उत्तराखंड में जमीन खरीदना अब नहीं रहेगा आसान! - Mukhyadhara

उत्तराखंड में जमीन खरीदना अब नहीं रहेगा आसान!

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उत्तराखंड में जमीन खरीदना अब नहीं रहेगा आसान!

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड ही एकमात्र हिमालयी राज्य है, जहां राज्य के बाहर के लोग पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि भूमि गैर कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद रहे हैं।सशक्त भू-कानून नहीं होने से प्रदेश के भूमिधर भूमिहीन हो रहे हैं,इससे स्थानीय निवासियों में रोष है। इसका असर पर्वतीय राज्य की संस्कृति, परंपरा, अस्मिता और पहचान पर पड़ रहा है। देश के कई राज्यों में कृषि भूमि की खरीद से जुड़े सख्त नियम हैं। अब मुख्यमंत्री ने निर्देश दिया है कि समिति द्वारा विशेषज्ञों और विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लोगों के सुझावों के आधार पर तेजी से ड्राफ्ट बनाया जाए। जब तक ऐसा नहीं हो जाता, तब तक प्रदेश में बाहरी व्यक्तियों के कृषि एवं उद्यान के उद्देश्य से जमीन खरीदने पर रोक लगा दी गई है। मतलब कि आपने यदि उत्तराखंड में जमीन खरीदने का मन बनाया है तो फिलहाल इस पर अमल नहीं कर पाएंगे।

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हिमालयी राज्य उत्तराखंड में भूमि का मुद्दा सुरक्षा और जन संवेदनाओं से गहरे जुड़ा है। हालत ये है कि राज्य में महत्वपूर्ण योजनाओं और औद्योगिक विकास के लिए जमीन की उपलब्धता चुनौती बनी हुई है। एक ओर अस्पतालों, शिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों समेत जनोपयोगी कार्यों के लिए सरकार को भूमि नहीं मिल रही है, दूसरी ओर अनियोजित तरीके से जमीन की खरीद-फरोख्त थमने का नाम नहीं ले रही। बड़े
पैमाने पर भूमि खरीद के चलते कई स्थानों पर जनसांख्यिकीय में तेजी से हो रहे बदलाव ने देवभूमि के स्वरूप को लेकर नई चिंता को जन्म दिया है। ऐसे में चीन और नेपाल सीमा से सटे पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन से खाली होते गांवों ने सीमाओं की सुरक्षा के सवाल को और पेचीदा बना दिया है।

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आंकड़े भी बताते हैं कि भूमि का मुद्दा उत्तराखंड के लिए महत्वपूर्ण रहा है। उत्तराखंड में भी हिमाचल की तर्ज पर भूमि कानून बनाने की मांग की जा रही है। दोनों राज्यों की भौगोलिक परिस्थितियां तकरीबन समान हैं। दोनों राज्यों में लागू भूमि कानूनों में बड़ा अंतर है। हिमाचल में कृषि भूमि खरीदने की अनुमति तब ही मिल सकती है, जब खरीदार किसान ही हो और हिमाचल में लंबे अरसे से रह रहा हो। हिमाचल प्रदेश किराएदारी और भूमि सुधार अधिनियम, 1972 के 11वें अध्याय कंट्रोल आन ट्रांसफर आफ लैंडÓ की धारा-118 के तहत गैर कृषकों को जमीन हस्तांतरित करने पर रोक है। यह धारा ऐसे किसी भी व्यक्ति को जमीन हस्तांतरण पर रोक लगाता है जो हिमाचल प्रदेश में कृषक नहीं है।

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हिमाचल में राज्य का गैर-कृषक व्यक्ति भी जमीन नहीं खरीद सकता है। राज्य के कुल क्षेत्रफल का 71 प्रतिशत से ज्यादा वन क्षेत्र है। इसमें भी मैदानी भू-भाग की हिस्सेदारी मात्र 13.92 प्रतिशत है। 86 प्रतिशत से अधिक भू-भाग पर्वतीय है। आरक्षित वन क्षेत्र, वन्यजीव अभ्यारण्यों से लेकर तमाम पर्यावरणीय बंदिशें इस पूरे हिमालयी क्षेत्र को अत्यंत संवेदनशील बनाती हैं। पर्वतीय से लेकर शहरी क्षेत्रों में प्रदेश में भू-कानून को अब पड़ोसी राज्य हिमाचल की तर्ज पर सख्त बनाने की मांग की जा रही है। इस मांग पर राजनीति भी तेज हो गई है। लेकिन इस दिशा में भूमि कानून की तब्दीलियों पर वह मौन है। उसका यही मौन हिमालय और इसकी हिफाजत के लिए लगातार संघर्ष कर रहे लोगों के इस आरोप को बल देता है कि सरकार ने पूंजीनिवेश की अपनी नीति को आगे बढ़ाने की चाह में जाने-अनजाने पहाड़ में जमीनों की लूट-खसोट का रास्ता बेहद आसान कर दिया है।नए संशोधन के जरिये राज्य सरकार ने अब तक चले आ रहे कानून में धारा 143-क और धारा-154 (2) जोड़ते हुए पहाडों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा खत्म कर दी है।

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अभी तक राज्य में कृषि योग्य जमीन खरीदने की अधिकतम सीमा 12.5 एकड़ थी और इसे वही व्यक्ति खरीद सकता था जो सितम्बर, 2003से पहले तक यहां जमीन का खातेदार रहा हो। लेकिन अब सरकार ने उद्योग के नाम पर कितनी ही जमीन खरीदने की छूट दे दी है और कृषि भूमि के गैर-कृषि उपयोग के नियम बहुत शिथिल कर दिए हैं। राज्य के बाहर का कोई भी उद्यमी सिंगल विंडो प्रणाली के तहत निवेश का प्रस्ताव स्वीकृत करा पहाड़ में कहीं भी भूमि खरीद सकेगा। संशोधित नियमों के मुताबिक राज्य के मैदानी जनपदों हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर के अलावा देहरादून और नैनीताल के मैदानी हिस्सों पर नए नियम लागू नहीं होंगे। साथ ही नगर निगम, नगर पंचायत, नगर परिषद और छावनी परिषद क्षेत्रों की सीमा में आने वाले और समय-समय पर सम्मलित किए जाने वाले क्षेत्रों को भी इस कानून से मुक्त रखा गया है।सरकार भले ही दावा कर रही है ‌कि अब उद्योगों को पहाड़ चढ़ने का रास्ता मिल सकेगा मगर यहां उद्योगों के लिए जमीन बची ही कहां है !

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उत्तराखंड के पहाडों में कुल 54 लाख हेक्टेयर जमीन बताई जाती है। इसमें लगभग 34 लाख हेक्टेयर वन विभाग के आधीन है। 10 लाख हेक्टेयर बेनाप/वैरान जमीन है जिसपर 1893 के रक्षितभूमि कानून के तहत किसी का अधिकार नहीं है। पहाड़ की ग्रामीण जनता अंग्रेजों के जमाने से ही मांग करती आई है कि इस रक्षित भूमि पर उन्हें पंचायती व सामुदायिक कार्यों की इजाजत दी जाए। अंग्रेजों ने छिटपुट अधिकार ‌दिए भी थे मगर आजादी के बाद 1960 में उत्तर प्रदेश सरकार ने पर्वतीय जिलों के लिए अलग से उत्तराखंड जमींदारी विनाश और भूमि सुधार कानून (कुजा एक्ट) बनाकर बेनाप भूमि पर पंचायतों के सारे अधिकार छीन लिए। ऊपर से यह भी थोप दिया कि सामुदायिक प्रयोजनों जैसे- स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, डाकघर, क्रीडास्थल, उच्च एवं तकनीकी शिक्षा संस्थान, पंचायत भवन, सड़क आदि के लिए किसानों को अपनी जमीन निःशुल्क सरकार को देनी होगी।

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उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी यहां की सरकारों ने इस कानून में परिवर्तन करना आवश्यक नहीं समझा। उल्टे वे यहां की बची-खुची कृषि- भूमि के बारे में भू-माफियाओं व बिल्डरों के हित में नए-नए भू-अध्यादेश लाती रहीं। 1823 में पहले बंदोबस्त के समय उत्तराखण्ड के पर्वतीय भू-भाग में जो कृषियोग्य जमीन 18 प्रतिशत थी, वह आज सिर्फ चार प्रतिशत रह गई है। बेहतर होता कि सरकार अंग्रेजों के जमाने से बंद रक्षित भूमि को औद्योगिक प्रयोजन के लिए खोलती। तब उसकी मंशा पर संदेह की गुंजाइश कम होती और उसकी छवि भूमि सुधारक के रूप
उभरती। एक विकट भूमि संकट के मुहाने पर खड़े इस राज्य में कृषि भूमि के गैर-कृषि उपयोग की खुली छूट का सीधा असर यहां के गरीब किसान और काश्तकार पर पड़ना तय है। सरकार ने हालांकि विधेयक में यह प्रावधान किया है कि भूमि को सिर्फ उद्योग स्थापित करने के लिए खरीदा जा सकता है और शर्तों के उल्लंधन की सूरत में क्रय की गई जमीन राज्य सरकार को हस्तांतरित हो जाएगी।

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सरकार की मंशा पर शक न भी करें तो ऐसे नियमों को लेकर अतीत के अनुभव कड़वे रहे हैं। कानूनों की मनमानी व्याख्या और नियमों को मनमुताबिक तोड़-मरोड़कर पहाडों में उद्योगों के नाम पर जमीनें सौंपी जाती रही हैं लेकिन न तो सुदूर पहाडों में कोई बड़ा कारखाना लगा और न रोजगार की संभावनाएं जगीं। अब नई व्यवस्था में क्या गारंटी है कि जमीन का मनमाना उपयोग नहीं होगा। ! सरकार की नई पर्यटन नीति में पर्यटन को उद्योग का दर्जा दिया गया है और पर्यटन की परिभाषा में वह सब शामिल कर लिया गया है जिसके जरिये कोई भी व्यक्ति उद्यम के बहाने सरकार की आंखों में आसानी से धूल झोंक सकता है। होटल, रिजॉर्ट, रेस्टोरेंट, इको-लाउंज, पार्किंग स्थल, मनोरंजन पार्क, एडवेंचर, योगकेंद्र, आरोग्य केंद्र, कन्वेंशन सेंटर, स्पा, आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा और हस्तशिल्प आदि कुल 28 गतिविधियों को पर्यटन की परिभाषा में शामिल किया गया है। साथ ही चिकित्सा, स्वास्थ्य और शैक्षिणिक प्रयोजन भी ‘औद्योगिक प्रयोजन’ में शामिल हैं।

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उत्तराखंड के सीएम ने बाहरी लोगों के उत्तराखंड में जमीन खरीदने पर रोक लगा दी है। धामी ने आदेश दिया है कि अग्रिम आदेश तक जिलाधिकारी उत्तराखंड से बाहर के व्यक्तियों को कृषि एवं उद्यान के उद्देश्य से भूमि खरीदने की अनुमति नहीं देंगे। यानी प्रदेश में बाहरी व्यक्तियों के कृषि एवं उद्यान के उद्देश्य से जमीन खरीदने पर अंतरिम रोक लगा दी गई है। इसके पहले भी मुख्यमंत्री उत्तराखंड में भूमि क्रय से पूर्व खरीदार के भूमि खरीदने के कारण पृष्ठभूमि के सत्यापन के उपरांत ही भूमि क्रय करने के निर्देश दिये थे। जाहिर है ये सभी क्षेत्र राज्य के
भीतर उद्योग का दर्जा प्राप्त करेंगे और जमीनें पाने के हकदार होंगे।इस प्रकार देखा जाए तो कश्मीर से लेकर  कोहिमा तक हिमालयी प्रदेशों में उत्तराखंड इकलौता राज्य है जहां बाहरी लोगों के लिए भूमि खरीद पर कोई बंदिश आज की तारीख में नहीं है। ऐसे में यहां के नए भूमि संशोधनों को देश की सामरिक चिन्ता से जोड़कर भी देखा जाना चाहिए। यहां के मलारी, मिलम, मुनस्यारी, धारचूला, लाता, माणा और गंगोत्री घाटी जैसे संवेदनशील क्षेत्रों की सीमा चीन से लगी है।

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औद्योगिक प्रयोजन के नाम पर सीमावर्ती क्षेत्रों में जमीन खरीदने की छूट सामरिक सुरक्षा के लिहाज से जोखिम भरा निर्णय है। इसके अलावा पूरे देश के लिए पर्यावरण और इकोलॉजी की दृष्टि से बेहद संवेदनशील उत्तराखंड के पहाडों में जमीनों की खुली सौदेबाजी निकट भविष्य में
कई खतरों वाले असंतुलन का भी सबब बन सकती है। उत्तराखंड के अस्तित्व को बचाने और स्थानीय संसाधनों की लूट के खिलाफ आप सब लोग इस आंदोलन का हिस्सा बनें जो हमारी पीढ़ियों की बेहतरी का रास्ता निकालेगा। देवभूमि उत्तराखंड के जनमानस के सामाजिक व सांस्कृतिक अस्तित्व को बचाने की प्रभावी पहल करें।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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