उत्तराखंड के मोटे अनाज (coarse grains) बचा सकते हैं पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था - Mukhyadhara

उत्तराखंड के मोटे अनाज (coarse grains) बचा सकते हैं पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था

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उत्तराखंड के मोटे अनाज (coarse grains) बचा सकते हैं पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी यह नारा अक्सर सुनने को मिल जाता था, मंडुवा, झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में खरीफ की मुख्य फसलों में शुमार मंडुवा व सांवा झंगोरा, मादिरा का रकबा घट रहा है। राज्य गठन से लेकर अब तक की तस्वीर इसकी तस्दीक कर रही है। वर्ष2001-02 में 1.13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मंडुवा की खेती होती थी, वह 2018-19 में घटकर करीब 92 हजार हेक्टेयर पर आ गई। इसी तरह झंगोरा के क्षेत्रफल भी 18 हजार हेक्टेयर की कमी दर्ज की गई है। पहाड़ की पारंपरिक खेती में शुमार कोदा और झंगोरा के उत्पादन का ग्राफ घट रहा है। इसकी प्रमुख वजह विपणन की समस्या तथा पलायन माने जा सकते हैं। वैश्विक परिदृश्य में मोटे अनाज के उत्पादन की बात करें तो यहां भारत सबसे आगे है। 2020 में, वैश्विक उत्पादन 30.5 मिलियन टन था। दुनिया भर में 32 मिलियन हेक्टेयर से अधिक भूमि में इसकी खेती की जाती हैं।

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भारत, नाइजर और चीन दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक हैं, जिनका वैश्विक उत्पादन में 55.0 % से अधिक हिस्सा है। इनके बाद नाइजीरिया,
माली और इथोपिया का नंबर आता है। बदलते जलवायु परिवर्तन के कारण हाल के वर्षों में, अफ्रीका में मोटे अन्न के उत्पादन में अचानक वृद्धि हुई है। सारा विश्व ‘जैव विविधता’ की इस समाप्ति से चिंतित है। हमारे वैदिक साहित्य में लिखा है कि पृथ्वी पर होने वाले प्रत्येक प्राकृतिक तत्व में  ईश्वर ने कोई न कोई लाभ और सद्गुण दिया ही है। यानी,  रोज हो रही ‘जैव विविधता’ की हानि से हम अपनी अगली पीढ़ी को ईश्वर प्रदत्त उन लाभों से वंचित करते जा रहे हैं। ‘जैव विविधता’ की यह हानि काफी हद तक हमारी विकास की तथाकथित ‘भूख’  और आर्थिक स्वार्थों के कारण है। विकास और आर्थिक लाभों ने जहां हमारी ‘अन्न सुरक्षा’ (फूड सिक्योरिटी) और पौष्टिकता की सुरक्षा (न्यूट्रिशन सिक्योरिटी) को खतरे में डाला है, वहीं सम्पूर्ण पृथ्वी के समक्ष भविष्य के कई बड़े खतरे खड़े कर दिये हैं। इन्हीं खतरों को पहचान कर अपने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी ‘मन की बात’  में सबसे पहले हमारी भोजन आदतों (फूड हेबिट्स) में ‘मोटे अनाज ‘को प्रमुखता देने की बात की थी। उनके सहित सारा विश्व अपने भोजन की निरंतर घट रही पौष्टिकता को लेकर चिंतित है।

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‘मोटे अनाज’  वे हैं,  जो हमारे पारम्परिक कृषि उत्पाद हैं। हमारे पूर्वज, आजकल आये ‘विकास’  के पहले इन्हीं का उत्पादन करते थे व यही खाकर स्वस्थ और सक्रिय भी रहते थे। ये ‘मोटे अनाज’  खेतों में विपरीत परिस्थिति में,  कम सिंचाई में,  कम परिश्रम और पूरी निश्चितता के साथ पैदा किये जा सकते हैं।विकास की आंधी और आर्थिक लाभों की भूख के कारण ये मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मक्का, कोदो, कुटकी,रागी, सवां और कट्टू (विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में इनमें से किन्हीं के नाम अलग भी हो सकते हैं) समाप्त ही हो चुके हैं। इनसे बने भोज्य पदार्थ हमारी थाली से गायब ही हो चुके हैं। जबकि पोषक तत्वों के लिहाज से ये हमारे रोज खाये जा रहे पदार्थों से कहीं अधिक पाचक, स्वास्थ्यवर्धक, सस्ते और गुणकारी हैं।

अब तो वैज्ञानिक भी अपने प्रयोगों द्वारा सिद्ध कर चुके हैं कि ‘मोटे अनाज’  (ज्वार, बाजरा, मक्का आदि) का सेवन हमारी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। इसी कारण दुनिया इनकी तरफ फिर से लौट रही है।परिवर्तन के एक श्रेष्ठ उत्प्रेरक के नाते प्रधान मंत्री ने इसी तथ्य को पहचान कर वर्ष 2018 को भारत में ‘मोटे अनाज का वर्ष’ घोषित कर हमारी भोजन की आदतों (फूड हेबिट्स) में इन खाद्यान्नों को प्रमुखता दिलवाना सुनिश्चित किया था। अब उन्होंने सारे विश्व को सहमत करा लिया है कि ‘मोटे अनाज’  को सारा विश्व प्रमुखता से खाये। इसीके लिये संयुक्त राष्ट्र संघ का ‘खाद्यएवं कृषि संगठन’  भी वर्ष 2023 को ‘मोटे अनाज वर्ष’ के रूप में मनायेगा। सारी दुनिया के सत्तर देश नरेंद्र मोदी से सहमत होकर इस कार्यक्रम में  सहभागी होंगे। बहुत सम्भव है कि हमारे देश में वर्ष 2023-24 के वार्षिक बजट में मोटे अनाजों के उत्पादन व उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिये कुछ विशेष और बड़े प्रावधान भी रखे जायें।

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भारत के एक महानगर में पिछले साल एक स्वास्थ्य सम्बंधी सर्वेक्षण में पाया गया था कि वहां के 80 प्रतिशत चिकित्सकों, वकीलों, व्यापारियों व शिक्षकों में लौह (आयरन),  मैग्नीशियम, जिंक,कैल्शियम, अमीनो एसिड्स और प्रोटीन सहित कई सूक्ष्म पोषक तत्वों की चिंताजनक रूप से कमी है, क्योंकि उनकी भोजन की थाली में वे पदार्थ हैं ही नहीं,  जिनमें स्वास्थ्य के लिये जरूरी ये सूक्ष्म तत्व होते हैं। ये सभी तत्व ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ, कोदो और कुटकी में बहुतायत से पाये जाते हैं, जो अभी हम सबकी च्फूड हैबिट्सज् में शामिल नहीं हैं। अब यह सिद्ध हो चुका है कि मोटे अनाज में वे सब औषधीय तत्व होते हैं जो हृदय रोग, उच्च-रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा या अपचन जैसी व्याधियों पर नियंत्रण कर सकते
हैं। कई अनुभवी चिकित्सकों ने कहा है कि इन तत्वों की हमारे भोजन से अनुपस्थिति ही कई प्राणघातक बीमारियों का कारण है। कुछ समय पहले तक तो ‘मोटे अनाज’ को गरीबों का भोजन मानते हुये सम्पन्न और अभिजात्य वर्ग ने अपनी शान में गेहूं और चावल खाना शुरू किया, या अभी भी जारी रखा है।

फिर साठ के दशक में आई ‘हरित क्रांति’ के दौर में तो सरकारों ने भी गेहूं और चावल के उत्पादन बढ़ाने में ही अपने आप को केंद्रित कर लिया था। इस तरह थाली से गायब हुये मोटे अनाज खेतों से भी गायब हो गये। यानी, इनका रकबा पूरी तरह से घट गया व गेहूं और धान की बलि चढ़ गया। हम सब गेहूं और चावल खाने लगे। शहर हो या गांव, सब जगह से मोटा अनाज गायब ही हो गया। परिणामस्वरूप जो बीमारियां पहले शहर की मानी जाती थीं वे गांवों और वनवासी क्षेत्रों में भी पहुंच गईं। ‘हरित क्रांति’ के जो भी लाभ रहे हों, या तत्काल हमें कुछ समस्याओं से निजात मिली भी होगी, लेकिन उसके सारे नुकसान हमें अभी देखने कोमिल रहे हैं। बौनी जाति की अधिक उत्पादन देने वाली विदेशी गेहूं और धान की फसलें खेतों में छा गईं। इनके साथ ही रासायनिक खाद, कीटनाशक और अन्य कृषि रसायन बड़ी मात्रा में आ गये। सिंचाई के बहुत बड़े-बड़े उपक्रम बने और उनके विपरीत प्रभावों का दुश्चक्र स्थाई रूप से हमारे देश में घर कर गया।

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भारत में पानी का अभाव है। लगभग 76 प्रतिशत भारतीयों को स्वच्छ और सुरक्षित पानी अभी भी नहीं मिल पाता है, जबकि 1 किलोग्राम गेहूं उत्पादन करने में लगभग 1000 लीटर पानी लगता है। वहीं 1 किलोग्राम चावल उत्पादन में 2500 लीटर पानी चाहिये। अति सिंचाई से हमारी कृषि योग्य भूमि की उत्पादकता, गुणवत्ता और उर्वरता भी घट रही है। चुनावी राजनीति ने भी गेहूं और चावल को अपना ‘मोहरा’  बना रखा है। इनकी सरकारी खरीद वोट पाने की ‘गारंटी’  बन गई है। इसलिये भी खेतों में मोटे अनाज का उत्पादन कम हो गया है। जबकि ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ, रागी और कोदा, कुटकी कम सिंचाई, कम खर्च और विपरी मौसम में भी निश्चितता व विश्वास के साथ उगाई  जा सकती है।

मोटे अनाज के प्रति बदली दृष्टि और बदले हुये सरकारी माहौल में इन फसलों के समर्थन मूल्य भी गेहूं और धान से अधिक हैं। गेहूं का न्यूनतम
समर्थन मूल्य जहां 1975 रुपये प्रति क्विंटल है, तो ज्वार का 2620, बाजरा का 2150 और रागी का 3295 रुपये प्रति क्विंटल है। कोदो तो 150 रुपये से 200 रुपये प्रति किलो की दर  से बिकती है। इस तरह किसान भी यदि मोटे अनाज की तरफ जाता है तो वह भी लाभ में ही रहेगा।प्रधानमंत्री ने अपने ‘मन की बात’ में मोटे अनाज की बात छेड़कर एक दुश्चक्र से देश को निकालने की शुरुआत की है। अब हमें इस परिवर्तन को स्वीकार कर मानना है कि व्यक्ति के रूप में हमारे हितों के साथ निसर्ग और पर्यावरण का हित भी इसमें निहित है। कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे, उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान बच्चे से लेकर बूढ़ों तक की जुबां पर यह नारा आम था।

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उत्तराखंड की ‘बरानाजा ‘फसल पद्धति में वह सब मिलता है, जिसकी आज दरकार है। भले ही यहां के पहाड़ी क्षेत्र में सदियों से चलन में मौजूद इस पद्धति से पैदावार कम हो, लेकिन पौष्टिकता के मामले में इनका कोई सानी नहीं है। बारानाजा की फसलों में सूखा और कीट- व्याधि से लडऩे की भी जबर्दस्त क्षमता है, जो आज के बिगड़े मौसम चक्र को देखते हुए एकमजबूत विकल्प पेश करती है। यही वजह रही कि अकाल-दुकाल में बारानाजा बचा रहा। आज जरूरत इस बात की है कि इस पद्धति को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दिया जाए।

( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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