मामचन्द शाह
उत्तराखंड में बेमौसमी बारिश से आई आपदा के बाद परिजन अपनों को याद कर सिसक रहे हैं तो वहीं आगामी एक-डेढ़ माह में शुरू होने वाली हाड़तोड़ ठंड को याद कर सिर छिपाने की चिंता भी शुरू हो गई है। इस तरह ये आपदा उत्तराखंडवासियों को गहरे जख्म दे गई है।
आपदा के लिहाज से अति संवेदनशनशील देवभूमि उत्तराखंड वासियोें (विशेषकर पहाड़वासियों) को आमतौर पर शारदीय नवरात्र के बाद क्षणिक सुकून महसूस होता है और यहां के वाशिंदे बरसात में अपार जन-धन की हानि के बावजूद एक बार पुनः जीवनचर्या शुरू करने का प्रयास करते हैं। इसका कारण यह भी है कि मौसम विभाग भी मानसून के विदा होने की घोषणा कर चुका होता है।
किंतु इस बार उत्तराखंड में इसका ठीक उलट हुआ। प्रदेशभर में शारदीय नवरात्रों को बड़े धूमधाम से मनाया गया। इसके ठीक बाद मौसम विभाग ने उत्तराखंड में 18-19 अक्टूबर 2021 के लिए भारी से बहुत भारी वर्षा होने का अलर्ट जारी कर दिया। हालांकि इस चेतावनी को सरकार की पुख्ता तैयारियों के बावजूद इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया, जितना अमूमन बरसात के समय वाले अलर्ट को लेकर देखा जाता है। मौसम विभाग की चेतावनी इस बार सटीक हुई और 18-19 अक्टूबर को आसमान से जमकर पानी बरसा और ये पानी बड़ी आफत खड़ी कर गया। इस भारी बारिश के बाद असंख्य लोग बेघर हो गए। कई घर पानी में डूब गए तो कई परिवार मलबे के ढेर में जिंदा दफन हो गए। कोई बचने को इधर-उधर भागता फिरा तो पहाड़ी से बोल्डर उनके वाहनों को चकनाचूर कर गया तो कोई पानी के सैलाब में बह गए तो दर्जनों वाहन पानी में डूब गए। यही नहीं ट्रैकिंग पर गए कई लोग भी अपनी जान से हाथ धो बैठे।
अब रेस्क्यू टीमें दिन-रात मलबे में दबे शवों को ढूंढने के लिए युद्धस्तर पर काम कर रही है। इसी कड़ी में आज नैनीताल जनपद के भीमताल के थलाड़ी ग्राम में एक ही परिवार के छह लोगों को मलबे से बाहर निकाला गया। हमेशा-हमेशा के लिए बहुत दूर चले गए अपनों की एक अंतिम झलक देखने के लिए बाहर खड़े लोग आतुर दिखाई दे रहे हैं और उनकी आंखें पथरा गई हैं। जैसे ही मलबे से शव मिलते हैं, जिंदा बच गए परिजन विलख पड़ते हैं और नियति को कोसते हैं।
गढ़वाल क्षेत्र से भी आज पांच शवों के मिलने की खबर है। हालांकि अभी इनमें छितकुल से लापता ट्रेकर के शव नहीं पाए गए हैं। करीब 27 ट्रैकर इस क्षेत्र से लापता हो गए थे। इसके अलावा कई स्थानों से पर्यटकों को सुरक्षित निकालने में भी कामयाबी हासिल हुई है।
इस बेमौसमी आपदा में अब तक 69 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं, जबकि अभी भी कई लोग लापता हैं। इस आपदा में सर्वाधिक जन-धन की हानि नैनीताल जनपद से हुई।
समय रहते केंद्र सरकार ने कर दिया अलर्ट
उत्तराखंड में आई विपदा के बीच यह भी सच है कि यदि समय रहते केंद्र सरकार की ओर से प्रदेश के तंत्र को अलर्ट न किया गया होता तो इससे कहीं अधिक जनहानि हो सकती थी। सीएम पुष्कर सिंह धामी भी 2013 की केदारनाथ आपदा को ध्यान में रखते हुए पहले ही अलर्ट मोड पर थे तो उन्होंने चारधाम यात्रियों को पहले ही सुरक्षित स्थानों में निकालने में सफलता पा ली। यही कारण रहा कि कुमाऊं मंडल के मुकाबले गढ़वाल में जनहानि को होने से रोका गया। सीएम ने आपदा के दौरान ही प्रभावित क्षेत्रों के हवाई सर्वेक्षण से लेकर ट्रैक्टर पर निकलकर पीड़ितों के कंधों पर हाथ रखा तो उन्हें भी राहत महसूस हुई। आपदा के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी 21 अक्टूबर को उत्तराखंड पहुंचे और प्रभावित क्षेत्रों का हवाई सर्वेक्षण किया। इसके बाद उन्होंने सीएम पुष्कर सिंह धामी की सराहना की और कहा कि आपदा में सीएम ने बेहतरीन प्रबंधन का काम किया।
जीवनभर की कमाई आपदा की भेंट चढ़ गई
उपरोक्त तथ्यों के अलावा कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनका घर अभी उसी जगह पर खड़ा दिखाई दे रहा है, किंतु वह नीचे से खोखला हो गया है। ऐसे में ये लोग भी एक तरह से बेघर हो गए हैं और उन्हें अन्य लोगों के घरों में शरण लेनी पड़ी है।
ऐसे ही पीड़ित लोगों में अमर उजाला देरादून के वरिष्ठ पत्रकार अनिल चंदोला भी हैं। उनका चमोली स्थित घर भी आपदा से क्षतिग्रस्त हो गया है। उनके पिताजी की जीवनभर की कमाई आपदा की भेंट चढ़ गई। हमेशा दूसरों की पीड़ा को उजागर करने वाले अनिल चंदोला ने पत्रकार होने के कारण अपनी पीड़ा को अपने ही अंदाज में अपने साथ प्रकृति द्वारा किए गए इस अन्याय को कुछ इस तरह अपने शब्दों में बयां किया है। आपको भी रूबरू करवाते हैं उन्हीं के शब्दः-
”तस्वीर में दिख रहा गुलाबी रंग का 10 कमरों का बहुत खूबसूरत दो मंजिला मकान। नीचे बहने वाले गदेरे से निकलने वाली तेज आवाजें हमारी जिंदगी का हिस्सा बन चुकी थी। चारों तरफ हरियाली उसकी खूबसूरती में चार चांद लगाते थे। आज से करीब 64-65 साल पहले इसी घर में मेरे पिताजी का जन्म हुआ था। यहीं उनकी शादी हुई और हम तीन भाईयों और एक बहन का जन्म हुआ।
इसी घर के आंगन में हमने घुटने के बल चलना सीखा। बचपन में तलब होने पर इसी आंगन की मिट्टी भी खाई। उम्र बढ़ने के साथ-साथ घर से लगाव भी बढ़ता चला गया। बचपन में पूरे दिन खेलने-कूदने या इधर-उधर भटकने के बाद बाद जब हम घर पहुंचते तो जो सुकून मिलता, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। इसी घर में हम बच्चे से किशोर और किशोर से युवा हुए। इसी घर में मेरे दादा ने अपनी आखिरी सांस ली। यहीं हमने मां-पिताजी का प्यार, दुलार, गुस्सा, नाराजगी सब कुछ देखा। बाद में यहीं हम तीनों भाईयों की शादी हुई।
मेरे बड़े भाईयों के बच्चों ने भी इस घर में जन्म लिया और कुछ दिन पहले तक वो यहीं रह रहे थे, लेकिन पिछले कुछ दिनों तक हुई बारिश के बाद अब ये घर सूना है। मेरे घर के नीचे गांव के चाचा का घर भूस्खलन में ध्वस्त हो चुका है। मेरे घर का आंगन भी धंस गया है और मकान पर दरारें पड़ गई है। घर के नीचे खोखला हो गया है, जो कभी भी गिर सकता है।
मेरे पिता, बड़े भाई-भाभी और उनके दो बच्चों ने घर खाली कर किसी परिचित के यहां शरण ले ली है। उनको इतना समय भी नहीं मिला कि वो अपना पूरा सामान वहां से हटा पाते। गांव के लोगों ने कुछ सामान निकालकर आस-पास के लोगों के घरों में रखा है, लेकिन अब भी बहुत कुछ बाकी है। जिस बड़े स्तर पर नुकसान हुआ है, हमें घर के बचने की उम्मीद बहुत कम है। वैसे भी नीचे से हुए भारी भूस्खलन के बाद कोई अंदर रहने की हिम्मत नहीं कर सकता।
मेरे और मेरे परिवार के लिए इससे बड़ा नुकसान कुछ नहीं हो सकता था। कुछ साल पहले हमने इस घर का पुनर्निर्माण किया था, लेकिन अब हम बेघर हैं। हमारे परिवार के पास सिर छुपाने की अपनी कोई जगह नहीं। वर्षों तक हमारी हर खुशी, सुख-दुख का गवाह रहा, ये मकान आपदा की भेंट चढ़ चुका है।
अब यहां कभी किलकारी नहीं गूंजेगी और ना शहनाई सुनाई देगी। कभी आंगन में बच्चे नहीं खेलेंगे और नाहीं कभी हम सब भाई-बहनों के परिवार एक-दूसरे के साथ रह सकेंगे। मां और पिताजी के लिए अपने जीवनभर की कमाई को यूं मिट्टी में मिलते देख पाना आसान नहीं है। बड़े भाई ने कुछ साल पहले इस घर को नई शक्ल दी थी।
कई बार मैंने उनसे कहा कि आप देहरादून में घर बनाकर बच्चों को वहां रख दो। लेकिन भाई हर बार कहते कि मैं अपने घर को नहीं छोड़ना चाहता। मैं दूसरी जगह जाता हूं तो मुझे नींद नहीं आती। लेकिन अफसोस! आज हमें वो घर छोड़ना पड़ा है।”
पत्रकार चंदोला द्वारा कहे गए शब्द उन जैसे सैकड़ों पीड़ितों पर सटीक बैठते हैं। आपदा के बाद ऐसे असंख्य लोग प्रभावित हुए हैं। अब उनके पास सिर छिपाने के लिए छत नहीं है। ऐसे में सरकार, शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है कि करीब एक-डेढ़ माह बाद हाड़ कंपाने वाले सर्द मौसम से पूर्व बेघर हो चुके लोगों के लिए सिर छिपाने की जगह का बंदोबस्त किया जाना अति आवश्यक है।
कुल मिलाकर आपदा में अपनों को खो चुके परिजनों के दुख को कम तो नहीं किया जा सकता, किंतु उन्हें उचित मुआवजा देने के साथ ही बेघर लोगों के लिए सिर छिपाने की जगह का बंदोबस्त कर उन्हें राहत जरूर दी जा सकती है। ऐसे में सरकार के सामने अगले एक-डेढ़ महीने में हाड़ कंपा देने वाली सर्दी के मौसम से पहले प्रभावितों के लिए उचित व्यवस्था करने की बड़ी चुनौती होगी।
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