मुख्यधारा ब्यूरो
देहरादून। कोरोना वाइरस महामारी के संकट से पैदा हुई आज की विवशता भरी परिस्थिति में उत्तराखंड के पहाड़ों पर एक विशेष तरह की हलचल है। परिवार सहित अपने घर-गांवों को लौटे प्रवासियों की संख्या काफी अधिक रही है। ऐसे कम ही गांव छूट गए, जिनमें कोई प्रवासी लौटकर न आया हो। पुरखों से मिली बिरासत की देखभाल और बचपन की यादों भरे खेत-खलिहानों में डग भरना नया अनुभव है।
इस बार का लौटना सामान्य स्थितियों के मघ्य लौटने से भिन्न है। उनका रोजगार गया, किराए का ठिकाना गया और बच्चों की शिक्षा-दीक्षा एकदम बिखर गई है। आगे क्या होगा, कब तक स्थिति सामान्य होगी, शहरों की ओर वापसी के बाद उनके रोजगार की प्रकृति क्या होगी, आज इस बारे में अनिश्चय कई ज्यादा है, जो लोग गांवों में वर्षों से अपेक्षाकृत शांत जीवन के आदी हो गए थे, उनमें उद्विग्नता है, क्योंकि उनकी कड़की पहले ही बढ़ चुकी है। इस पर ऊपर से संकुचित हुए रोजगार साधनों के और विभाजन की स्थिति आ गई है।
बाहर से आए लोगों के कोरोना के वाहक होने के शक में कई बार ग्रामीण घर लौटे प्रवासी से सामान्य नहीं हो पाए। दिल्ली, गुरुग्राम, मुम्बई, बड़ोदरा, चेन्नई, जयपुर आदि शहरों से आए प्रवासियों के साथ ही नहीं बल्कि देहरादून, हरिद्वार, रुद्रपुर, नैनीताल से लौटे लोगों को भी यह महसूस हुआ कि उनके अपने गांव वाले ही उनसे आशंकित हैं। जानलेवा संक्रमण के भय से ग्रामीणों की ऐसी प्रतिक्रिया चौंकाती नहीं है। इसमें भी दो राय नहीं कि वर्षों बाद घर-गांव वापस आए लोगों की तकलीफ समझने वाले ग्रामीण लोग ही थे।
प्रशासन ने स्वास्थ्य संबंधी सूचना मिलने पर कार्यवाही जरूर की, पर बाकी जरूरतों को लेकर उसका रिस्पांस टालने वाला रहा।
बहुतेरे उदाहरण ऐसे सामने आ रहे हैं, जिनमें घर लौटे प्रवासियों ने आगे शहरों की ओर न जाकर यहीं रहने की मंशा व्यक्त की है। लॉकडाउन के इस दौर में उन्होंने घरों में छोटे-मोटे उत्पादक कार्य भी किए हैं।
ऐसा लगता है कि जिस रिवर्स पलायन के दावे सरकार कर रही थी, वह महामारी से उत्पन्न परिस्थितियों में बखूबी जमीन पर उतरने लगा है। सरकार से सहमति व्यक्त करने वाला एक वर्ग भी यह मानने लगा है कि उत्तराखंड में पहाड़ों पर रिवर्स पलायन के चरण का आरंभ हो गया है। अब इसको प्रोत्साहन देने और निरंतरता बनाए रखने की जरूरत है।
आशावाद से भरे लोग गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने के निर्णय को भी इसके साथ जोड़कर कहते हैं कि पलायन पर अंकुश लगाने की कुंजी हाथ में आ गई है। बात मूलत: यह है कि हर तरह के पलायन को रोकना न तो वांछित है और न संभव। जड़ प्रकृति हो या मानव सहित जीवधारी सब परिवर्तन की अंतरभूत और बाह्य दोनों तरह के कारकों की मौजूदगी में गतिमान हैं। मनुष्य पलायन और दूसरे शब्दों में स्थान परिवर्तन, नहीं करता तो आज सामाजिक और भौतिक विकास में इतने आगे नहीं पहुंचा होता। पलायन के बाद बड़ा समाज, बेहतर शिक्षा व बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं तथा बेहतर मौका मिलने के बाद पहाड़़ों से गए लोग देश-विदेश में तमाम क्षेत्रों में अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर चुके हैं। इससे यह भी पुष्ट होता है कि परिस्थिति बदलने पर साधारण पृष्ठभूमि का व्यक्ति भी उच्च क्षमता का प्रदर्शन कर सकता है। इस वक्त रिवर्स पलायन की प्रक्रिया चल रही है, यह मानना अभी जल्दबाजी होगी। पहाड़ों में अभी वे परिस्थितियां नहीं हैं कि मजबूरीवश घरों को लौटे प्रवासी कोरोना महामारी पर नियंत्रण हो जाने के बाद भी वहीं जमे रहेंगे। तमाम दिक्कतें झेलते हुए भी शहर उनके लिए उम्मीद की रोशनी हैं। ग्राम्य परिवेश में शहरों की अपेक्षा पिछड़ापन है। इसका प्रभाव वहां की सामाजिक सोच पर भी पड़ता है। रिवर्स पलायन को यांत्रिक प्रक्रिया की तरह देख रहा सामाजिक तबका, बड़ी संख्या में घर आए प्रवासियों के उत्साह को देखकर जल्द पलायन पर नियंत्रण की भी बात करने लगा है।
ये निष्कर्ष वास्तविकता से परे हैं और इनके लिए कोई जमीनी अध्ययन अभी नहीं हुआ है। रिवर्स पलायन के लिए वातावरण बनाने के लिए मात्र जुबानी जुगलबंदी से काम नहीं चलने वाला, बल्कि इसके लिए ठोस परिस्थिति चाहिए। पलायन पर दशकों से चिंता और चिंतन का क्रम चल रहा है। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के पृष्ठ में यह भी एक पीड़ा थी। राज्य निर्माण हुआ पर पहाड़ों से पलायन फिर भी नहीं रुका। पिछले बीस सालों में भुतवा गांवों की संख्या में वृद्धि हुई है। यह निश्चित ही उस पलायन का परिणाम है जो वांछनीय नहीं है, पर वह चिंता व्यक्त करने से नहीं रुका। स्वरोजगार पैदा करना जरूरी है, क्योंकि सभी को नौकरी नहीं मिल सकती, पर कैसा और किस तरह का स्वरोजगार होगा, इस पर भी कोई ठोस रूपरेखा सामने होनी चाहिए। अधिकांश मामलों में स्वरोजगार रोजी-रोटी के लायक बनने तक समय लगता है, इस अंतराल के दौरान वह परिवार कैसे जीवन यापन करेगा इसके लिए भी कोई योजना सामने हो। स्वरोजगार के लिए ऋण देना ही पर्याप्त नहीं है। कच्चामाल, कौशल, विपणन इसके लिए जरूरी हैं। वनोत्पाद आज स्थानीय लोगों की पहुंच से दूर हैं। कृषि की स्थिति चौपट हो रखी है। जल विद्युत या वायु संयंत्र से विद्युत पैदा करना विशेष कौशल व अधिक निवेश की मांग करता है। राज्य सरकार सालों से ये योजनाएं चला रही है पर आज तक सफलता नहीं मिल पाई।
स्वरोजगार के लिए ले-देकर पर्यटन का आसरा रहता है पर पर्यटन उद्योग काफी वोलेटाइल प्रकृति का है। महामारी, आपदा और सामाजिक संघर्ष से इस पर तुरंत असर पड़ता है। इस बार होटल और यातायात सेक्टर में पर्यटन ठप होने से बड़ी दिक्कतें हैं। इन तमाम बाह्य परिस्थितियों पर किसी स्वरोजगार के इच्छुक व्यक्ति का नियंत्रण नहीं होता, पर वह स्वयं प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इसलिए एक आपदा की वजह से लौटे प्रवासियों को उनके गांवों में ही रोकने के लिए सरकार और समुदाय के बड़े योगदान की आवश्यकता है। यदि इन मोर्चों पर कोई ठोस परिणाम नहीं आते तो ज्यादा संभावना यही है कि स्थिति सामान्य होने के बाद लोग पुन: उन्हीं शहरों की ओर जाएंगे, जहां उन्हें कुछ विकल्प की उम्मीद रहती है।