जल जंगल जमीन सिर्फ नारा नहीं हमारी पहचान है - Mukhyadhara

जल जंगल जमीन सिर्फ नारा नहीं हमारी पहचान है

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जल जंगल जमीन सिर्फ नारा नहीं हमारी पहचान है

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  डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड राज्य गठन के वक्त एक नारा हवाओं में तैरता था- आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो, मडुवा-झुंगरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे। राज्य गठन के बाद उत्तराखंड के स्थानीय उत्पाद के महत्व को रेखांकित करता हुआ यह नारा नेपथ्य में चला गया। उत्तराखंड एक ऐंसा हिमालयी प्रदेश जिसकी नीव जल,जमीन,और जंगल इन तीन आधारभूत विकास स्तंबों पर रखी गई थी, जिसे प्रकृति ने अदभुत नेंसर्गिक
अनुपम सुंदरता के साथ साथ प्राकृतिक संसाधनों से भी बखूबी नवाजा है, पृथक राज्य बनने पर जो देश के मानचित्र में एक विकसित हिमालयी प्रदेश के रूप में उभर कर आये, पहाड़ की जनता को ऐंसी उम्मीदें और आशाएं थी, आमजन का ये सपना था कि राज्य बनने के बाद पर्वतीय जनपदों का बेहतर विकास होगा, स्वास्थ्य सेवाएं दुरस्त होंगी, रोजगार के साधनों में वृद्धि होगी, शिक्षा के स्तर में सुधार होगा, हर गाँव में बिजली और साफ पानी होगा , पलायन पर अंकुश लगेगा, एक छोटा सा राज्य बड़ी तीव्र गति से विकास की सीढ़ियां चढ़ लेगा, लेकिन इस आंचलिक प्रदेश को बने हुए एक लंबा अरसा बीत चुका है लेकिन सवाल आज भी वहीं के वहीं है और प्रश्न बार बार वही उठता है कि आखिर ये दयनीय स्थिति रहेगी कब तक?

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देवभूमि के नाम से मशहूर उत्तराखण्ड को बने हुए दो दशकों से ऊपर का समय हो गया है, इन दो दशकों में इस छोटे से राज्य ने कई उतार चढ़ाव देखें है ,एक प्रदेश के तौर पर यह अरसा बहुत ज्यादा नही लेकिन इतना कम भी नही कि पीछे मुड़कर देखने पर अपनी खूबियाँ और कमियों पर नजर ना डाली जा सके, राजनीतिक अस्थिरता के माहौल में घिरे राज्य में विकास की तमाम कोशिशें भी हुईं केंद्र सरकार ने विकास
के लिए अपार धनराशि का आबंटन किया तो राज्य सरकार ने भी विभिन्न निजी डेपलपर्स को उत्तराखंड के विकास के लिए न्यौता दिया लेकिन विकास के नाम पर यहां के प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन हुआ ,भ्रस्टाचार का दीमक यहां भी पहुंच गया,नदियों और जंगलों पर अतिक्रमण हुआ तो ज़ाहिर तौर पर प्राकृतिक आपदाओं के रूप में खामियाजा जनता को भुगतना पड़ा।

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स्वास्थ्य सेवाएं उम्मीद के मुताविक दुरस्त नही हो सकी, पिछले सालों में राज्य में भीषण आपदाएं आयी जिससे विकास के गाड़ी पटरी से उतर
गयी ,अब भी कई ऐंसे मसले हैं जहां हम काफी पीछे रह गये। आखिर दो दशक से ज्यादा के इस वक़्त में हम ने क्या खोया क्या पाया इसे इस तरह से कहा जा सकता है कि कितना खोया और कितना पाया, प्रदेश ने इस वक्त में सूबे के जितने मुख्यमंत्री देखें है उतना विकास नही देखा।आम आदमी की नजर से नजारा कुछ और ही दिखता है, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल रोजगार जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी जूझना पड़
रहा है। राज्य में कहीं भी चले जाइए जनभावनाएं इसी तरह से मिलेंगी, सवाल सियासी अस्थिरता का नही है बल्कि जनभावनाओं पर खड़ा उतरने का है ,वजह चाहे जो भी हों लेकिन डॉक्टर न मिलने से आज भी प्रसूताएं पहाड़ों में रास्तों में दम तोड़ रही हैं। प्राथमिक स्कूलों के भवन गाँव गाँव मे खड़े है और छात्र शिक्षको की बाट जोह रहे हैं, कई सड़के आज भी वन कानूनों में उलझी पड़ी हैं, तो कई फाइलों में उधोगों को पहाड़ चढ़ना आज भी सपना है ,और पलायन की पीड़ा आज भी कम होने का नाम नही ले रही है।

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पर्वतीय प्रदेश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि पहाड़ों से रोजी रोटी की तलाश में वहां की आबादी की बड़ीसंख्या मैदानी क्षेत्रों और अन्य राज्यों में जा रही है सीमित साधनों और दिशाहीन विकास के चलते सभी पहाड़ी जनपद पलायन की आड़ में हैं।प्रदेशवासी अच्छी शिक्षा और नौकरी की तलाश में दूसरे राज्य में जा चुके हैं जनसंख्या के आंकड़े भी खाली होते गांव की कहानी बयां कर रहे हैं,इसका प्रत्यक्ष उदाहरण विधानसभा सीटों का परिसीमन है। डाक्टर और मास्टर वहां काम करने से कतराते हैं, पलायन की मार और जंगली जानवरों के आतंक से बंजर होते खेत खलियान, गुलदार के जबड़ों में दम तोड़ती मासूम जाने, दरकते पहाड़ सिसकती जिन्दगियां, आज उन राजनेताओं से कई प्रश्न पूछ रही है, क्या यही सपनो का उत्तराखंड है, रोजगार के अवसर सृजित करने की अब तक कोई ठोस नीति नही बन पाई , राज्य में लाखों की संख्या में पंजीकृत बेरोजगार हैं और यह संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है।

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कई गाँव मे पड़े खाली मकान जो हमारे पुरखों की खून पसीने से व परिश्रम से सींची जागीरें थी आज भी वाशिंदों के अभाव में खंडरों में तब्दील हो रही है।इस पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में सियासी उथल पुथल एक बड़ी समस्या है यहां विगत बीस सालों में दो पार्टीयों का शासन रहा है, वावजूद इसके राज्य सियासी उलटफेर से जूझता रहा है,राज नैतिक पार्टीयों के नेताओं की आपसी कलह का ही नतीजा है कि इतने कम समय मे राज्य ने इतने मुख्यमंत्री देखें, हर बार संसदीय क्षेत्रों से पार्टीयों के उम्मीदवार जनता द्वारा चुनकर संसद पहुंचते हैं लेकिन अभी तक पहाड़ की मूल समस्यों की चर्चा कभी संसद में नही हुई।यहां तक कि सूबे के मुखिया भी पार्टी हाई कमान द्वारा थोपा जाता है। वह जनता द्वारा चुना गया विधायक नही होता है और जब जनता द्वारा चुना गया विधायक मुख्यमंत्री बनता है तो उसके खिलाफ पार्टी में साजिशें शुरू हो जाती हैं फलस्वरूप बार बार निजाम बदलने के चलते विकास योजनाएं बुरी तरह प्रभावित होती हैं राज्य के कल्याण के लिए ठोस फैसला सियासी उलटफेर में उलझ कर रह जाता है।

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सियासी पार्टीयों को बहुमत देने के बावजूद भी खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है।आज भूकानून और अंकिता भंडारी जैसी न्यायिक मांग ऐंसे बहुत सारे सवाल जस के तस पड़े हुए हैं। अब समय चुनावी महाकुंभ में कूदने वाले राजनैतिक पार्टीयों के उम्मीदवारों को आईना दिखाने का और प्रश्न करने का कि वे राजनीति को अपनी विरासत न समझे, पार्टी मुखिया का राग अलापकर वोट न बटोरे, बलकि अपने प्रदेश, क्षेत्र और वहाँ के नोनिहालो के भविष्य के बारे और वहां की मूल समस्यों की लड़ाई के लिए वोट मांगें अपने स्वहित को छोड़कर पहाड़हित में कार्य करें उत्तराखंड को विकास की गति दे न कि अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से जोड़ें। अब वक्त आ गया है कि राजनैति दल जनता के बीच अपना भरोसा बहाल करें, वरना भरोसे की टूटती डोर से उम्मीदें शिर्फ़ कटी पतंगें ही बनी रहेंगी। बल्कि सोचना वहाँ के मतदाताओं को भी होगा कि वह सिर्फ चुनावी प्रचार में राजनैतिक पार्टीयों का झंडा डंडा ही न उठाएं और न ही छोटे छोटे प्रलोभनों में पड़ें, एक बार अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य और पहाड़ के अस्तित्व के बारे में गंभीरता से विचार करें। उस व्यक्ति को चुने जो वास्तव में पहाड़ की पीड़ा और इन ज्वलन्त मुद्दों को समझता हो और संसद में इन मुद्दों पर चर्चा करने की हिम्मत रखता हो, फैसला आप के हाथों में है।

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उत्तराखंड राज्य का गठन हिमालय की अस्मिता के सवाल से पैदा हुआ है। लेकिन धीरे-धीरे यह गायब होता जा रहा है। पहाड़ों में रिज़ॉर्ट संस्कृति के मालिक बड़े पैसे वाले लोग हैं जो मुख्यतः मैदानी भागों से हैं। पहाड़ों को काट-काट कर बड़े बड़े होटल और रिज़ॉर्ट बनाए जा रहे हैं। पहाड़ का युवा पलायन कर रहा है। हालांकि उनके पलायन को रोकने के लिए एक आयोग भी बना था, लेकिन कुछ हुआ नहीं। पलायन का आलम यह है कि आज भी पहाड़ में दो हजार से अधिक गांव भूत के गांव कहे जाते हैं, क्योंकि वहां युवा नहीं के बराबर हैं। उत्तराखंड में पहाड़ी क्षेत्रों की आबादी लगातार कम हो रही है जबकि उसके मुकाबले मैदानी क्षेत्रों की आबादी हर वर्ष बड़ी रफ्तार से आगे बढ़ रही है, जिसके चलते आने वाले समय में जब भी परिसीमन होगा तो पहाड़ी क्षेत्रों का राज्य विधान सभा में प्रतिनिधित्व कम होगा और मैदानी क्षेत्रों का बढ़ेगा। यह आने वाले समय में व्यापक असंतोष का कारण बन सकता है। लेखक के निजी विचार हैं।

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