उजड़ गए आशियाने सरकार पर टिकी निगाहें
हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में इस साल बारिश अपने साथ तबाही लेकर आई। भारी बारिश और भूस्खलन के चलते न जाने कितनों के घर उजड़ गए। सालों से बनी बनाई गृहस्थी नदी के तेज बहाव में बह गई। इस तबाही का जो दर्द है वो शायद ही किसी मुआवजे से भर पाए। कोटद्वार में न जाने ऐसे कितने लोग हैं जिन्होंने अपने आंखों के सामने अपना सब कुछ इस बाढ़ बारिश में खत्म होते देखा है। कोटद्वार तहसील क्षेत्र में बीती 8 अगस्त व 13 अगस्त की रात हुई अतिवृष्टि में 31 भवन पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए। इनमें से 21 भवन कोटद्वार में खोह नदी की भेंट चढ़े, जबकि दस भवन पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन की जद में आकर जमींदोज हुए। प्रभावित परिवारों को प्रशासन ने राहत शिविरों में ठहराया हुआ है लेकिन, भविष्य को लेकर प्रभावित परिवार आज भी असमंजस की स्थिति में है।
दरअसल, कोटद्वार में खोह नदी की भेंट चढ़े अधिकांश भवन सरकारी भूमि में थे। ऐसे में इन भवन स्वामियों की निगाहें सरकार पर टिकी हुई हैं। उधर, पर्वतीय क्षेत्रों में बेघर परिवारों को सरकार की पुनर्वास नीति का इंतजार है। प्रशासन के आंकड़ों पर नजर डालें तो कोटद्वार नगर निगम क्षेत्र में बीती आठ अगस्त व 13 अगस्त की रात अतिवृष्टि के दौरान आए सैलाब में कोटद्वार क्षेत्र में 21 भवन जमींदोज हो गए। प्रशासन ने तात्कालिक सहायता के रूप में इन भवन स्वामियों को पांच-पांच हजार रूपए की धनराशि प्रदान की। लेकिन, इन भवन स्वामियों का भविष्य क्या होगा, इसे लेकर संशय की स्थिति है।
दरअसल, प्रशासनिक दस्तावेजों पर नजर डालें तो इन भवन स्वामियों में से कई भवन स्वामी ऐसे हैं, जिनके भवन राज्य सरकार की भूमि पर बने हुए थे। प्रशासनिक दृष्टिकोण से देखें तो यह सरकारी भूमि पर अतिक्रमण की श्रेणी में है। ऐसे में इन लोगों के पुनर्वास को सरकारी तंत्र भूमि देगा, इसकी उम्मीद काफी कम है। स्वयं प्रशासनिक अधिकारी भी यह मान रहे हैं कि सरकारी भूमि पर अतिक्रमण करने वालों के पुनर्वास के संबंध में कोई व्यवस्था फिलहाल नहीं है। कोटद्वार तहसील के पर्वतीय क्षेत्रों की बात करें तो कोटद्वार नगर निगम को छोड़ तहसील के ग्रामीण क्षेत्रों में दस भवन क्षतिग्रस्त हुए हैं। यहां रह रहे परिवारों को स्कूलों, पंचायत भवनों अथवा अन्य सुरक्षित स्थानों पर शिफ्ट किया गया है।
भवन स्वामियों के भवन स्वयं के नापखेत भूमि में हैं, ऐसे में यह भवन स्वामी पुनर्वास नीति के अंतर्गत आएंगे। वर्तमान में पुनर्वास के लिए सरकार की ओर से करीब सवा लाख की धनराशि दिए जाने का प्राविधान है। हालांकि, तहसील प्रशासन अभी इस इंतजार में है कि यदि शासन से पुनर्वास नीति में कोई संशोधन किया जाता है तो उक्त प्रभावितों को इसका लाभ मिल जाए। त्तराखंड में भी करीब 300 गांव ऐसे ही खतरे में हैं, जिनके पुनर्वास की फाइल तो बहुत पहले तैयार हो गई है, लेकिन परवान नहीं चढ़ पाई है।
उत्तराखंड में साल-दर-साल अतिवृष्टि, भूस्खलन, भूकटाव, भूधंसाव, भूकंप जैसी आपदाओं में वृद्धि देखने को मिल रही है। ऐसे गांवों की संख्या भी बढ़ती जा रही है, जो आपदा की दृष्टि से संवेदनशील हैं। तमाम गांवों में भवन में दरारें हैं और बुनियाद हिलने से खतरा बना हुआ है। इन आपदा प्रभावित गांवों का पुनर्वास किया जाना है। वर्तमान में इनकी संख्या तीन सौ का आंकड़ा पार कर चुकी है। इनमें से कई गांवों के लोग खुद अपना घर छोड़कर विस्थापन कर चुके हैं। पिथौरागढ़ जिले में पुनर्वासित किए जाने वाले गांवों में सर्वाधिक संख्या 129 है। इसके अलावा उत्तरकाशी में 62, चमोली में 61, बागेश्वर में 58, टिहरी में 33 और रुद्रप्रयाग में करीब 14 गांवों को पुनर्वासित किया जाना है। वर्ष 2012 से अब तक 88 गांवों के 1446 परिवारों का ही पुनर्वास किया जा सका है।
इधर, आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास विभाग के सचिव का कहना है कि राज्य सरकार विस्थापन एवं पुनर्वास नीति के अंतर्गत आपदा प्रभावित परिवारों के पुनर्वास में जुटी है। शीघ्र ही इस संबंध में विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की जाएगी। पुनर्वास योजना के तहत वित्तीय वर्ष 2022-23 में 31 गांवों के 336 परिवारों का पुनर्वास किया गया। उत्तराखंड पलायन निवारण आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में करीब 17 सौ गांव ऐसे हैं, जो विभिन्न कारणों से पूरी तरह से निर्जन हो चुके हैं। इनमें भूस्खलन और भूधंसाव भी एक बड़ा कारण है। कई गांवों के लोग पुनर्वास के इंतजार में खुद अपना घरबार छोड़कर विस्थापित हो चुके हैं। इममें पौड़ी में 517, अल्मोड़ा में 162, बागेश्वर में 147, टिहरी में 142, हरिद्वार में 120, चंपावत में 108, चमोली में 106, पिथौरागढ़ में 98, रुद्रप्रयाग में 93, उत्तरकाशी में 83, नैनीताल में 66, ऊधमसिंह नगर में 33, देहरादून में 27 गांव शामिल हैं।
आमतौर पर हिमालयी राज्य उत्तराखंड में सितंबर के दूसरे हफ्ते तक बारिश बंद हो जाती है और अक्टूबर की शुरुआत में मानसून विदा हो जाता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि समूचा उत्तराखंड साल-दर-साल अतिवृष्टि, भूस्खलन, भूकटाव, भूधंसाव, भूकंप जैसी आपदाओं से जूझता आ रहा है। इस परिदृश्य के बीच ऐसे गांवों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो आपदा की दृष्टि से संवेदनशील हैं। तमाम गांवों में भवन में दरारें अथवा बुनियाद हिलने से खतरा बना हुआ है। इन आपदा प्रभावित गांवों का पुनर्वास किया जाना है और वर्तमान में इनकी संख्या चार सौ का आंकड़ा पार कर चुकी है। यद्यपि, सरकार ने पुनर्वास की दिशा में कदम उठाए हैं और वह इस मुहिम को गति देना चाहती है, लेकिन भूमि की अनुपलब्धता एक बड़ा रोड़ा बनी हुई है।
इसका एक बड़ा कारण है राज्य में पुनर्वास के लिए लैंड बैंक का न होना।अब शासन ने पुनर्वासित किए जाने वाले 32 गांवों के 148 परिवारों के लिए संबंधित जिलाधिकारियों से भूमि चयनित करने कहा है। इस स्थिति के बीच अब यह बात भी उठ रही है कि राज्य में पलायन के कारण निर्जन हो चुके 1702 गांवों की भूमि का उपयोग आपदा प्रभावितों के पुनर्वास के लिए किया जा सकता है। निर्जन हो चुके तमाम गांवों तक सड़क आदि की सुविधाएं पहले से ही उपलब्ध हैं।यदि वहां प्रभावितों का पुनर्वास किया जाता है तो ये गांव फिर से आबाद तो होंगे ही, जंगल की शक्ल अख्तियार कर रहे खेतों में फसलें भी लहलहाएंगी। ऐसे में पुनर्वास के लिए भूमि की कमी भी दूर हो जाएगी।
ये बात अलग है कि निर्जन हो चुके गांवों में जिन व्यक्तियों की भूमि व भवन हैं, उन्हें इसके लिए राजी करना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होगा। जानकारों के अनुसार यह चुनौती ऐसी नहीं, जिससे पार न पाया जा सके। आपसी सहमति और संबंधित परिवारों को समुचित मुआवजा या फिर भूमि अधिग्रहण के विकल्पों के आधार पर इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। जिस तरह से आज विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है, उससे प्राकृतिक आपदाओं में भी बढ़ोतरी हो रही है। डर लगता है कि कहीं विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति मानव जाति के लिए खतरा न बन जाए। उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )