उत्तराखंड राज्य आंदोलन के गुमनाम नायक इंद्रमणि बडोनी (Indramani Badoni)
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
इन्द्रमणि बडोनी का जन्म 24 दिसम्बर 1925 को टिहरी गढवाल के जखोली ब्लाक के अखोडी ग्राम में हुआ।उनके पिता का नाम सुरेशानंद बडोनी था।अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष में उतरने के साथ ही उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। अपने सत्याग्रहपूर्ण सिद्धांतों पर दृढ रहने वाले इन्द्रमणि बडोनी का जल्दी ही राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करने वाले दलों से मोहभंग हो गया। इसलिए वह चुनाव भी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में लडे और सन् 1967,1974,1977में देवप्रयाग विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत कर उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे।
उत्तर प्रदेश में बनारसी दास गुप्त के मुख्यमंत्रित्व काल में वह पर्वतीय विकास परिषद के उपाध्यक्ष भी रहे थे।आज 18 अगस्त को उत्तराखंड राज्य आंदोलन के इतिहास में पहाड़ के गांधी के रूप में याद किए जाने वाले इन्द्रमणि बडोनी की पुण्यतिथि है। मगर दुःख के साथ कहना पड़ता है कि उत्तराखंड की जनता के द्वारा इस जन नायक की पुण्यतिथि जिस कृतज्ञतापूर्ण हार्दिक संवेदनाओं के साथ मनाई जानी चाहिए उसका अभाव ही नजर आता है।इससे सहज में ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड की राजनीति आज किस प्रकार की विचारशून्य, स्वार्थपूर्ण और निराशा के दौर से विचर कर रही है? इतिहास साक्षी है कि जो कौम या समाज अपने स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को भुला देता है, वह ज्यादा दिनों तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकता।
इन्द्रमणि बडोनी उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के मुख्य सूत्रधार थे। अगस्त का यह महीना वैसे भी स्वतंत्रता आंदोलन के वीर सेनानियों को उनके योगदान के लिए याद करने का विशेष महीना होता है। बडोनी के संदर्भ में अगस्त का महीना उनके राजनैतिक संघर्ष का खास महीना भी था। 2 अगस्त 1994 को उन्होंने पौड़ी प्रेक्षागृह के सामने आमरण अनशन का जन आंदोलन शुरू किया था और 7 अगस्त 1994 को उन्हें पहले मेरठ अस्पताल में और बाद में दिल्ली स्थित आयुर्विज्ञान संस्थान में जबरन भरती करवा दिया गया। इसी दौरान उत्तराखंड राज्य आन्दोलन पूरे पहाड में आग की तरह फैल चुका था। उत्तराखंड की सम्पूर्ण जनता अपने महानायक के पीछे लामबन्द हो गयी थी। बीबीसी ने तब कहा था, यदि आपने जीवित एवं चलते फिरते गांधी को देखना है तो आप उत्तराखंड की धरती पर चले जायें। वहाँ गांधी आज भी अपनी उसी अहिंसक अन्दाज में विराट जन आंदोलनों का नेतृत्व कर रहा है।
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आज की युवा पीढी के बहुत कम लोगों को शायद यह बात मालूम है कि उत्तराखण्ड आंदोलन में इन्द्रमणि बडोनी के जुझारु नेतृत्व के बदौलत ही पृथक् राज्य का सपना पूरा हो सका। जरा याद करें स्वतंत्र भारत में भी पृथक् राज्य की मांग करने वाले उत्तराखण्ड के आन्दोलनकारियों पर किए गए जुल्म और अत्याचार के कारनामों की दास्तां 1 सितम्बर 1994 को खटीमा और 2 सितम्बर को मसूरी के लोमहर्षक हत्याकांडों से पूरा देश दहल उठा था। 15 सितम्बर को शहीदों को श्रद्धांजलि देने हेतु मसूरी कूच किया गया, जिसमें पुलिस ने बाटा घाट में आन्दोलनकारियों को दो तरफा घेर कर लहूलुहान कर दिया। दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया गया और बडोनी को जोगीवाला में ही गिरफ्तार कर सहारनपुर जेल भेजा गया। इस दमन की सर्वत्र निन्दा हुई। मुजफ्फरनगर के जघन्य कांड की सूचना मिलने के बाद 2 अक्टूबर की दिल्ली रैली में उत्तेजना फैल गई। मंच पर अराजक तत्वों के पथराव से बडोनी चोटिल हो गये थे। मगर उत्तराखण्ड के इस गांधी ने उफ तक नहीं की और यूपी हाऊस आते ही फिर उत्तराखंड के लिए चिन्तित हो गये।
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स्वतंत्रता आंदोलन संघर्ष से जुड़े उन तूफानी दिनों की बात ही कुछ और थी। जगह-जगह पर आन्दोलनकारी अनशन कर रहे थे,धरनों पर बैठे थे और विराट जलूसों के रूप में सड़कों पर निकल पड़ते थे। इनमें सबसे आगे चल रहा होता था दुबला-पतला,लम्बी बेतरतीब दाढ़ी वाला शख्स – इन्द्रमणि बडोनी। अदम्य जिजीविषा एवं संघर्ष शक्ति ने उन्हें इतना असाधारण बना दिया था कि बड़े से बड़ा नेता उनके सामने बौना लगने लगा था। इन्द्रमणि बडोनी को देवभूमि उत्तराखंड और अपनी संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम था। उत्तराखंड हिमालय भ्रमण के दौरान उन्होंने ही भिलंगना नदी के उद्गम स्थल खतलिंग ग्लेशियर को खोजा था। उनका सपना पहाड को आत्मनिर्भर राज्य बनाने का था और उन्ही के प्रयासों से इस क्षेत्र में दुर्लभ औषधियुक्त जडी बूटियों की बागवानी प्रारम्भ हुई। उनका सादा जीवन देवभूमि के संस्कारों का ही जीता-जागता नमूना था। वे चाहते थे कि इस पहाडी राज्य को यहां की भौगोलिक परिस्थिति व विशिष्ट सांस्कृतिक जीवन शैली के अनुरूप विकसित किया जाए।
वर्ष 1958 में राजपथ पर गणतंत्र दिवस के अवसर पर बडोनी ने केदार नृत्य की ऐसी कलात्मक प्रस्तुति की थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी उनके साथ थिरक उठे थे। युग पुरुष इन्द्रमणि बडोनी हिमालय के समान दृढ निश्चयी,गंगा के समान निर्मल हृदय, नदियों और हरे भरे जंगलों की भांति परोपकारी वृत्ति के महा मानव थे। उत्तराखंड के इस सच्चे सपूत ने 72 वर्ष की उम्र में 1994 में राज्य निर्माण की निर्णायक लड़ाई लड़ी, जिसमें उनके अब तक के किये परिश्रम का प्रतिफल जनता के विशाल सहयोग के रूप में मिला। उस ऐतिहासिक जन आन्दोलन के बाद भी 1994 से अगस्त 1999 तक बडोनी उत्तराखंड राज्य के लिए जूझते रहे। मगर अनवरत यात्राओं और अनियमित खान-पान से कृषकाय देह का यह वृद्ध-गांधी बीमार रहने लगा।
देहरादून के अस्पतालों, पी.जी.आई. चंडीगढ़ एवं हिमालयन इंस्टीट्यूट में इलाज कराते हुए भी मरणासन्न बडोनी हमेशा उत्तराखंड की बात करते थे। गुर्दों के खराब हो जाने से दो-चार बार के डायलिसिस के लिए भी उनके पास धन का अभाव हो गया था। उत्तराखंड आंदोलन के समर्थकों को इंद्रमणि का अंतिम संदेश था, उत्तराखण्ड के लोगों को हारा हुआ महसूस नहीं करना चाहिए। जब तक वे अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक उन्हें अपने उद्देश्य के झंडे को तेज़ हवाओं के साथ उड़ने देना चाहिए। उनकी गिरफ्तारी से लोगों में आक्रोश फैल गया और आंदोलन को गति मिली जिसके परिणामस्वरूप 9 नवंबर, 2000 को उत्तराखंड का गठन हुआ। बड़ोनी जैसे महान नेताओं ने राज्य को जो विजन दिया था, आज तक हमारे नेता उसे पूरा नहीं कर पाए। वह राज्य को समृद्ध बनाना चाहते थे। शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यटन, रोजगार को लेकर बहुत अधिक सजग रहा करते थे।
राज्य बनने के बाद विभिन्न स्थानों पर मसूरी व प्रदेष में अनजान लोगों की प्रतिमाएं लग गई उनकी पुण्य तिथि व जन्म तिथि पर बडे़ – बडे़ आयोजन हो रहे हैं। लेकिन बड़ोनी को कोई याद भी नहीं कर रहा है। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि प्रदेश व शहर स्तर पर शासन करने वाले
लोगों को बड़ोनी की याद नहीं है। जिन लोगों ने लोक सरोकारों को बचाने के लिए पूरा जीवन खपाया उन्हीं में उत्तराखंड राज्य निर्माण के सूत्रधार स्व. इंद्रमणि बडोनी जिन्हें पहाड़ का गांधी कहा जाता है उन्हें लोग भूल गये।
उन्होंने कहा कि जिस तरह राज्य को राजनैतिक दल व उनकी सरकारें लूट रही हैं ऐसे में बडोनी के बताये रास्ते पर चलने की जरूरत है। यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि बडोनी जी नवगठित राज्य में अपनी अंतिम सांस नहीं ले सके क्योंकि 18 अगस्त, 1999 को उनकी मृत्यु हो गई मातृभूमि की प्राणपण से सेवा करते-करते 18 अगस्त 1999 को उत्तराखंड का यह सपूत अनंत यात्रा की तरफ महाप्रयाण कर गया। इसे भी हमारा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जिस राज्य के लिए बडोनी जी ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया उसके अस्तित्व में आने से पहले ही वह हमें नेतृत्व विहीन करके चला गया। आज हमारे बीच बडोनी जैसे नेता होते तो उत्तराखंड की ऐसी दुर्दशा नहीं होती। उत्तराखंड की अगस्त क्रांति के इस जननायक को उनकी पुण्यतिथि पर हम समस्त उत्तराखंडवासी अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। पहाड़ के इस गांधी को कोटि कोटि नमन!!
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )