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आखिर क्यों दरक रहा है हिमालयी क्षेत्र (Himalayan region)

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आखिर क्यों दरक रहा है हिमालयी क्षेत्र (Himalayan region)

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

हिमालयी क्षेत्र को इसके अलावा हिमालय एक सक्रिय भूकंपीय क्षेत्र है, जो कि एक अतिरिक्त खतरा है। भविष्य में बड़े और भयानक भूकंप इस क्षेत्र में आ सकते हैं। हम अभी भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि यह कब होगा लेकिन वहां काम कर रहे वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें इस तरह की घटनाओं के लिए तैयार रहने की जरूरत है समूचा हिमालयी क्षेत्र दरक रहा है। इसके बावजूद उत्तराखंड या हिमालय के अन्य क्षेत्रों में जिस प्रकार से अंधाधुंध निर्माण हो रहे हैं, वे चिंताजनक हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि इस संवेदनशील क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और अधिक विनाश का कारण बनता है। ऐसे में, विकास के लिए होने वाले निर्माण अधिक आपदाओं को न्योता देंगे। अधिकांश लोगों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन, अनियोजित शहरीकरण और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ही इसके लिए जिम्मेदार है। कुछ समय पूर्व उत्तराखंड के रैणी गांव का भूस्खलन सुर्खियों में था। अब जोशीमठ खबरों में है। प्रशासन वहां से लोगों को सुरक्षित स्थानों पर बसाने की कवायद कर रहा है और विशेषज्ञ अपनी-अपनी समझ से समस्या के कारणों पर गौर कर रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के हद से गुजर जाने के असर के चलते भारत में चरम मौसमी घटनाओं में वृद्धि हर गुजरते साल के साथ नई ऊंचाई छू रही है।

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फिलहाल भारी बारिश अपना कहर बरपा रही है, जिसके कारण पूरे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में अचानक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं हुई हैं। मनसा देवी में पिछले दिनों में छह बार मलबा आने से लगभग 34 घंटे रेलवे ट्रैक बाधित रहा और 118 ट्रेनें प्रभावित हुईं। सब्जी मंडी और विष्णुघाट के नालों से मलबा बहकर आने से वहां की दुकानों में पानी और मिट्टी चली गई, जिससे व्यापारियों को भारी नुकसान हुआ है। इस बारे में वहां के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने शासन को पत्र भेजा है, क्योंकि इसके आस- पास बारह हजार से अधिक की आबादी बसी है, जो इसके दरकने से खतरे का निशाना बन सकती है।

उत्तराखंड में धार्मिक पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। उत्तराखंड पर्यटन विभाग के आंकड़ों के अनुसार, पिछले वर्ष 43 लाख पर्यटकों ने चारों धामों की यात्रा की थी। पिछले 30 वर्षों में पर्यटकों की संख्या दस गुना से अधिक हो गई है। उत्तराखंड में पॉलीथीन प्रतिबंधित है। इस पर कानून भी है, किन उसका हिमाचल जैसा सख्ती से पालन नहीं हो पा रहा है। इसके बारे में भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी के अनुसंधान और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस एवं आईपीसीसी रिपोर्ट के अनुसार, हिमालय के दरकने की समस्या के दो पहलू हैं;

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पहला है, बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे का विकास, जो हिमालय जैसे बहुत ही नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र में हो रहा है। और दूसरा, जलवायु परिवर्तन, जो इसके प्रभाव को दोगुना से अधिक तेज कर रहा है। भारत के कुछ पहाड़ी राज्यों में जलवायु परिवर्तन जिस तरह से प्रकट हो रहा है, वह अभूतपूर्व है। इसलिए हमें समझना होगा कि ये बहुत नाजुक क्षेत्र हैं और पारिस्थितिकी तंत्र में गड़बड़ी से गंभीर आपदाएं आएंगी। इसका मतलब है कि एक मजबूत योजना प्रक्रिया का पालन होना चाहिए। वास्तव में, पूरी योजना जैव-क्षेत्रीय पैमाने पर बनाई जानी चाहिए, जिसमें यह शामिल होना चाहिए कि क्या करना है और क्या नहीं करना है, और इस पर बहुत सख्ती से अमल होना चाहिए। ढांचागत विकास गलत नहीं है, क्योंकि ये पर्यटन की रुचि के स्थान हैं और यहां के लोगों के पास आजीविका के अन्य साधन नहीं हैं। लेकिन यह योजनाबद्ध तरीके से होना चाहिए।

पर्यावरणीय और पारिस्थितिक क्षति से जुड़ी लागत की तुलना में जलविद्युत परियोजनाओं में वापसी निवेश लागत बहुत कम है। इसलिए हमें ऊर्जा उत्पादन के अन्य तरीकों की तलाश करनी चाहिए। जोशीमठ इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि हिमालय में क्या नहीं करना चाहिए। जानकारों ने नदी के बहाव को माइक्रोपाइलिंग टेक्नोलॉजी (छोटे-छोटे पत्थर लगाकर प्रवाह को काबू करना) से नियंत्रित करने और इस जगह कुछ मीटर की दूरी पर दो तीन चेक डैम बनाने की सलाह की है।

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रिपोर्ट के आखिर में कहा गया है कि सरकार रैणी गांव के लोगों को कहीं दूसरी जगह बसाये। विशेषज्ञों ने इसके लिये आसपास कुछ जगहों की पहचान भी की है जहां पर विस्थापितों का पुनर्वास किया जा सकता है लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक सभी हिमालयी राज्य भूकम्प की दृष्टि से अति संवेदनशील ज़ोन में हैं। भूगर्भ विज्ञानी समेत जानकारों के किये गये शोध में साफ कहा है, च्च्हिमालयी क्षेत्र और खासतौर से उत्तराखंड में मौजूदा विकास नीति और नदियों पर विराट जलविद्युत क्षमता के दोहन का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिये।

हिमालयी क्षेत्र में बहुमंजिला इमारतों के निर्माण में हमारे नए इंजीनियरिंग तरीके प्रतिकूल साबित हो सकते हैं। इलाके की वहन क्षमता को ध्यान में रखकर बनाई गई एक कार्यान्वयन योजना समय की जरूरत है। हमें इस क्षेत्र की निगरानी जारी रखनी चाहिए और पिछली दुर्घटनाओं व आपदाओं से सीखना चाहिए।हमें संवेदनशील हिमालयी क्षेत्रों में मानवीय हस्तक्षेप को कम करने के लिए योजनाएं तैयार करनी चाहिए। विकास के नाम पर हम जो कर रहे हैं, उसे भी रोकना होगा।

सरकार का तर्क है कि ढांचागत विकास से रोजगार बढ़ेगा, लेकिन इस क्षेत्र में इसके विपरीत प्रभाव पड़ रहे हैं। लोग अपनी आजीविका और घरों को खो रहे हैं। बिना सोचे समझे किए गए विकासात्मक गतिविधियों के गंभीर परिणाम होते हैं और हमें उनके बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। रोकने के लिए उचित कदम उठाए चाहिए।

(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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