उत्तराखंड सरकार (Uttarakhand government) मूल निवास की नीति ढंग से लागू नहीं कराई
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
प्रथम मनोनीत सरकार ने तो राज्य गठन से पूर्व के तीन वर्षों (1998 1999 2000) को आधार बनाकर इस मुद्दे की इतिश्री कर ली, किंतु इस मुद्दे पर आंदोलन रहे आंदोलनकारी भी कभी किसी समय सीमा को तय करने की स्थिति में दिखाई नहीं दिए। वैसे पर्वतीय क्षेत्र के लोगों का
मानना है की प्रकृति रूप से विषम भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाले मनुष्य रूपी “जीव” जिसने जीवन की मौलिक सुविधाओं जिसमें स्कूल, अस्पताल, सड़क, बिजली, पानी आदि की सुचारू व्यवस्था के सपने संजोकर इस राज्य के निर्माण में अपनी आवाज बुलंद करने वाले उसे मूल निवासी का आज भी अगर तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो उसकी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति उत्तर प्रदेश अथवा अन्य राज्यों के पिछड़ों की अपेक्षा से भी ज्यादा बदतर है।
आज भी सुदूर प्रवृत्ति पर्वतीय क्षेत्रों में रह रहे उसे मूल निवासी को राजधानी के तथाकथित मूल निवासी उपेक्षित ही मानते हैं। यह इस प्रदेश का दुर्भाग्य ही है कि 23 साल बाद भी सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के साथ सरकार कोई भी सकारात्मक रूप नहीं अपना सकी राजनीतिक विशेषज्ञों का तो यहां तक मानना है कि सरकार जानबूझकर ऐसा माहौल बना रही है जिससे महसूस हो कि वह राज्य के मूल निवासियों के विषय में चिंतित जरूर है, किंतु कुछ करने में अक्षम है। इस तरह से उन लोगों का जिसका कि राज्य से कुछ भी लेना-देना नहीं रहा है को सीधे-सीधे लाभ पहुंचाने का कार्य कर रही है।
राज्य आंदोलनकारी, बेरोजग़ार संगठन सरकार की नीतियों के खिलाफ धरना प्रदर्शन कर सकते हैं और वह ऐसा कर भी रहे हैं, लेकिन
पृथक-पृथक होकर। अब सरकार को देखना चाहिए कि आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े समाज को कैसे आगे बढ़ाया जाए। अभी भी वक्त है कि कोई भी रोजगार देने से पहले मूल- निवास के संबंध में ऐसी नीति तय करें जो राज्य की मूल भावना के अनुरूप हो। मूल निवासियों
के हितों का संरक्षण इस राज्य के उज्जवल भविष्य पर खुशहाली से जुड़ा प्रश्न है, ऐसे में सरकार को पारदर्शिता अपनानी ही होगी। शिक्षा का क्षेत्र हो या फिर नौकरियों में आवेदन करने का सवाल, सिर्फ मूल निवास प्रमाण पत्र को ही वैध ठहराया जाना चाहिए।
हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर उत्तराखंड का विकास का दावा ठोकने वाले नेताओं को सबसे पहले यह समझना होगा कि हिमाचल आज स्थिति में उसे लाने का श्रेय वहां के परमार राजाओं को जाता है, जिन्होंने अपने निजी स्वार्थों का त्याग कर, स्वेच्छा से स्वयं को नवनिर्मित राज्य के विकास में झोंक दिया था। उनके द्वारा हिमाचल के लिए बनाई गई दूरदर्शी नीतियां ही थीं कि आज वहां के निवासी समृद्धि से परिपूर्ण है। दूसरी ओर इस प्रदेश के “औजस्वी” नेता जो खुद को उत्तराखंड का खेवनहार मानते हैं, मगर सोच जो जातिवाद- क्षेत्रवाद से आगे नहीं पहुंच पाती और गलतफहमी ऐसी कि राष्ट्रीय स्तर भी छोटा पड़ जाए। ऐसे नेताओं के कुकृत्यों को ना तो कभी बद्री-केदार माफ करेंगे और ना गंगा-जमुना ह़ी धो पाएंगी। पूरे हिमालयी राज्यों में वहां के मूल निवासियों के लिए विशेष कानून है, लेकिन उत्तराखंड में सरकार ने इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं की है।
उत्तराखंड के मूल निवासियों के अधिकार सुरक्षित रहें और उस राज्य के शहीदों के सम्मान के अनुरूप यह राज्य बन पाए, इसलिए प्रदेश में भू कानून, मूल निवास 1950 और धारा 371 का कानून लाना जरूरी हो गया है। जल जंगल और जमीन जो हमारी मुख्य पूंजी है उस पर एक साजिश के तहत बाहरी तत्व सरकारी संरक्षण में कब्जा कर रहे है। सरकारी सेवाओं में बाहरी लोगों को धनबल के चलते नियुक्तियां भी मिल रही हैं और यहां का मूल निवासी बेरोजगार हो रहा है।
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उत्तराखंड में हिमाचल प्रदेश की भांति एक सुदृढ़ भू कानून की आवश्यकता है जिससे राज्य के बाहर के भू माफिया उत्तराखंड की जमीनों को खुर्दबुर्द ना कर सकें और जिन्होंने यहां पर अनाप-शनाप तरीकों से जमीनें खरीदी हैं और अब वे उसे खुद बंदर बांट कर रहे हैं उत्तराखंड के जमीनों को कब्जा रहे हैं। यहां के जंगलों पर गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं उस पर रोक लगाने के लिए एक प्रभावी भू कानून की आवश्यकता उत्तराखंड राज्य बनने के दिन से ही अनुभव कर रहा है। यही नहीं इसके साथ ही वर्ष 1950 को आधार मानते हुए उत्तराखंड में सभी सरकारी व गैर सरकारी सेवाओं के लिए मूल निवास प्रमाण पत्र की अनिवार्यता भी यहां के निवासी अभिलंब अनुभव कर रहे हैं इसके लिए समय-समय पर मांग उठती रही है।
अब उत्तरांचल उत्तराखंड में भू कानून लागू करने के लिए अनेक संगठन भी आगे आ रहे हैं बता दें कि भू-क़ानून का प्रचंड वेग ऐसे ही राज्य में नहीं आया इसके लिए लगातार भू-अभियान की महिलाओं ने पंडित दीनदयाल पार्क देहरादून में 84दिनों तक अनशन भी किया और2022 के चुनाव आने के कारण अनशन को स्थगित किया गया हैं.. इस वेग को लाने के लिए निरंतर वगैर आराम किए लगातार कभी गोष्ठी, विचार मंथन, मैराथन, साईकिल यात्रा, डोर टू डोर कैम्पैनिंग, सोसियल मीडिया, पत्रकारवार्ता आदि अनेक अभियान चलाये गये तब जाकर आज उत्तराखंड को एक अपना पृथक भू-क़ानून का ड्राफ्ट मिल पाया हैं समिति के द्वाराआज मुख्य सचिव से 23 बिंदुओं पर विस्तार से चर्चा हुई हैं और उनको अभियान ने एक निश्चित समय तक समिति की सभी 23अनुसंशाओ को लागू करने का समय दिया हैं उसके बाद अभियान सड़कों पर उतरने को फिर से मजबूर होगा.. मुख्य सचिव से बातचीत करने पर लगा की सरकार इसके लिए गंभीर हैं हों सकता हैं जल्द सरकार इस पर अपनी मुहर लगा दे.. राज्य का भू-क़ानून एक अतिज्वलन्त व आवश्यकीय मुद्दा हैं.. जमीनों की वगैर किसी रुकावट के जिसकी जितनी मर्ज़ी हों कृषि योग्य ज़मीन ख़रीद ले पर अब अंकुश लगाना राज्य के लिए बेहद जरुरी हैं इसकी अनुशंशा समिति ने अपनी रिपोर्ट में पुरजोर तरीक़े से की हैं।
देखना हैं इस मानसून सत्र 2023 विधानसभा में तय समयसीमा तक राज्य को अपना *पहला पृथक भू-क़ानून मिलता हैं या नहीं..?* उत्तराखंडके सामाजिक व्यक्ति हो या राजनेता दोनों को इस बात का भान होना चाहिए कि उत्तराखंड राज्य गठन की जन आकांक्षाएं,शहीदों की शहादत, लोकशाही व चहुंमुखी विकास के साथ देश की सुरक्षा का प्रतीक है राजधानी गैरसैंण बनाना। भू कानून,मूल निवास,जनसंख्या पर आधारित विधानसभा परिसीमन जरूरी है। उत्तराखंड राज्य गठन आंदोलन किसी व्यक्ति या दल को सत्तासीन करने के लिए नहीं लड़ा गया था।
उत्तराखंड राज्य गठन के आंदोलन के जो घाव मुजफ्फरनगर खटीमा मसूरी इत्यादि से मिले थे उस उन पर गुनाहगारों को दंडित करने का संकल्प लिया था। जिसको उत्तराखंड की 23 साल की सरकारों ने उत्तराखंड के हक हकूकों के साथ मान सम्मान को भी निर्ममता से रौंद दिया है इसलिए उत्तराखंड की तमाम शुभचिंतकों को चाहिए उत्तराखंड के नेताओं व नौकरशाहों को लोकशाही का पाठ पढ़ाने के लिए राजधानी गैरसैण बनाने के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठकर निर्णायक दबाव बनाने का काम करें। राजधानी गैरसैंण बनने के बाद जहां उपेक्षित पर्वतीय जनपदों में विकास के नए आयाम खुल जाएंगे वही नौकरशाह और नेताओं को पर्वती क्षेत्रों के प्रति दुराग्रह भी दूर हो जाएंगे। उनको समझाने के लिए फिर वह कानून मूल निवास, मुजफ्फरनगर कांड व जनसंख्या पर आधारित विधानसभा परिसीमन इत्यादि मुद्दों पर मजबूती
से दबाव बनाया जा सकता है।
अभी वर्तमान में भाजपा व कांग्रेस का हाला नेतृत्व उत्तराखंड में इस प्रकार के किसी कानून बनाने के पक्ष में नहीं है। वह हिमाचल से भू कानून को हटाने की तिकड़म कर रहे थे।परंतु हिमाचल की जागरूक जनता व नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व की इस नापाक इरादों को विफल करदिया।इसलिए उत्तराखंड की तमाम हितेषियों को अपनी पूरी ताकत अभी राजधानी गैरसैंण बनाने के लिए लगानी चाहिए। तभी उत्तराखंड से घुसपैठ भी बंद होगी। तभी उत्तराखंड के हक हकूकों की भी रक्षा होगी। हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए उत्तराखंड, भारतीय संस्कृति की उद्गम स्थली रही है इसकी रक्षा मजबूती से की जानी चाहिए। इस बीच बड़ी संख्या में बाहरी प्रदेश के लोगों ने यहां स्थाई निवास प्रमाण पत्र बनाकर नौकरी पाने का अवसर पा लिया है।
पवार ने कहा कि उत्तराखंड राज्य की लड़ाई के दौरान भी मूल में यही भावना थी कि स्थानीय लोगों को रोजगार मिल सके। उन्होंने मांग की कि स्थाई निवास के बजाय मूल निवास को अनिवार्य किया जाए एवं स्थानीय बेरोजगारों को रोजगार दिलाने दिलाने के लिए आदेश जारी किया जाए। उन्होंने कहा कि पूर्व में मूल निवास प्रमाण पत्र बनते थे लेकिन 2012 के बाद बिना शासनादेश के मूल निवास प्रमाण पत्र बनाने बंद कर दिए गए हैं और इसके स्थान पर स्थाई निवास प्रमाण पत्र जारी किए जा रहे हैं। उन्होंने इसे उत्तराखंड यों के साथ छलावा है। जन भावनाओं के अनुरूप उत्तराखंड में रोजगार के लिए स्थाई निवास के बजाय मूल निवास को अनिवार्य किया जाए। उन्होंने इसके लिए 1950 को मानक वर्ष मानने का आग्रह किया।
उन्होंने कहा कि मूल निवास की अनिवार्यता नहीं होने से स्थानीय बेरोजगारों को नुकसान हो रहा है। बाहरी प्रदेशों के लोगों की लगातार आबादी बढ़ रही है। सीमांत जनपद में आबादी का ग्राफ तेजी से बढ़ा है।सामरिक महत्व के इस जनपद में आबादी बढ़ना खतरनाक है। इससे लव जिहाद जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं। उन्होंने उत्तराखंड राज्य आंदोलन की जन भावनाओं का सम्मान करते हुए उत्तराखंड में मूल निवास प्रमाण पत्र एवं सख्त कानून के लिए उचित कार्रवाई करने का अनिवार्य किया जाए उत्तराखंड में सशक्त भू कानून औऱ मूल निवास 1950 शीघ्र लागू किया जाए। उत्तराखंड का मूल निवास लागू होने से यहां के संसाधनों व रोज़गार पर पहला हक उत्तराखण्डियों का होना जरूरी है। जमीनों की लगातर हो रही खरीद फरोख्त होने से पहाड़ की सभ्यता संस्कृति बर्बाद हो रही है।
सख्त भू कानून लागू न होने से पहाड़ की जमीनें कौड़ियों के भाव बिक रही है। मजबूत मूल निवास नही होने से यहां उत्तराखंड के लोगों को अपने ही राज्य मैं बेरोजगार होना पढ़ रहा है। बाहरी लोगों को रोजगार मिल रहा है, और यहां के युवाओं को राज्य से बाहर जाना पड़ रहा है। मजबूत भू कानून न होने से अधिकतर जमीने बिक चुकी हैं जो उत्तराखंड के लिए चिंताजनक है। आज राज्य के मूल निवासियों को कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है। उल्टा राज्य के मूल निवासियों को नुकसान उठाना पड़ रहा है।
प्रदर्शनकारियों ने कहा कि जल, जंगल और ज़मीन जो हमारी मुख्य पूंजी है, उसपर एक साजिश के तहत बाहरी तत्व सरकारी संरक्षण में कब्जा कर रहे हैं। सरकारी सेवाओं में बाहरी लोगों को धनबल के चलते नियुक्तियां भी मिल रही हैं और यहां का मूल निवासी बेरोजगार हो रहा है। सरकार हमारी बातों पर ध्यान नहीं दे रही है।उत्तराखण्ड स्टूडेंट्स फेडरेशन के संयोजक ने कहा ने कहा कि 42 से ज्यादा शहादतों के बाद यह राज्य हमें मिला परन्तु आज 23 वर्षों बाद भी हमारा मूल निवासी अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर लड़ रहा है। मूल निवासी फेक्ट्री से लेकर सरकारी नौकरी क़े लियॆ खाक छान रहें अपनी ही भूमि बचाने को आन्दोलन करने को मजबूर हैं।
वही पहाड़ी स्वाभिमान सेना से मोहित डिमरी ने कहा की कहा कि उत्तराखण्ड की जनता को यह समझना होगा औऱ अब भविष्य को बचाने की लड़ाई क़े लियॆ आगे आना होगा अन्यथा हमारी भूमि लगातार छीनती जाएगी औऱ मूल निवासी अल्पसंख्यक हो जाएगा एवं भविष्य में इससे हमारी दोनो अंतरराष्ट्रीय सीमाओं में भी संकट पैदा हो जाएगा। यूकेडी के आशुतोष भंडारी ने कहा कि जिस तरह से मूल निवासियों पर अत्याचार की घटनाओं में इजाफा हो रहा है वह चिंता का विषय है और अगर समय पर मजबूत भू कानून और मूल निवास की व्यवस्था नही हुई तो उत्तराखण्ड राज्य एक आपराधिक राज्य में परिवर्तित हो जाएगा।
यूशएसशएफश के जिला अध्यक्ष देहरादून एवं देवभूमि युवा संगठन ने कहा की पिछले 23 वर्षों से हमारें प्रदेश को केवल प्रयोगशाला बनाकर रख दिया गया औऱ हमारें प्रदेश वासियों क़े अधिकारों का हनन हो रहा हैं इससे देवभूमि में अपराध, भू माफिया, नशे का कारोबार क़े साथ ही बेरोजगारिता बढ़ती जा रही हैं। यदि समय रहते इस तरफ ध्यान दे दिया जाता तो ऐसी स्थिति नहीं आती।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)