जहां मुस्लिम परिवार बनाते हैं कांवड़
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
कांवड़ यात्रा कोई आज से निकलनी नहीं शुरू हुई है या मुस्लिम आबादी अभी यहां नहीं बढ़ी है। इस क्षेत्र से कांवड़ यात्रा वर्षों से निकल रही है. उधर नेम प्लेट का फैसला यूपी के साथ-साथ उत्तराखंड में भी लागू हो गया. सवाल अहम है कि इस तरह के आदेश से क्या सामाजिक समरसता को खतरा नहीं है?
कुछ वर्ष पहले दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम ने बताया था कि अक्सर सऊदी अरब के दूतावास से उनके पास वीज़ा चाहने वालों का मज़हब पूछा जाता है। दरअसल मेवात के बहुत से लोग तब वीज़ा के लिए जो अर्ज़ी भेजते थे, उन पर लिखा होता- नाम मंगलसेन वल्द शनीचर क़ौम मुसलमान। ये लोग हज के लिए सउदी दूतावास में वीज़ा के लिए आवेदन करते। तब दूतावास के अधिकारी चक्कर में पड़ जाते कि मंगलसेन का धर्म मुस्लिम कैसे हुआ! उस समय दिल्ली में घरों के भीतर साफ़-सफ़ाई करने वाली महिलाएं अपना नाम उमा, पार्वती या लक्ष्मी बतातीं। किंतु जब वे ईद, बकरीद पर दो-दो दिन की छुट्टी लेतीं तब पता चलता कि वे तो मुस्लिम हैं।
फिल्मों में दिलीप कुमार, अजीत, जयंत, श्यामा, मधुबाला, मीना कुमारी, माला सिन्हा, रीना राय आदि तमाम कलाकार मुस्लिम थे। पर किसी ने उनका असली नाम जानने की कोशिश नहीं की। वह तो 1992 के बाद से दिलीप ने खुद की पहचान यूसुफ़ खान लिखनी शुरू की और कहा, कि वे यूसुफ़ भाई कहलाना पसंद करते हैं। एक और मज़ेदार क़िस्सा है कि 1982 में मृत्यु के कुछ दिन पूर्व मशहूर शायर रघुपति सहाय फ़िराक़ ने अपने कवि मित्र सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से कहा, यार ज़रा देखना कि लोग मेरे मरने के बाद कहीं मुझे दफ़ना न दें। वे समझते रहें कि फ़िराक़ कोई मुस्लिम रहा होगा। ऐसे एक नहीं अनगिनत लोगों के क़िस्से हैं, जिनके नाम से व्यक्ति के मज़हब का पता नहीं चलता।
निर्मल चंद्र मुखर्जी या आशीष नंदी का नाम और सरनेम ब्राह्मणों जैसा है किंतु ये ईसाई थे। यही है भारत की समरसता कि नाम को किसी धर्म से जोड़ कर न देखा जाए। इक़बाल नाम का व्यक्ति हिंदू भी हो सकता है, सिख भी और मुसलमान भी। मगर अब उत्तर प्रदेश की सरकार ने लोगों को कहा है कि कांवड़ रूट पर खाने-पीने की चीजें बेचने वाले दुकानदार अपनी दुकान के बाहर अपने नाम का स्पष्ट उल्लेख करें। ताकि कांवड़ियों की शुचिता बनी रहे।
सावन में कांवड़िये हरिद्वार, गंगोत्री और गोमुख से जल लेकर आते हैं और अपने घर-गांव के आसपास के शिव मंदिरों में यह जल चढ़ाते हैं। जल लाते वक्त उन्हें काफी शुचिता बरतनी पड़ती है। मसलन कांवड़िये जल के पात्र को जमीन पर नहीं रखेंगे। खान-पान में भी पवित्रता बरतेंगे. जैसे मीट, मांस, चिकेन या अंडा न खाएंगे न ऐसी दुकानों से पानी भी पिएंगे, जो ये सब नॉन वेज आइटम बेचते होंगे। पहले भी कांवड़िये ऐसी शुचिता बरतते थे परंतु तब इतनी कट्टरता नहीं थी। चूंकि हरिद्वार से दिल्ली और उससे आगे जाने के लिए वाय मुज़फ़्फ़रनगर, मेरठ जाना ही पड़ता है, इसलिए इन जिलों में प्रदेश सरकार का यह आदेश कुछ अधिक ही सख़्ती से लागू किया जा रहा है। यह मुस्लिम बहुल इलाक़ा है और कई ऐसे गांवों से होकर यह रूट गुजरता है, जिसमें सारे लोग मुसलमान हैं।
कांवड़ कोई आज से निकलनी शुरू हुई है या मुस्लिम आबादी यहां अभी बढ़ी है। इस क्षेत्र से कांवड़ यात्रा वर्षों से निकल रही है। खुद यहां की कांवड़ यात्राओं में जनता का उत्साह देखा है। यह ज़रूर हुआ है कि जब से अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढही, ऐसी धार्मिक यात्राओं में लोगों की भीड़ बढ़ी है। ऐसा भी नहीं कि अकेले हिंदुओं में ही धर्म को ले कर उत्साह बढ़ा है, मुसलमानों में भी इज़्तेमा में जिस तरह की भीड़ जुटती है वह पहले नहीं जुटती थी। यह तबलीगी जमात का हिस्सा है। बारावफ़ात की भीड़ भी इसी तरह कोई 30 वर्ष पहले से शुरू हुई है। चाहे हिंदू हो या मुसलमान 1990 के बाद से सब में अंध धार्मिकता का पुट बढ़ा है।
पहले हिंदू-मुसलमान दोनों एक-दूसरे के त्योहारों के प्रति सद्भाव रखते थे, वह अब ग़ायब है। दुकानों के बाहर अपनी नेम प्लेट लगाना अनिवार्य करने का फ़ैसला पहले तो मुज़फ़्फ़रनगर ज़िला प्रशासन की तरफ से 18 जुलाई को आया। कांवड़ यात्रा 22 जुलाई से शुरू होगी, उसी दिन से सावन शुरू हो रहा है और पहला ही दिन सोमवार है।
प्रशासन के आदेश के बाद मुख़्तार अब्बास नक़वी ने कहा कि इस तरह के आदेशों से हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य बढ़ेगा। परंतु अगले दिन (19 जुलाई) जब मुख्यमंत्री ने इस तरह के आदेश पर मुहर लगा दी तो फौरन मुख़्तार अब्बास नक़वी अपने बयान से पलट गए। उन्होंने बयान दिया कि प्रदेश में लॉ एंड ऑर्डर की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है।अगर संबंधित राज्य सरकार को लगता है कि ऐसा न करने से प्रदेश में एक समुदाय भड़क सकता है तो वह ऐसी स्थितियों को दूर करने के लिए इस तरह के फ़ैसले करेगी।
मज़े की बात कि अब यह फैसला अब उत्तर प्रदेश के साथ-साथ उत्तराखंड में भी लागू हो गया। हरिद्वार के एसएसपी ने सभी फल और भोजन विक्रेताओं को आदेश दिए हैं कि वे अपने होटलों पर प्रोपराइटर का नाम लिखें तथा कुक का भी। उनका कहना है कि कांवड़ियों की शुचिता के लिए यह जरूरी है। उधर राजस्थान सरकार ने भी आदेश जारी किया है कि जयपुर में सभी मीट-मांस बेचने वाली दुकानों में यह स्पष्ट लिखा रहे कि उनके यहां बिकने वाला मांस झटका है या हलाल। तीनों प्रदेशों में भाजपा सरकारें हैं इसलिए यह लग सकता है कि भाजपा शासित सरकारें इस तरह की दकियानूसी विचारों को बढ़ावा देती है।लेकिन याद रखना चाहिए कि मीट की दुकानों के बाहर यह सदैव लिखा मिलता है कि यहां हलाल मांस से भोजन पकता है। मालूम हो कि मुसलमान कोई भी हो हलाल मांस ही खाएगा। हिंदुओं से उनका पारिवारिक नाता है। उनकी शादी-विवाहों में हिंदू-जैन-सिख सभी जाते हैं। वे हिंदुओं के लिए अलग कुक रखते हैं और मुसलमानों के लिए अलग। ताकि हिंदुओं को यह ग्लानि न हो कि उन्होंने नॉन-वेज तरी तो नहीं खा ली। कुछ मुस्लिम परिवार तो नॉन-वेज भी हिंदुओं के लिए अलग पकवाते हैं। क्योंकि उनके यहां बड़े जानवर का मांस भी पकता है किंतु हिंदू बकरे का मांस ही खाता है। एक ऐसे समाज में यदि हर विक्रेता को अपनी धार्मिक पहचान बतानी अनिवार्य की जाती है तो शुचिता हो सकता है बच जाए मगर समरसता नहीं बचेगी।
(लेखक के ये व्यक्तिगत विचार हैं और वे दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)