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हरेला पर विशेष : उत्तराखण्ड में जैव विविधता संरक्षण एवं हरित क्रान्ति का प्रतीक है ‘हरेला’ 

admin
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खेती-बाड़ी से जुड़ा है हरेला त्यौहार

इस पारम्परिक त्यौहार की मूल भावना जुड़ी है पर्यावरण संरक्षण से

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डा0 प्रकाश फोन्दणी

    देवभूमि उत्तराखण्ड प्राचीनकाल से ही अपनी धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण विश्व प्रसिद्व रहा है। हिमालय की सुरम्य गोद में स्थित यह पर्वतीय राज्य अपनी इन परम्पराओें के कारण यर्हा की समस्त जैवविविधता को संजोये हुए हैं और यहां के प्राकृतिक संसाधनों, अमूल्य धरोहरोें एवं कृषि तन्त्र को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन त्यौहारों का सम्बन्ध यहां के परिवेश एवं कृषि प्रणाली के साथ विशेष रूप सेे जुड़ा हुआ है।

उत्तराखण्ड की संस्कृति की समृद्धता के विस्तार का कोई अन्त नहीं है। हमारे पुरखों ने सालों पहले जो तीज-त्यौहारो और सामान्य जीवन के जो नियम बनाये, उनमें उन्होंने व्यवहारिकता और विज्ञान का भरपूर उपयोग किया था, इसी को चरितार्थ करता उत्तराखण्ड का एक लोग त्यौहार है हरेला।
हरेले का पर्व हमें नई ऋतु के शुरू होने की सूचना देता है। उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुयें होती हैं, शीत, ग्रीष्म और वर्षा यह त्यौहार हिन्दी पंचांग की तिथियों के अनुसार मनाये जाते हैं। शीत ऋतु की शुरूआत आश्विन मास से होती है, जो आश्विन मास की दशमी को हरेला मनाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत चैत्र मास से होती है। इस प्रकार से वर्षा ऋतु की शुरुआत सावन मास से होती है।
कर्क संक्रान्ति से सूर्य कर्क रेखा से मकर रेखा की ओर बढ़ने लगता है, इसलिये इसे कर्क या श्रावणा संक्रान्ति भी कहा जाता है। यह त्यौहार सावन की पहली तिथि को मनाते हैं। किसी भी ऋतु की सूचना को सुगम बनाने और कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण ऋतुओं का स्वागत करने की परम्परा बनी होगी।
श्रावण मास के हरेले के दिन शिव पार्वती की पूजा के प्रतीक डिकारे बनाये जाते हैं। शिव पार्वती को हरित आसन में बैठने के लिए हरेला बोते हैं। हरेले को कृषकों का त्यौहार भी कहा जाता है, क्योंकि इसका सीधा संबंध खेती बाड़ी से होता है। सावन मास में वर्षा के कारण प्रकृति हरी भरी हो जाती है और इस हरीतिमा के कारण ही इसको हरेला कहा जाता है।
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गर्मी के कारण तपती धरती वर्षा ऋतु में जब वर्षा की फुहारों से हरी हरी दिखने लगती है, तब अच्छी फसल की कामना से इस त्यौहार को मनाने का प्रचलन है। हरेला शब्द का स्रोत्र हरियाली से है। इस क्षेत्र का मुख्य कार्य कृषि होने के कारण इस पर्व का महत्व यहां के लिये विशेष रहा है। हरेले के पर्व से 10 दिन पहले घर मन्दिर में बारानाजा 7-12 प्रकार के अन्न (जौ, गेहूॅ, मक्का, गहत, सरसों, उद़ड, और भट्ट) को रिंगाल की टोकरी की में रोपित कर दिया जाता है।
इसके लिए एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया अपनाई जाती है। पहले रिंगाल की टोकरी में एक परत मिट्टी की बिछाई जाती है। फिर इसमें बीज डाले जाते हैं। इसे सूर्य की सीधी रोशनी से बचाया जाता है और प्रतिदिन सुबह पानी से सींचा जाता है। 9वें दिन एक स्थानीय वृक्ष की टहनी से गुड़ाई की जाती है और 10वें दिन यानि कि हरेले के दिन इसे काटा जाता है। काटने के बाद गृह स्वामी द्वारा इसे तिलक चन्दन से अभिमंत्रित रोग शोक निवारणार्थ, प्राण रक्षक वनस्पते इदा गच्छ नमस्तेस्तु हर देव नमोस्तुते मन्त्र द्वारा किया जाता है, जिसे हरेला कहा जाता है। उसके बाद इसे देवता को अर्पित किया जाता है।
तत्पश्चात घर की बुजुर्ग महिला सभी सदस्यों को हरेला लगाती है। लगाने का अर्थ यह है कि इस पूजा के बाद परिवार के सभी लोग साथ में बैठकर पकवानों का आनन्द उठाते हैं। इस दिन विशेष रूप से उड़द दाल के पकोडे, पूये, खीर आदि बनाये जाने का प्रावधान है। देश प्रदेश में रह रहे अपने रिश्तेदारों नातेदारों को चन्दन पिठ्यां के साथ हरेला डाक से भेजने की परम्परा है।
इस परम्परिक त्यौहार की मूल भावना पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी है। ऐसे त्यौहार को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करके पेड़-पौधे लगाने के प्रति लोगों को जागरूक करना जरूरी है। उत्तराखण्ड में हरेले के त्यौहारों को वृक्षारोपण त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। श्रावण मास के हरेला त्यौहार के दिन घर में हरेला पूजे जाने के उपरान्त एक-एक पेड़ या पौधा अनिवार्य रूप से लगाये जाने की परम्परा है।
हरेला घर में सुख, समृद्धि व शान्ति के लिए बोया व काटा जाता है। हरेला अच्छी कृषि का सूचक है हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है कि इस साल फसलों को नुकसान ना हो। हरेले के साथ जुडी ये मान्यता भी है कि जिसका हरेला जितना बड़ा होगा, उसे कृषि में उतना ही फायदा होगा।
हरित क्रांति के प्रेरणास्रोत डा0 एम0एस0 स्वामीनाथन द्वारा पारम्परिक फसलों की हाईब्रिड प्रजातियों को किसानों के खेतों तक पहुंचाने का भी शायद यही मकसद था कि कृषि के क्षेत्र में लगातार सत्त विकास हो। उत्तराखण्ड के जनपद टिहरी गढवाल में भी विजय जड़धारी द्वारा शुरू किया गया बीज बचाओ आन्दोलन भी इसी का एक हिस्सा है, जिसमें मुख्यतः पारम्परिक कृषि में उगायी जाने वाली फसलों वारानाजा (अनाज की 12 प्रजाति) के कृषिकरण, संरक्षण एवं सम्वर्धन के लिए पहल की गयी थी।
1972 में चमोली जिले के रैणी गांव में गौरा देवी एवं सहयोगियों द्वारा शुरू किये गये चिपको आन्दोलन, मैती आन्दोलन भी कहीं न कहीं जैव विविधता के संरक्षण में अहम भूमिका अदा करते हैं।
इसके साथ ही स्थानीय समुदायों द्वारा इन त्यौहारों के माध्यम से कई प्रकार के अनाजों को देवी देवताओें में चढाते हैं, ताकि भविष्य में भी इनका उत्पादन अच्छा रहे। साथ ही साथ स्थानीय वनों को देव वन के नाम पर घोषित कर देना भी इनके संरक्षण की एक अनूठी पारम्परिक पहल है, ताकि बिना पंचायत के कोई भी यहॉ से कोई नुकसान ना कर सके। यदि स्थानीय स्तर पर इस मेले का भव्य आयोजन किया जाय तो निश्चित रूप में जैव विविधता संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण के साथ-2 स्थानीय लोगों की आर्थिक स्थिति भी मजबूत हो सकती है।
इस तरह के कार्यक्रमों में धीरे-धीरे घटती लोगों की संख्या हमारी संस्कृति के संरक्षण पर भी प्रश्न चिन्ह लगाती है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में इन परम्पराओं पर खतरा भी आ सकता है।
यदि आपके पास भी हरेला से संबंधित कुछ विशेष जानकारी या खबर है तो मुख्यधारा के इस व्हाट्सएप नंबर 94583 88052 या ईमेल [email protected] पर भेज सकते हैं।

(लेखक राजकीय पीजी कॉलेज अगस्त्यमुनि में बॉटनी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

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