भूमि, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के मध्य समुचित सामंजस्य ही दे सकता है उत्तराखंड के विकास (development of Uttarakhand) का नया स्वरूप
दीप चन्द्र पंत
पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के विकास का ताना बाना राज्य की भूमि, जिसमें भौगोलिक स्वरूप व भूगर्भीय संवेदनशीलता सम्मिलित है, पर्यावरण जिसमें वन एवं जैव विविधता सम्मिलित है तथा पारिस्थितिकी, जिसमें मुख्यत: यहां के लोगों की जीवन परिस्थितियां सम्मिलित हैं, के बीच समुचित तालमेल बिठाकर ही बुना जाना चाहिए। किसी भी एक पक्ष को अनदेखा करना घातक हो सकता है।
अतीत में अज्ञानतावश जो भी हुआ है, उसको पीछे छोड़कर नए सिरे से विचार कर विकास का भावी स्वरूप तय किया जाना आवश्यक है। सभी लोगों का इस स्वरूप को समझना भी आवश्यक है कि क्षेत्र के विशेष भौगोलिक स्वरूप, लोगों की परिस्थिति और विकास की आवश्यकता के कारण ही पृथक पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की मांग उठी और राज्य का निर्माण भी किया गया। परंतु एक स्पष्ट दृष्टिकोण के अभाव में राज्य का समुचित विकास नहीं हो पाया और बुनियादी जरूरतों के अभाव में पहाड़ से लोग पलायन करते गए ।
शायद विकास की जरूरत और क्षेत्रों की स्थिति के विषय में एक दृष्टि का अभाव इसका कारण रहा है। पहाड़ में आदमी पहले रह ही रहा था तथा भौगोलिक स्वरूप और पर्यावरण से समुचित तालमेल भी उसने बिठा लिया था। फिर ऐसा क्या कारण रहा होगा कि राज्य बन जाने के बाद ही बेतहाशा पलायन बढ़ा है? क्यों आखिर दवा ही दर्द का सबसे बड़ा कारण बन गया? यदि राज्य में थोड़ा बहुत भाभर या तराई का क्षेत्र नहीं होता तो अधिकतर पलायन राज्य के बाहर ही हुआ होता।
ऐसा नहीं है कि पहाड़ी भूभाग रहने लायक ही नहीं है। शुद्ध हवा, हरे भरे वन, निर्मल जल, शीतल हवा, कोलाहल की कमी आदि इस क्षेत्र के ऐसे गुण हैं, जो एक शांत और सुखी जीवन के लिए इसे रहने के लिए आदर्श स्थान बनाते हैं, पर जीवन की कुछ बुनियादी जरूरतों के लिए यहां के आदमी को क्षेत्र छोड़ने और पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है। यदि उसकी ये जरूरतें पूरी हो जाती, जिस हेतु पृथक पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की मांग भी उठाई गई तो राज्य बनने पर जरूरतें पूरी होने पर उसे अपनी बसी बसाई दुनिया छोड़ने को विवश नहीं होना पड़ता। पैसे वाले बाहर से आकर उसकी जमीन खरीद कर शानदार मकान और रिजॉर्ट बना ही रहे हैं। उत्तराखंड का डेमोग्राफिक स्वरूप बदलता जा रहा है। इस तथ्य पर शासकों को अवश्य ध्यान देना चाहिए।
पहाड़ कहकर मुद्दे से पल्ला झाड़ लेना भी सही नहीं कहा जा सकता है। पहाड़ वाले भूभाग में अन्यत्र भी उन्नति हुई है। भूगर्भीय संवेदनशीलता को भी दोष देना उचित नहीं है, क्योंकि जापान ने ज्वालामुखी विस्फोट के लिए संवेदनशील होने के बावजूद परिस्थितियों से तालमेल बिठाते हुए बहुत अच्छी उन्नति की है तथा जीवन और आवश्यकता को ढाला है। उटपटांग काम कर अपने अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन करना भी बुद्धिमानी नहीं है और न अपनी अच्छी खासी बसासत छोड़कर मैदानी भूभाग के दड़बों में रहना बुद्धिमानी है। वहां के संसाधनों पर भी तो अतिरिक्त जनसंख्या का दबाव पड़ रहा है और पहाड़ की उनकी जमीन अनुपयोगी होती जा रही है और मकान खंडहर। विकास की नीति स्थलों के अनुरूप होनी चाहिए।
(लेखक भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं )