस बात का दंभ भरता है कि वो देश का पहला राज्य है जिसने अलग से आपदा प्रबंधन विभाग बनाया, लेकिन आज भी जिलों का काम कॉन्ट्रैक्ट पर रखे गए कर्मचारियों से चल रहा है। प्रदेश काआपदा विभाग इस समय कॉन्ट्रैक्ट के कर्मचारियों से काम चला रहा है। हालात ऐसे हैं कि जिलों में ज्यादातर जिला आपदा प्रबंधन अधिकारी संविदा पर काम कर रहे हैं। हालांकि उनके पास किसी तरह के अधिकार नहीं हैं। उत्तराखंड हिमालय में आपदाओं के जोखिम में कमी के लिए जिस चीज की आवश्यकता है, वह है मनोवैज्ञानिक परिवर्तन, लेकिन हमारा सारा नीति, नियम और संस्थानों पर है। उत्तराखंड ऐसे संवेदनशील क्षेत्र में हैं, जहां होने वाली कोई मानवीय गतिविधि पूरे क्षेत्र को नुकसान पहुंचा सकती है और आपदा को जनम दे सकती है। इसलिए आपदाओं को थामने और उससे होने वाले नुकसान को रोकने के लिए जन जागरूकता बहुत जरूरी है। हमारे देश में लिखित कानूनों का शायद सबसे बड़ा और सबसे व्यापक संग्रह है। हमारे यहां कानून तो बहुत हैं, लेकिन हम वास्तव में कानून का पालन करने वाले समुदाय नहीं हैं।
गुजरात भूकंप और हिंद महासागर की सुनामी के बाद हमने आपदा प्रबंधन अधिनियम को त्वरित रूप से लागू किया। राज्य और जिला स्तर के साथ- साथ केंद्र में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण अस्तिव में आए, लेकिन इनमें से अधिकांश प्राधिकरणों में पदेन पदाधिकारी होते हैं और उनके पास पर्याप्त अधिकारी कर्मचारी तक नहीं हैं। नियम बनाने या संगठन बनाने से हमारी समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला है। विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जो हमारे व्यवहार और आदतों से संबंधित हैं। पिछले कुछ वर्षों की आपदा घटनाओं का विश्लेषण करने से किसी के पास इस बात से सहमत होने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है कि इनमें से अधिकांश हमारे अपने कार्यों की वजह से हो रहे हैं।आपदा जोखिम कम करने के लिए हमें तीन मुख्य बातों पर ध्यान देना होगा। पहलाजोखिम संचार, दूसरा- समाधान को समझना और कार्यान्वित करना तीसरा- कौशलता प्रदान करना। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि आम जनता को उस जोखिम के बारे में पता नहीं है। अन्यथा कोई भी जानबूझकर अपने प्रियजनों की सुरक्षा को खतरे में नहीं डालेगा। जोखिम से संबंधित जानकारी जनता को आसानी से समझने योग्य तरीके से उपलब्ध कराई जानी चाहिए और इस तरह से डिजाइन और नियोजित किया जाना चाहिए कि जनता इनसे जुड़ें। मीडिया
इसमें प्रमुख भूमिका निभा सकता है। यदि हम जोखिम से संबंधित जानकारी लोगों को उपलब्ध कराते हैं तो वे समाधान की मांग करेंगे। यह जिम्मेदारी तकनीकी संस्थानों की उठानी चाहिए। हमें यह भी समझना चाहिए कि अधिकांश निर्माण गैर-इंजीनियरों द्वारा किए जा रहे हैं। जैसे जगह का चयन, डिजाइन, लेआउट। जैसे- घर के मालिक द्वारा ठेकेदार या राजमिस्त्री के परामर्श किया जाता है और वे निर्माण कार्य शुरू कर देते हैं। हमारे पास ईंट बनाने वालों के साथ- निर्माण सामाग्री मुहैया कराने वालों को प्रशिक्षण देने के लिए देश में कोई संस्थागत तंत्र नहीं है। वे अपने अनुभव के माध्यम से सीखते हैं और वे जो सीखते हैं वह हमेशा सही नहीं होता। बड़े से बड़ा लक्ष्य हो, कठिन-से-कठिन चुनौती हो, भारत के लोगों का सामूहिक बल, सामूहिक शक्ति, हर चुनौती का हल निकाल देता है।
रविवार को प्रधानमंत्री ने मन की बात कार्यक्रम में गुजरात में आए चक्रवाती तूफान की चर्चा करते हुए कहा कि बिपरजॉय ने कच्छ में कितना कुछ तहस-नहस कर दिया, लेकिन, कच्छ के लोगों ने जिस हिम्मत और तैयारी के साथ इतने खतरनाक तूफान का मुक़ाबला किया, वो भी उतना ही अभूतपूर्व है। पिछले वर्षों में भारत ने आपदा प्रबंधन की जो ताकत विकसित की है, वो आज एक उदाहरण बन रही है।
गौरतलब है कि तुर्किये और सीरिया में भूकंपों के बाद, दुनिया ने भारत के आपदा प्रबंधन प्रयासों की भूमिका को पहचाना और सराहा है। दुनिया के 100 से ज्यादा देश भारत के नेतृत्व में गठित गठबंधन फॉर डिजास्टर रेजिलिएंट इंफ्रास्ट्रक्चर में शामिल हुए हैं। सही है कि प्राकृतिक आपदाओं को पूर्वानुमान के बावजूद रोका नहीं जा सकता है, लेकिन इनके प्रभाव को एक सीमा तक जरूर कम किया जा सकता है, जिससे कि जान-माल का कम से कम नुकसान हो।प्रत्येक वर्ष प्राकृतिक आपदाओं से अनेक लोगों की मृत्यु हो जाती है। ध्यान रहे आपदा
प्रबंधन का पहला चरण है खतरों की पहचान। इस अवस्था पर प्रकृति की जानकारी तथा किसी विशिष्ट अवस्थल की विशेषताओं से संबंधित खतरे की सीमा को जानना शामिल है। साथ ही इसमें जोखिम के आंकलन से प्राप्त विशिष्ट भौतिक खतरों की प्रकृति की सूचना भी शामिल होती है।आपदा के बाद की स्थिति आपदा प्रबंधन का महत्वपूर्ण आधार है। जब आपदा के कारण सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है तब उजड़े जीवन को पुन: बसाना एक बड़ी चुनौती होता है। प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला करने का एक बड़ा तरीका है प्रकृति का संरक्षण।
प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए एक गतिशील प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है।
पिछली शताब्दी की प्राकृतिक आपदाओं का अध्ययन करके एक सटीक अनुमान लगाया जा सकता है, साथ ही इन विधियों को समय रहते संशोधित करने पर जोर दिया जा सकता है। तीन माह पूर्व प्रधानमंत्री ने ठीक ही कहा था कि परंपरा और प्रौद्योगिकी हमारी ताकत हैं, और इस ताकत के साथ, हम न केवल भारत के लिए बल्कि पूरे विश्व के लिए आपदा प्रतिरोध से संबंधित सर्वश्रेष्ठ मॉडल तैयार कर सकते हैं कठिन भौगौलिक परिस्थति वाले प्रदेश में आपदा प्रबंधन कभी भी किसी सरकार की वरियता नहीं रहा। संभवत: यही वजह है कि 220साल बीत जाने के बाद भी इसके लिए कोई सरकार ठोस सिस्टम नहीं तैयार कर पाई है, जो आपदा से निपटने के लिए प्रदेश की पूंजी साबित हो सके. आपदा सचिव का कहना है, जिले में आपदा के काम को अंजाम देने के लिए जिलाधिकारी ही सक्षम अधिकारी हैं और एक्ट में भी उन्हीं के द्वारा ही सारा काम संचालित किया जाता है. आपदा आती-जाती है लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आपदाओं के प्रभाव को कम किया जा सकता है हम विकास का बड़ा बोझ नहीं उठा सकते। वैसे भी हिमालय ने संकेत देने शुरू कर दिये हैं. आर्थिक योजनाओं को बढ़ावा देने मात्र से हिमालय
का भला नहीं हो सकता। हिमालय को बचाने के लिये इसकी पारिस्थितिकी को ज्यादा महत्त्व देना पड़ेगा। केन्द्र को हिमालय के प्रति ऐसी रणनीति बनानी पड़ेगी, जो पहले इसके संरक्षण की जिम्मेदारी ले. यहाँ विकास के रास्ते पारिस्थितिकी से होते हुए गुजरें. सरकारों और नीतिकारों को यह तो समझना ही पड़ेगा कि हिमालयी विकास का ढाँचा मैदानी तर्ज में नहीं हो सकता. यहाँ विकास से ज्यादा विरासत जरूरी है और आर्थिकी से ज्यादा पारिस्थितिकी।
(लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)