लैंटाना (lantana) का आक्रमण एक समस्या क्यों है?
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
वन विभाग के अफसरों के मुताबिक 1965-70 के बीच अमेरिका से भारत में गेहूं आया था। उस दौरान गेहूं के साथ लैंटाना घास के बीज भी पहुंच गए। खेती के जरिये यह प्रजाति फैलती गई। अपने आसपास अन्य प्रजातियों को न पनपने देने के कारण ही इसे जमीन को बंजर बनाने वाली घास भी कहा जाता है।झाड़ीनुमा घास की प्रजाति लैंटाना जंगल के परिस्थितिक तंत्र से मेल नही खाती। यह अपने आसपास अन्य घास को
पनपने नहीं देती। वन्यजीव भी इसे नहीं खाते। पहाड़ से लेकर मैदान तक फैली लैंटाना की झाडिय़ां वनाग्नि को भी भड़काती हैं। पर्यावरणविद व वन विभाग अफसर भी लंबे समय से लैंटाना के लगातार बढ़ रहे दायरे से परेशान हैं।
इसी को देखते हुए प्रमुख वन संरक्षक उत्तराखंड ने इसके उन्मूलन को लेकर प्लानिंग बनाने को कहा था। जिसके बाद तराई पूर्वी वन प्रभाग की डौली रेंज के खुले मैदान में यह ग्रास नर्सरी तैयार की गई। रेंजर की देखरेख में 0.27 हेक्टेयर में फैली इस नर्सरी में भाभड़, खश, गोडिय़ा,कुश, नेपियर, सरकंडा, लेमनग्रास, नेपियर-2, औंस, सीरी, मडुवा घास को बड़ी मात्रा में तैयार किया जा रहा है। दूसरी वनस्पतियों को नहीं पनपने देती है लैंटाना ऐसी झाड़ी प्रजाति है, जो अपने इर्द-गिर्द दूसरी वनस्पतियों को नहीं पनपने देती। साथ ही वर्षभर खिलने के गुण के कारण इसका निरंतर फैलाव हो रहा है। उत्तराखंड का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा, जहां लैंटाना ने दस्तक न दी हो। कार्बेट टाइगर रिजर्व व राजाजी टाइगर रिजर्व में तो इसने भारी दुश्वारियां खड़ी की हैं।
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घास के मैदानों पर लैंटाना का कब्जा होने के कारण शाकाहारी वन्यजीवों के भोजन पर मार पड़ी ही है, बाघ, गुलदार जैसे जानवरों के शिकार के अड्डों में भी कमी आई है। बाघ, गुलदार, हाथी से लेकर अन्य दुर्लभ वन्यजीवों के वास स्थल जिम कॉर्बेट पार्क के जंगलों में भी लैंटाना की बड़े एरिया में मौजूदगी है। इसलिए अक्सर कॉर्बेट प्रशासन वनकर्मियों के माध्यम से लैंटाना के उन्मूलन को अभियान चलाता रहता है। भविष्य में आरक्षित वन क्षेत्र में भी अन्य लाभकारी घास प्रजातियों के रोपण से लैंटाना उन्मूलन की प्रक्रिया शुरू की जाएगी। सीसीएफ कुमाऊं ने बताया कि लैंटाना के साथ कुछ अन्य घास भी जंगल के अनुकूल नहीं है। वेस्टर्न सॢकल के तहत आने वाली पांच डिवीजनों में हाथी व अन्य शाकाहारी वन्यजीव हिरण, सांभर आदि की संख्या ज्यादा है। यह घास पर ज्यादा निर्भर रहते हैं। प्राकृतिक वासस्थल पर भोजन की कमी होने पर यह वन्यजीव आबादी की ओर आ सकते हैं। इसलिए लैंटाना के उन्मूलन को बड़े अभियान के रूप में लेते हुए ग्रास नर्सरी बनाई गई है। धीरे-धीरे इसका विस्तार किया जाएगा।
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वनों के लिए अभिशाप बने लैंटाना का जापानी विधि से होगा सफाया, पीएम भी कर चुके हैं इस तकनीक की तारीफ उत्तराखंड के वनों और आरक्षित क्षेत्रों में अपनी जगह बनाए हुए लैंटाना के पौधे को जल्द ही जापान की मियावाकी तकनीक से खत्म किया जाएगा। इसके लिए पायलेट प्रोजेक्ट के रूप में कुछ जगहों पर काम भी शुरू कर दिया गया है। पूरी दुनिया के 40 से ज्यादा देशों में लैंटाना का पौधा एक गंभीर समस्या है। इस पौधे की पत्तियों से अलीलो कैमिक्स नाम से जहरीला पदार्थ निकलता है। जो उपजाऊ जमीन को बंजर कर रहा है। यह पदार्थ इतना जहरीला होता है कि अपने आसपास उगने वाली घास को भी सड़ाकर नष्ट कर देता है। वहीं इसके पत्ते कांटेदार होते हैं। इस कारण इन्हें मवेशी भी नहीं खाते हैं।
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विश्व प्रसिद्ध कार्बेट नेशनल पार्क की जैव विविधता पर भी खतरा मंडरा रहा है। पार्क के आधे से अधिक हिस्से में पसर चुकी लैंटाना कमारा नामक झाड़ीनुमा वनस्पति ने न सिर्फ बाघों के आशियाने पर हमला बोला है, बल्कि दूसरी वनस्पतियां भी इसके गिर्द-गिर्द नहीं पनप पा रहीं।दरअसल, टाइगर कंजर्वेशन फाउंडेशन फॉर कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के शासी निकाय की ओर से हाल में स्पष्ट किया गया था कि यदि जल्द ही लैंटाना उन्मूलन को कदम नहीं उठाए गए तो पार्क में बाघों का संरक्षण मुश्किल हो जाएगा। फाउंडेशन ने इस संबंध में विशेष प्रोजेक्ट के तहत युद्धस्तर पर कार्य करने का सुझाव दिया था, लेकिन अभी तक कोई ठोस कार्ययोजना नहीं बन पाई है।
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लैंटाना का पारिस्थितिक तंत्र पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव पड़ता है। प्रभावों में कुछ को बाधित करने और कुछ प्रजातियों के पुनर्जनन को बढ़ाने, पानी के बहाव को बढ़ाने और मिट्टी के कटाव को कम करने या बढ़ाने की क्षमता शामिल है। इसे कुछ वन्यजीवों के लिए कवर और भोजन और स्थानीय समुदायों (हस्तशिल्प, कागज, फर्नीचर) को आजीविका लाभ प्रदान करने के लिए प्रलेखित किया गया है। लैंटाना यहाँ रहने के लिए है। महंगे और बड़े पैमाने पर अप्रभावी उन्मूलन प्रयासों से सीखे गए कठिन सबक बताते हैं कि शायद हमें प्रजातियों को अनुकूल तरीके से प्रबंधित करने की आवश्यकता है। इसके लिए विभिन्न परिस्थितियों में अंतरिक्ष में दीर्घकालिक अध्ययन (> दस वर्ष) की आवश्यकता होती है। शायद इस प्रजाति की कार्यात्मक भूमिका को पहचानना और उसके अनुसार इसका प्रबंधन करना बेहतर होगा।
(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)