उत्तराखंड राज्य आंदोलन के प्रमुख राज्य आंदोलनकारी कैलाश पाठक (Kailash Pathak) को कब मिलेगा न्याय ! - Mukhyadhara

उत्तराखंड राज्य आंदोलन के प्रमुख राज्य आंदोलनकारी कैलाश पाठक (Kailash Pathak) को कब मिलेगा न्याय !

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उत्तराखंड राज्य आंदोलन के प्रमुख राज्य आंदोलनकारी कैलाश पाठक (Kailash Pathak) को कब मिलेगा न्याय !

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड राज्य आंदोलन में जिन लोगों नें सक्रियता के साथ संघर्ष किया उनका नाम राज्य आन्दोलनकारियों की सूची से बाहर कैसे रह गया यह बड़ा सवाल है। पिथौरागढ जिले के गंगोलीहाट पठक्यूड़ा निवासी कैलाश चन्द्र पाठक जो कि उस दौर के प्रमुख राज्य आंदोलनकारियों की सूची में रहे हैं उन्हें आज तक राज्य आंदोलनकारी का दर्जा न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है। चिन्हितकर्ताओं को इस बात का तत्काल संज्ञान लेना चाहिए।गौरतलब है की अलग राज्य गठन के बाद आंदोलन से दूरी बनाने वाले कांग्रेस और भाजपा से जुड़े कई लोगों को राज्य आंदोलनकारी घोषित किया गया लेकिन प्रमुख राज्य आंदोलनकारियों को 23साल भी उनका हक नहीं दिया गया है। राज्य आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले राज्य आंदोलनकारियों के साथ आंदोलन में शामिल रहे कई नेता आज सत्ता और विपक्ष में बैठे हैं।

वह व्यक्तिगत रूप से चिह्नीकरण से वंचित राज्य आंदोलनकारियों को अपना आंदोलन का साथी बताते हैं और उन्हें हक दिए जाने की बात कबूल करते हैं लेकिन सदन में प्रमुखता से वंचित राज्य आंदोलनकारियों के मुद्दे को नहीं उठा रहे हैं। मौजूदा सरकार ने पिछले साल दिसंबर तक वंचित आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण की तिथि घोषित की थी। नैनीताल जिले में 87 आंदोलनकारियों का चिह्नीकरण भी किया गया लेकिन एकाएक सरकार ने अन्य जिलों में चिह्नीकरण की प्रक्रिया पर रोक लगा दी। ऐसे में आज भी आंदोलनकारियों की फाइल शासन और
जिलाधिकारियों के दफ्तरों में धूल फांक रही है।

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बताया जाता है कि राज्य आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण के लिए नौकरशाहों ने कुछ ऐसे पैरामीटर बनाए हैंजिन पर प्रमुख राज्य आंदोलनकारी खरे नहीं उतर रहे हैं। नौकरशाहों के भरोसे राज्य आंदोलनकारियों को छोड़ा जाएगा तो वास्तविक हकदार को कभी भी हक नहीं मिल पाएगा। जमीनी स्तर पर आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण की ईमानदार पहल की जाए तो कहीं हद तक वास्तविक आंदोलनकारियों को न्याय मिल पाएगा। इसके लिए राज्य सरकार को भी चिह्नीकरण के मौजूदा नियमों को शिथिल करना चाहिए। विधायक भीमताल एवं प्रमुख राज्य आंदोलनकारी नें मुझे बड़ा दुख होता है ,जब मैं कुमाऊं विश्वविद्यालय छात्रसंघ अध्यक्ष था।उसे दौरान हमने हर क्षेत्र में दौरा किया, मैं जब गंगोलीहाट दौर में था कैलाश पाठक की उत्तराखंड आंदोलन वह पत्रकार सहित अहम भूमिका निभा रहे थे में।बल्कि वही निर्मल पंडित किसी मामले में एसडीएम को दुखी कर रखा था ,तो मैंने निर्मल पंडित जी को समझने की कोशिश तथा पाठक जी ने भी समझाया। इन्हें तो बहुत
पहले ही उत्तराखंड आंदोलनकारी घोषित कर देना चाहिए।

यह बड़ा दुर्भाग्य है, राज्य का जो वास्तव में आंदोलनकारी रहे हैं जिन्हें आहम भूमिका निभा रखी है। ऐसे लोगों का छूटना या उत्तराखंड राज्य के लिए हित में नहीं है। सरकार इन्हें तुरंत इन्हें आंदोलनकारी घोषित करें। लेकिन पृथक राज्य के लिए लड़ी गई लड़ाई के लिए जन आंदोलन थमा नहीं। आंदोलनकारी बताते हैं कि 1994 का दौर पहाड़ी राज्य के लिए लड़ा गया था। राज्य तो मिला लेकिन जो स्वरुप इन वर्षों में यहां दिखना चाहिए था। वह आज भी दूर है। आंदोलनकारी कहते हैं कि राज्य निर्माण आंदोलन की भूमि रही सबसे ज्यादा उपेक्षित रही। जिससे आंदोलनकारी काफी आहत भी हैं। सरकार के इस रवैये के कारण आमजनता का अपने वनों से आत्मीयता का रिश्ता खत्म हो गया है और उन्हें सरकारी सम्पत्ति की निगाह से देखा जाने लगा है। सरकारी वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग और बिल्डर माफिया इन वनों को वेदर्दी से काटने लगे।

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पत्रकार जगमोहन ‘आज़ाद’ से बातचीत के दौरान ‘गिर्दा’अपनी लोक-संस्कृति की सोच को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-‘लोक -संस्कृति सामाजिक उत्पाद है, पूरा सामाजिक चक्र चल रहा है, ऐतिहासिक चक्र चल रहा है और इस चक्र में जो पैदा होता है वही तो हमारी संस्कृति है। संस्कृति का मतलब खाली मंच पर गाना या कविता लिख देना, घघरा और पिछोड़ा पहने से संस्कृति नहीं बनती है। संस्कृति तो जीवन शैली है, वह तो सामाजिक उत्पाद है। जिन-जिन मुकामों से मनुष्य की विकास यात्रा गुजरती है, उन-उन मुकामों के अवशेष आज हमारी संस्कृति में मौजूद है,यही तो ऐतिहासिक उत्पाद हैं जिन्हें इतिहास ने जन्म दिया है।’ हिंदी लोक साहित्य हो या कुमाउँनी लोक साहित्य, लोक संस्कृति से सम्बद्ध तथ्यात्मक समग्र जानकारी उनके पास होती थी। इसलिए उन्हें कुमाऊंनीं लोक साहित्य और संस्कृति का ‘जीवित एनसाइक्लोपीडिया’ भी माना जाता था।

उत्तराखंड संस्कृति के बारे में ‘गिर्दा’  कहते हैं-‘हमारी संस्कृति मडुवा, मादिरा, जौं और गेहूं के बीजों को भकारों, कनस्तरों और टोकरों में बचाकर रखने, मुसीबत के समय के लिए पहले प्रबंध करने और स्वावलंबन की रही है, यह केवल ‘तीलै धारु बोला’ तक सीमित नहीं है।आखिर अपने घर की रोटी और लंगोटी ही तो हमें बचाऐगी। गांधी  ने भी तो ‘अपने दरवाजे खिड़कियां खुली रखो’ के साथ चरखा कातकर यही कहा था। वह सब हमने भुला दिया। आज हमारे गांव रिसोर्ट बनते जा रहे हैं। नदियां गंदगी बहाने का माध्यम बना दी गई हैं। स्थिति यह है कि हम दूसरों पर आश्रित हैं, और अपने दम पर कुछ माह जिंदा रहने की स्थिति में भी नहीं हैं।

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कई कुर्बानियों और तमाम संघर्षों की बदौलत उत्तराखंड राज्य मिला। देश को आजाद कराने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की तरह ही उत्तर प्रदेश से अलग राज्य की मांग को लेकर लोगों ने कई यातनाएं झेली और तमाम समस्याओं का सामना किया, लेकिन इन्हीं में से हजारों राज्य आंदोलनकारी ऐसे हैं, जिनका चिह्नीकरण अब तक नहीं किया जा सका है। इसके लिए सरकार की तरफ से कमेटी बनाई गई लेकिन ढाई साल बाद आज भी उस पर कुछ काम न हो सका। इसी को लेकर ये राज्य आंदोलनकारी राजधानी देहरादून में लगातार अपनी मांगों को रख रहे हैं। राज्य आंदोलनकारी का कहना है कि भूख- प्यास, पीड़ा और जिल्लत सहने और उन जैसे तमाम आंदोलनकारियों के संघर्षों के बाद उत्तराखंड राज्य बना। प्रदेश अस्तित्व में आया तो लोगों को कई उम्मीदें थीं कि सब कुछ बेहतर होगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।

करीब 23 साल बाद आज भी स्थितियां ठीक नहीं हुई हैं। उन्होंने बताया कि जब एनडी तिवारी की सरकार बनी, तो उन्होंने राज्य आंदोलन- कारियों के लिए कुछ बेहतर करने की सोची क्योंकि वह भी एक राज्य आंदोलनकारी रहे थे इसीलिए वह पहाड़ की पीड़ा को समझते थे।उन्होंने राज्य आंदोलनकारियों के रोजगार के लिए कुछ कदम उठाए उन्होंने बताया कि पूर्व सीएम एनडी तिवारी ने खासकर उन राज्य आंदोलनकारियों को समूह ग आदि के पदों पर नियुक्ति के लिए 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण देने की बात की, जो घायल हुए या उन्होंने जेल जाकर यातनाएं झेली। उनका कहना है कि भले ही सरकारों ने कई वायदे किए हों कि राज्य आंदोलनकारी को सम्मान मिलेगा और उनकी मांगे पूरी होंगी लेकिन आज भी जमीनी हकीकत कुछ और ही है।

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वहीं दूसरे राज्य आंदोलनकारी का कहना है कि जिस तरह देश के स्वतंत्रता से उनका कहना है कि भले ही सरकारों ने कई वायदे किए हों कि राज्य आंदोलनकारी को सम्मान मिलेगा और उनकी मांगे पूरी होंगी लेकिन आज भी जमीनी हकीकत कुछ और ही है। उन्होंने कहा कि 40 से ज्यादा शहीद परिवारों को शामिल कर कई हजारों राज्य आंदोलनकारी ऐसे हैं, जिनका चिह्नीकरण अभी तक नहीं हो पाया है और ऐसे में वे अपने अधिकार से वंचित हैं। वहीं इस मामले में सरकार का कहना है कि राज्य आंदोलकारियों के चिह्नीकरण समेत सभी मांगों पर विचार किया जा रहा है। इस मामले में जल्द किसी नतीजे तक पहुंचा जाएगा ताकि स्थायी समाधान मिल सके।

गौरतलब है कि राज्य बनाने के लिए अपने भाई, बेटे को खोने वाले परिवार और राज्य के लिए शहादत देने वाले लोगों ने जिस सपने को लेकर लड़ाई लड़ी थी, उनका सपना अधूरा ही नजर आ रहा है क्योंकि पिछले करीब 23 वर्षों से राज्य आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण,पेंशन सहित तमाम मांगों को लेकर राज्य आंदोलनकारी सड़क पर उतर रहे हैं। इस बार उन्होंने सरकार को चेतावनी दी है कि अगर उनकी मांगें पूरी नहीं हुई, तो वे उग्र आंदोलन करने को मजबूर है वर्तमान सरकार राज्य आंदोलनकारियों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण भी स्वीकृत नहीं कर पायी। महासचिव ने कहा कि जंगल, जमीन पर जिस राज्य का अधिकार न हो, ऐसा आधा अधूरा राज्य बनाकर उत्तराखंड की जनता ने जनता को छलने का काम किया है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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