अन्नदाता की दिक्कतें कब समझेगी सरकार?

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अन्नदाता की दिक्कतें कब समझेगी सरकार?

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

धरती का लगभग पांचवां हिस्सा पहाड़ों से ढका है, जिसमें दुनिया की आबादी का 10वां हिस्सा रहता हैं। इन पहाड़ी क्षेत्रों में दुनिया के कुछ सबसे गरीब समुदायों के लोग रहते हैं।

देश का 87 फीसदी हिस्सा भीषण गर्मी और लू से प्रभावित है। तन, मन को झुलसाता तापमान हमारे खेत, खलिहान को भी झुलसा रहा है। बढ़ता तापमान, उससे उत्पन्न जलवायु परिवर्तन तथा उसकी पर्यावरणीय विद्रूपताएं वैश्विक हैं और इसके चलते हमारे समेत सबकी खेती-किसानी चौपट होने का अंदेशा है। २०५० तक दुनिया की आबादी १० अरब होगी तो अनाजों की मांग बढ़ेगी और उनकी खेती भी। लेकिन तापमान की बढ़ोतरी से फसलों के प्रभावित होने के चलते इतनी आबादी का पेट भरना कठिन होगा। इसे लेकर हमको अपने बारे में बाकी दुनिया के मुकाबले कुछ ज्यादा ही चिंतित होने की जरूरत है।

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सच यही है कि सत्वर बढ़ती अर्थव्यवस्था के बावजूद अभी भी हम औद्योगिक नहीं, कृषि प्रधान देश हैं। हमारे ६० फीसदी से अधिक लोगों की आजीविका कृषि पर आधारित है। बहुतायत लोग पशुपालन, फलों और फूलों की खेती इत्यादि पर निर्भर हैं और इन सबको तापमान की बढ़ोतरी से खतरा है। आकलन कहता है कि २०३९ तक जलवायु परिवर्तन के खतरों के चलते देश में कृषि उत्पादन लगभग १७ प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। जब ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स भारत को जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित दस शीर्ष देशों में रखता है तो यह तथ्य और चिंतनीय हो जाता है।

देश में रबी की फसल का रकबा पिछली साल की तुलना में तकरीबन चार लाख हेक्टेयर बढ़ गया है, अनुमान के अनुसार उम्मीद की जा रही है कि तिलहन छोड़ दलहन और गेहूं इत्यादि का उत्पादन पहले से ज्यादा होगा। पर यह बढ़त रकबे की बढ़त के अनुरूप नहीं है। जाहिर है, किसान जितना श्रम और लागत लगाएगा, उसे उसका प्रतिफल उतना नहीं मिलेगा। आगे यह संकट और गहराएगा। अगर २७ लाख की सब्सिडी पाने वाले अमेरिकी किसानों का गेहूं देश में आया तो मात्र ४५ हजार तक अनुदान पाने वाले भारतीय किसानों का गेहूं मूल्य के मामले में नहीं टिक पाएगा। हालांकि, ये बाजार की बात है, लेकिन इसमें भी किसान और किसानी शामिल ही है।

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खैर, घटते उत्पादन के बीच पेट भरने के लिए हमको दूसरों से ज्यादा खाद्यान्न चाहिए; क्योंकि डेढ़ अरब पहुंचती हमारी आबादी दूसरों के मुकाबले कहीं बहुत ज्यादा है। विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ने और उसके तीव्र विकास के अलावा आर्थिक उन्नति के बहुतेरे दावों के बावजूद जमीनी सच यही है कि देश की अधिकांश आबादी, जिसमें सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले अमीर राज्य के निवासी भी शामिल हैं, सरकार द्वारा बांटे गए सस्ते या मुफ्त खाद्यान्न पर निर्भर हैं। अपना दाना न रहा तो हम यह वैâसे बांट पाएंगे। इसका असर राजनीति पर भी प्रतिकूल पड़ेगा। बेशक खाद्यान्न वितरण के मामले में हम आत्मनिर्भर हैं पर जलवायु विज्ञानी कहते हैं कि तापमान १ डिग्री सेल्सियस बढ़ जाए तो गेहूं का उत्पादन १७ प्रतिशत तक कम और धान की बारी आने पर २ डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने का मतलब है उसके उत्पादन में तकरीबन एक टन प्रति हेक्टेयर की कमी होना।

मतलब बढ़ती गरमी आजीविका और खाद्य सुरक्षा दोनों को खतरे में डालने वाली है, साथ ही मुफ्त खाद्यान्नों के लाभार्थियों वाली राजनीति को भी। मौसम में बदलाव, गर्मी के दिन ज्यादा और सर्दी के दिन कम कर रहा है, जिससे पूरा फसल चक्र गड़बड़ा जा रहा है। किसान पुराने ढर्रे पर चलकर बुआई, कटाई कर नुकसान उठा रहे हैं और नए को अपना नहीं पा रहे।

अनिश्चितता और असमंजस की इस नई स्थिति में उनका पुराना अनुभव काम नहीं आ रहा और कभी उन्हें मात्रा के तौर पर बेहतर उपज नहीं मिल रही तो कभी दाने पुष्ट नहीं, कमजोर, गुणवत्ता हीन पैदावार। भले सरकार अपनी खरीद के मूल्य को बढ़ा दे, पर ऐसी आफत में किसान की आमदनी दोगुना तो होने से रही। तीव्र तापमान से प्रदूषण, भू-क्षरण, जमीन की नमी कम होने और सूखा पड़ने के कारण फसलों की ही नहीं, बल्कि जमीन की गुणवत्ता भी गिरती है।

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भीषण तापमान, तिस पर बेहद कम वर्षा तथा जल स्रोतों, जलाशयों, का तेजी से सिकुड़ना। ऐसे में जहां दो तिहाई कृषि क्षेत्र खेती के लिये वर्षा जल पर निर्भर हों, फसलों की परंपरागत सिंचाई में भारी बाधा पैदा होगी। गर्मी खेतों में कीट-पतंगों की प्रजनन क्षमता बढ़ाकर उनका प्रकोप लाएगी तो अधिक कीटनाशक के इस्तेमाल से मुसीबतें पैदा होंगी। यह कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता को तापमान प्रभावित करेगा।

गेहूं, सरसों, जौ और आलू ,मक्का, ज्वार और धान ही नहीं चाय, सेब जैसे कई फलों का उत्पादन भी घटेगा। दूसरे तमाम देशों ने अपनी परिस्थिति और प्राथमिकता के अनुरूप उपाय आरंभ कर दिये हैं, अपना देश भी २००८ से ही इस मामले में कई सरकारी योजनाएं क्रियान्वित कर रहा है। तब ‘अनुकूलन’ पर आधारित राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन शुरू किया गया था। फिलहाल अभी भी इस ओर किए जाने वाले सभी प्रयास फुटकर योजनाओं तक सीमित हैं, जबकि कृषि प्रधान देश होने के नाते हमें तत्काल नए कुछ उपाय करने होंगे।

इन उपायों के लिए सुविचारित नीति की आवश्यकता है, उसके साथ ही एक नई समग्र कृषि नीति की, जो जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गर्मी, उसके दुष्प्रभावों और आसन्न खतरों एवं उसके निदानों को केंद्र में रखकर बनी हो।सरकार को वाटर शेड प्रबंधन के माध्यम से वर्षा जल का प्रबंधन और माइक्रो इरीगेशन का कार्यक्रम, जिसमें जल के साथ जमीन का भी संरक्षण शामिल हो, वैâसे जोर पकड़े इसे अपनी देखरेख में पंचायत स्तर पर चलवाना चाहिए।

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जैविक और मिश्रित खेती को बढ़ावा देने से कीटनाशक का इस्तेमाल कम होगा तो मृदा की उत्पादकता क्षरण रोकने तथा रासायनिक खादों का इस्तेमाल घटाने में मदद मिलेगी। हमें फसलों के पैटर्न तथा बुआई के समय में भी क्षेत्रवार बदलाव लाना होगा। बीजों की ऐसी किस्मों का विकास करना होगा जो अधिक तापमान, सूखे तथा बाढ़ जैसी संकटमय परिस्थितियों के लिए सहनशील हों। पारंपरिक ज्ञान तथा नई तकनीकों के समन्वयन और समावेशन द्वारा इंटरक्रोपिंग करने के गुर सहित किसानों को जलवायु अनुकूलन तकनीकों को अपनाने के लिए भी जागरूक करना होगा। किसानों को बताना होगा कि जलवायु परिवर्तन क्या है और इसके खतरे और मायने उनके लिये क्या हैं? उन्हें क्लामेट स्मार्ट एग्रीकल्चर की ओर क्यों बढ़ना चाहिये।

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अधिक उत्पादन पाने, टिकाऊ खेती अपनाने, कम पानी वाली फसलों का व्यवहार वगैरह सिखाने के साथ ही क्षेत्रानुसार पोषक प्रबंधन करना होगा। सरकार बहुत कुछ कर रही है, पर जमीन से जुड़े इस मामले से निबटने के लिए उसे जमीन पर उतरना होगा। एजेंसियों को किसानों को साथ लेना होगा। जिनका वास्ता सीधे कृषि से नहीं है अथवा जिनकी आजीविका का स्रोत कृषि या उससे संबद्ध क्षेत्र नहीं है। वे यह सोच सकते हैं कि वे किसान नहीं हैं न अनाज के आढ़ती, व्यापारी सो वे इस खतरे से दूर हैं, पर महंगाई और किल्लत तथा गुणवत्ताहीन खाद्य पदार्थों एवं बेस्वाद फलों के जरिए वे भी इससे परोक्षत: प्रभावित होंगे।

बढ़ता तापमान जलवायु परिवर्तन का जनक है, जो मानव जीवन को हर तरह से कष्टकारी बनने वाली पर्यावरणीय स्थितियों का निर्माण कर रहा है। इसलिए यह सरकार के साथ- साथ सारी जनता की साझी चिंता होनी चाहिए क्योंकि अब जलवायु परिवर्तनशीलता मात्र आंकड़ों की बातें या सैद्धांतिक बहसों का विषय न रहकर सामने दिखने वाली वास्तविकता बन चुकी है। प्रधानमंत्री की अगुआई वाली सरकार ने 2016 में किसानों की आय को 2022 तक दोगुना करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा था।

इसके लिए जरूरी रणनीतियों की सिफारिश करने के लिए एक इंटर-मिनिस्ट्रियल कमेटी भी बनी थी। कमेटी ने सितंबर 2018 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। सरकार ने पैनल की सिफारिशों को स्वीकार किया और प्रगति की समीक्षा और निगरानी के लिए एक ‘अधिकार प्राप्त निकाय’ (की स्थापना की है।रमेश चंद का कहना है कि सरकार ने किसानों की आय दोगुना करने का लक्ष्य इसलिए रखा था, ताकि हम अपनी कोशिशों को तेज कर सकें। अब इसका मूल्यांकन करने की जरूरत है कि हमने टारगेट को हासिल किया या नहीं। लेकिन, दुर्भाग्य से हमारे पास जरूरी डेटा नहीं हैं।

(लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।)

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