राजी समुदाय (Raji community) के लिए कहां है आजादी
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखण्ड राज्य के पिथौरागढ़ जनपद में लगभग 66 % राजी जनजाति पायी जाती है। इसके अतिरिक्त यह चंपावत एवं नैनीताल जिले में निवास करती है। राजी जनजाति को बनरोत, बनराउत, बनरावत, जंगल के राजा आदि नामों से भी संबोधित किया जाता है। इन सब में राजी नाम अधिक प्रचलित है।जंगलों के बीच गिरि, कंदराओं में निवास, शेष समाज से कट कर अलग-थलग अपनी ही दुनिया में मस्त रहने वाली आदिम जनजाति वनराजि समाज में महिलाएं मिथक तोड़ रही हैं। जंगलों से निकल पाठशालाओं से होते हुए कालेजों से उच्च शिक्षा लेकर समाज की दिशा और दशा बदल रही हैं।
जंगलों और प्रकृति से जो मिला उससे आज का गुजारा कर भविष्य की कोई सोच नहीं रखने वाले समाज की महिलाएं आज बैंकों, डाकघरों में खाता खोल चुकी हैं। कुछ महिलाओं ने तो परिवार के नए सदस्य का बीमा तक भी कराना प्रारंभ कर दिया है। गाय, बकरी और मुर्गी पालन कर पुख्ता रोजी रोटी की दिशा में बढ़ रही हैं। शिक्षा से तौबा रखने वाले समाज की पचास फीसद महिलाएं अपने प्रयास से साक्षर हो चुकी हैं।
समाज सीमांत जनपद पिथौरागढ़ की धारचूला और डीडीहाट तहसीलों के नौ स्थानों पर निवास करता है। प्रदेश की एकमात्र आदिम जनजाति समाज है। नौ गांवों में रहने वाले इस आदिम जनजाति की कुल जनसंख्या 685 है। जिसमें महिलाओं की संख्या 215 है। अन्य लोगों से दूरी
रखने वाले इस आदिम समाज के लोग पूरी तरह जंगलों पर आश्रित थे। वन अधिनियम 1980 के बाद वनों पर आश्रय समाप्त हो गया। इसके बाद समाज के पुरुष जंगलों में लकड़ी चीरने का कार्य करते थे। वन अधिनियम के चलते यह कार्य सिमटता गया। समाज पूरी तरह पुरुष प्रधान है। शिक्षा का स्तर शून्य था। इस समाज में महिलाओं की स्थिति बेहद दयनीय रही है। जिसके चलते यहां पर जन्म मृत्युदर काफी अधिक रही। आजादी के बाद भी इनकी संख्या मात्र 685 ही रह चुकी है।
शिक्षा से वंचित इस समाज से सबसे पहले समाज की बालिका मंजू रजवार ग्रेजुएट बनी। वह इस समय आंगनबाड़ी केंद्र संभाल रही है। इसके बाद इसी समाज की जानकी और उसकी बहन हिमानी ने एमए पास किया। वर्तमान में 15 से अधिक वनराजि बालिकाएं जूनियर हाईस्कूल से
लेकर स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। जबकि पुरुष वर्ग में एक युवक बलवंत रजवार इंटर तक पहुंचा और बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी। समाज की बालिकाएं जंगली रास्तों से कई किमी पैदल चलकर विद्यालयों में पढ़ने जाती हैं। रजनी, हंसा, कविता वनराजि समाज की महिला नारी सशक्तीकरण का उदाहरण बनती जा रही हैं।
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समाज की जिन महिलाओं ने कभी स्कूल के दर्शन नहीं किए। जंगल के बीच आंखे खुली और जंगलों में बचपन ही नहीं जीवन गुजरा आज अपने लिए मुखर होती जा रही हैं। महिलाओं में पचास फीसद महिलाएं अपना नाम लिख कर हस्ताक्षर करती हैं बैंकों, डाकघर में अपनी आजीविका से पुरुषों से बचाकर खाता खोल चुकी हैं। समाज के अधिकारों के लिए अधिकारियों और कर्मचारियों के आगे बेझिझक अपनी बातें रखती हैं। गाय, बकरी, मुर्गी पालन होने लगा राजी समाज के पुरुष आज भी अपनी आदतों में सुधार नहीं कर सके हैं। वहीं महिलाएं मेहनत, मजदूरी के साथ गाय, बकरी और मुर्गी पालन कर आजीविका करने लगी हैं। पूरे परिवार की जिम्मेदारी संभाल कर बच्चों को पढ़ाने का कार्य भी कर रही हैं। एक स्वयंसेवी संस्था अर्पण की महिला सदस्यों द्वारा इनके बीच रह कर जागरुक करने का प्रयास सफल हो रहा है। अलबत्त्ता अभी कूटा, चौरानी जैसे क्षेत्रों में मजूदरी नहीं मिलने की समस्या जीवन स्तर उठाने में बाधक बनी है।
कालेजों से उच्च शिक्षा लेकर समाज की दिशा और दशा बदल रही हैं। जंगलों और प्रकृति से जो मिला उससे आज का गुजारा कर भविष्य की कोई सोच नहीं रखने वाले समाज की महिलाएं आज बैंकों, डाकघरों में खाता खोल चुकी हैं। कुछ महिलाओं ने तो परिवार के नए सदस्य का बीमा तक भी कराना प्रारंभ कर दिया है। गाय, बकरी और मुर्गी पालन कर पुख्ता रोजी रोटी की दिशा में बढ़ रही हैं। राजी जनजाति के लोग अब भी लगभग आदिम परिस्थितियों में रहते हैं, लेकिन इनकी संख्या अब घट रही है।
उत्तराखंड सरकार को एक अध्ययन रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि वह राज्य की कमजोर ‘राजी’ जनजाति को सशक्त बनाने के लिए उन्हें कृषि भूमि देने समेत अन्य विशेष प्रयास करे। एक रिपोर्ट में जनजाति की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कमजोरियों को समझने के लिए एक सर्वेक्षण किया गया। यह सर्वेक्षण ग्रामीण योजना और कार्रवाई संघ (अर्पण) नामक एक गैर-सरकारी संगठन ने रोजा लक्जमबर्ग स्टिफ्टंग की दक्षिण एशियाई इकाई के सहयोग से किया गया। जिसमें राजी जनजाति के लोगों को सशक्त बनाने के कई सुझाव भी दिए, ताकि वे सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें। राजी जनजाति के लोगों को उनकी क्रय शक्ति सुधारने के लिए नियमित रोजगार दिया जाना चाहिए। उनके मौजूदा कौशल को प्रशिक्षण देकर बढ़ाने के साथ उन्हें सिंचाई तथा मिट्टी परीक्षण जैसी बुनियादी सुविधाएं प्रदान जानी चाहिए। उत्थान के लिए युद्धस्तर पर कार्य करने की जरुरत है।
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ऐसा ही हाल बुक्साओं का है। इनकी आबादी भले ही 40 हजार हो लेकिन यह जनजाति भी मुख्यधारा से कटी ही हुई है। इन पर आयोग का विशेष ध्यान है। इसके अलावा जनजातियों को भूमि का अधिकार दिए जाने पर जोर दिया जा रहा है।सरकार ने पट्टे देकर इतिश्री कर दी है। उनकी हालत भी बेहद खराब है। यह अधिकार मिल जाएगा तो उनके हालात पर भी सुधार आएगा। आयोग के उपाध्यक्ष ने कहा कि प्रदेश में जनजातियों के उत्पीड़न से संबंधित मामले नही हैं। भूमि, प्रमोशन, बैकलाग संबंधित मामले ही आयोग के पास आ रहे हैं। जिस पर समय-समय पर संबंधितों को दिशा- निर्देशित किया जा रहा हैं। उपभोक्तावादी विलासिताओं के नाम पर इनके पास आजकल मोबाइल काफी परिवारों के पास हैं। जिन गांवों में बिजली है वहां टेलीविजन भी दिखने लगे हैं। मगर जो गांव अभी भी अस्कोट मृग विहार की सीमा के भीतर आते हैं, वहां बिजली नहीं पहुंची है वे एमपी3 साउंड सिस्टम चलाते हैं। इनके बीच कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर करोड़ों के अनुदान लिए जा चुके होंगे , मगर इनके बीच स्थान बनाने और सार्थक बदलाव लाने में गिने चुने लोगों और संस्थाओं को ही कुछ हद तक सफलता मिल सकी है।
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वन विभाग से इनका लगातार संघर्ष प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चलता रहता है। प्रत्यक्ष तौर पर इनके रोजगार जिसमें लकड़ी चिरान और वन्य उत्पाद इकट्ठे कर बेचना मुख्य है और मृग विहार के बीचों बीच स्थित इनकी बसासतें वन विभाग की नजर में अवैध हैं। जिन्हें पूर्व में कई बार इधर से उधर खदेड़ा भी गया है। जिस कारण आधुनिक समय में भी अपना पूर्व का घूमंतू व्यवहार त्यागने के बावजूद भी पूरी तरह से किसी एक गांव के नहीं हो सके हैं, क्योंकि इनके नाम किसी गांव की कोई जमीन दर्ज ही नहीं है। इनकी जितनी भी बसासतें हैं उनमें इनके नाम जमीनें न के बराबर हैं। कुछ ही परिवारों को जमीन के पट्टे मिल पाए हैं। आरक्षित जनजाति का दर्जा दिया गया है। जिसका लाभ इन्हें सरकारी नौकरियों में तो अभी तक दिखाई नहीं दिया है। इन पर संभवतः अब तक सैकड़ों शोध थीसिस और पीएचडी लिखी जा चुकी होंगी। आज इन पर कई एन्थ्रोपोलॉजिकल, सोशियो इकोनोमिकल और भाषाई शोध हो चुके हैं मगर इसके बाद भी वन राजी शोध और उत्सुकता का विषय प्रायः बने रहे हैं।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )